पांच साल बाद भारतीय मीडिया मने सबका मालिक एक! सुनिए पी. साइनाथ के कटु वचन

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लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ यानी मीडिया के साथ एक समस्या यह है कि चारों स्तंभों के बीच यही इकलौता है जो मुनाफा खोजता है। भारत का समाज बहुत विविध, जटिल और विशिष्ट है लेकिन उसके बारे में जो मीडिया हमें खबरें दे रहा है, उस पर नियंत्रण और ज्यादा संकुचित होता जा रहा है। आपका समाज जितना विविध है, उतना ही ज्यादा एकरूप आपका मीडिया है। यह विरोधाभास खतरनाक है।

बीते दो दशकों में हमने पत्रकारिता को कमाई के धंधे में बदल डाला है। यह सब मीडिया के निगमीकरण के चलते हुआ है। आज मीडिया पर जिनका भी नियंत्रण है, वे निगम पहले से ज्यादा विशाल और ताकतवर हो चुके हैं। पिछले 25-30 साल में मीडिया स्वामित्व लगातार सिकुड़ता गया है। सबसे बड़े मीडिया तंत्र नेटवर्क 18 का उदाहरण लें। इसका मालिक मुकेश अम्बानी है। आप सभी ईटीवी नेटवर्क के तमाम चैनलों को जानते हैं। आपमें से कितनों को यह बात पता है कि तेलुगु को छोड़कर ईटीवी के बाकी सारी चैनल मुकेश अम्बानी के हैं? अगर हम लोग पांच साल और पत्रकारिता में टिक गए, तो यकीन मानिए हम सब का मालिक वही होगा। उसे अपने कब्जे वाले सारे चैनलों के नाम तक नहीं पता हैं, बावजूद इसके वह जब चाहे तब फतवा जारी कर सकता है कि चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी को कवर नहीं किया जाएगा। और ऐसा ही होता है। इन चैनलों का व्यावसायिक हित दरअसल इन्हें नियंत्रित करने वाले निगमों का व्यावसायिक हित है। इसलिए आने वाले वक़्त में कंटेंट पर जबरदस्त शिकंजा कसने वाला है।

पिछले 20 साल में मीडिया मालिक निगम ही नवउदारवाद और सार्वजनिक संसाधनों के निजीकरण के सबसे बड़े लाभार्थी रहे हैं। आज कोई इस बात को याद नहीं करता कि मनमोहन सिंह को शुरुआती पांच साल तक भगवान जैसा माना जाता था। 2009 में तमाम बड़े एंकरों ने कहा था कि यह जीत कांग्रेस पार्टी की जीत नहीं है बल्कि मनमोहन सिंह की जीत है, उनके किए आर्थिक सुधारों की जीत है। इस बार ध्यान से देखिएगा क्योंकि निजीकरण का अगला दौर आने ही वाला है। इससे किसे लाभ होगा? अगर खनन का निजीकरण हो जाता है तो टाटा, बिड़ला, अम्बानी और अडानी सभी लाभार्थी होंगे। अगर कुदरती गैस का निजीकरण हुआ तो एस्सार और अम्बानी को फायदा होगा। स्पेक्ट्रम से टाटा, अम्बानी और बिड़ला को लाभ होगा। आपके मीडिया मालिक निजीकरण की नीति के सबसे बड़े लाभार्थी बनकर सामने आएंगे। जब बैंकों का निजीकरण होगा तो ये लोग बैंक भी खोल लेंगे।

इन लोगों ने कुछ साल तक नरेंद्र मोदी जैसी शख्सियत को गढ़ने में काफी पैसा लगाया और इस प्रक्रिया में उनके विरोधियों को गुजरात व दिल्ली के कूड़ेदान में डाल दिया। मोदी अब तक उनके लिए कुछ नहीं कर पाए हैं और इन मीडिया मालिकों को नहीं मालूम कि अब क्या करना है। मोदी भूमि अधिग्रहण विधेयक लागू नहीं करवा पाए। वे तमाम काम करवा पाने में नाकाम रहे जिनका आपको बेसब्री से इंतजार था। वे लोग मोदी से खफ़ा हैं लेकिन उनके पास मोदी का विकल्प नहीं है। तो अब जाकर हम देख रहे हैं कि मीडिया में जहां-तहां हलकी-फुलकी शिकायतें आ रही हैं। मैं फिर से कहना चाहूंगा कि भारतीय मीडिया राजनीतिक रूप से मुक्त है लेकिन मुनाफे का गुलाम है। यही उसका चरित्र है।

मीडिया का निगमीकरण कोई नई बात नहीं है लेकिन कई देशों के मुकाबले भारत में इसकी गति तीव्र है। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तो परिपक्वता के स्तर तक पहुंच चुके हैं। पिछले दस साल में अपने मीडिया पर नजर दौडाएं। पत्रकारिता पर असर डालने वाले तीन सबसे बड़े उद्घाटन मुख्यधारा की पेशेवर पत्रकारिता की देन नहीं हैं। ये तीन खुलासे हैं असांजे और विकीलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन और चेल्सिया मैनिंग। आखिर ये खबरें पेशेवर समाचार संस्थानों से क्यों नहीं निकलीं? इसलिए क्योंकि हमारे समाचार संस्थान अपने आप में कारोबार हैं, सत्ता प्रतिष्ठान हैं। बाजार में इनका इतना ज्यादा पैसा लगा है कि ये आपसे सच नहीं बोल सकते। अगर शेयर बाजार को इन्होंने आलोचनात्मक नज़रिये से देखा, तो इनके शेयरों का दाम कम हो जाएगा। इन्हें वहां अपने लाखों शेयरों को पहले बचाना है और वे आपको कभी भी सच बताने नहीं जा रहे। चूंकि कमाई पत्रकारिता की मुख्य कसौटी हो गई है, तो हमें इन संस्थानों में प्राइवेट ट्रीटी जैसी चीजें देखने को मिलती हैं।

फर्ज कीजिए कि आप एक मझोले कारोबार से हैं जो लंबी छलांग लगाना चाहते हैं और मैं अंग्रेजी का सबसे बड़ा अखबार हूं। आप मेरे पास सलाह लेने आते हैं। मैं कहता हूं कि आइए एक प्राइवेट ट्रीटी पर दस्तखत कर दीजिए। इससे मुझे आपकी कंपनी में 10 फीसदी हिस्सेदारी मिल जाती है। ऐसा करने के बाद हालांकि मेरे अखबार में आपकी कंपनी के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकेगी। अब सोचिए कि यदि एक अखबार 200 कंपनियों में हिस्सेदारी खरीद ले, तो वह अखबार रह जाएगा या एक इक्विटी फर्म?

अच्छी पत्रकारिता का काम है समाज के भीतर संवाद की स्थिति को पैदा करना, देश में बहसों को उठाना और प्रतिपक्ष को जन्म देना। यह एक लोकसेवा है और जब हम इस किस्म की सेवा के मौद्रिकीकरण की बात करने लगते हैं, तो इसकी हमें एक भयंकर कीमत चुकानी पड़ती है। आइए, ज़रा ग्रामीण भारत का एक अंदाज़ा लगाएं कि वह कितना विशाल है- 83.3 करोड़ की आबादी, 784 भाषाएं जिनमें छह भाषाओं के बोलने वाले पांच करोड़ से ज्यादा हैं और तीन भाषाओं को आठ करोड़ से ज्यादा लोग बोलते हैं। दिल्ली की संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत को देश के शीर्ष छह अखबारों के पहले पन्ने पर केवल 0.18 फीसदी जगह मिल पाती है और देश के छह बड़े समाचार चैनलों के प्राइम टाइम में 0.16 फीसदी की जगह मिल पाती है।

मैंने ग्रामीण भारत में हो रहे बदलावों की पहचान के लिए पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया की शुरुआत की थी। मैं जहां कहीं जाता हूं, लोग मुझसे पूछते हैं- आपका रेवेनु मॉडल क्‍या है? मैं जवाब देता हूं कि मेरे पास कोई मॉडल नहीं है, लेकिन पलट कर पूछता हूं कि अगर रचनाकार के लिए रेवेनु मॉडल का होना पहले ज़रूरी होता तो आज हमारे पास कैसा साहित्य या कलाकर्म मौजूद होता? अगर वाल्मीकि को रामायण या शेक्सपियर को अपने नाटक लिखने से पहले अपने रेवेनु मॉडल पर मंजूरी लेने की मजबूरी होती, तो सोचिए क्या होता? जो लोग मेरे रेवेनु मॉडल पर सवाल करते हैं, उनसे मैं कहता हूं कि मेरे जानने में एक शख्स है जिसका रेवेनु मॉडल बहुत बढि़या था जो 40 साल तक कारगर रहा। उसका नाम था वीरप्पन। उसके काम में कई जोखिम थे, लेकिन बिना जोखिम के कौन सा कारोबार होता है। जितना जोखिम, उतना मुनाफा।

देश में इस वक़्त जो राजनीतिक परिस्थिति कायम है, मेरे खयाल से वह हमारे इतिहास में विशिष्ट है क्योंकि पहली बार आरएसएस का कोई प्रचारक बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बना है। पिछला प्रचारक जो प्रधानमंत्री हुआ, वह थका हुआ था। एक तो उसके साथ बहुमत नहीं था, दूसरे उसके एक सक्रिय प्रचारक होने और प्रधानमंत्री होने के बीच 40 साल का लंबा अंतर था जिसने उसे धीरे-धीरे नरम बना दिया था। बहुमत के साथ जब कोई प्रचारक सत्ता में आता है तो काफी बड़ा फर्क पड़ता है। काफी कुछ बदल जाता है। मीडिया दरअसल इसी नई बनी स्थिति में खुद को अंटाने की कोशिश कर रहा है। मेरा मानना है कि इस देश पर सामाजिक-धार्मिक कट्टरपंथियों और बाज़ार के कट्टरपंथियों का मिलाजुला कब्ज़ा है। दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत है। ऐसे में आप क्या कुछ कर सकते हैं? सबसे ज़रूरी बात यह है कि मीडिया के जनतांत्रीकरण के लिए लड़ा जाए- कानून के सहारे, विधेयकों के सहारे और लोकप्रिय आंदोलन खड़ा कर के। साहित्य, पत्रकारिता, किस्सागोई, ये सब विधाएं निगमों के निवेश से नहीं पैदा हुई हैं। ये हमारे समुदायों, लोगों, समाजों की देन हैं। आइए, इन विधाओं को उन तक वापस पहुंचाने की कोशिश करें।

बाल गंगाधर तिलक को जब राजद्रोह में सज़ा हुई, तब लोग सड़कों पर निकल आए थे और एक पत्रकार के तौर पर उनकी आजा़दी की रक्षा के लिए लोगों ने जान दे दी थी। मुंबई का मजदूर वर्ग ऐसा हुआ करता था। इनमें से कुछ ऐसे लोग थे जिन्हें पढ़ना तक नहीं आता था, लेकिन वे एक भारतीय के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को बचाने के लिए घरों से बाहर निकले। भारतीय मीडिया और भारतीय जनता के बीच इस कदर एक महान करीबी रिश्ता हुआ करता था। आपको मीडिया के जनतांत्रीकरण के लिए, सार्वजनिक प्रसारक के सशक्तीकरण के लिए लड़ना होगा। आपको मीडिया स्वामित्व पर एकाधिकार को तोड़ने में सक्षम होना होगा- यानी एकाधिकार से आज़ादी। मीडिया के मालिकाने में आपको विविधता बढ़ानी होगी। मीडिया जिस किस्म का एक निजी फोरम बनकर रह गया है, उसमें सार्वजनिक स्पेस को बढ़ाना होगा। मेरा मानना है कि इस स्पेस के लिए हमें लड़ने की ज़रूरत है। यह संघर्ष इतना आसान नहीं है, लेकिन इसे शुरू करना बेशक मुमकिन है।

 

(मुंबई कले‍क्टिव इनीशिएटिव के तहत 5 मार्च, 2016 को दिए गए भाषण के मुख्य अंश)

पी. साइनाथ का पूरा भाषण यहाँ सुनें: