इस हत्यारी अफ़वाहबाज़ी को रोकें !

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चंद्रभूषण

 

देखते-देखते संगठित झूठ के कितने खतरनाक दौर में हम आ गए हैं! अभी कितने दिन हुए, जब जेएनयू में शूट किए गए एक धुंधले वीडियो में गूंज रहे नारे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्ला-इंशाअल्ला’ और ‘कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा’ पूरे देश में लोगों का खून खौला रहे थे। उस वीडियो को लेकर विशेषज्ञों के मन में कई संदेह थे। मसलन यह कि उसमें आ रही आवाजों का वीडियो से कोई सीधा मेल नहीं था।

इसके अलावा वीडियो के कई संस्करण विभिन्न टीवी चैनलों पर मौजूद थे, जिनमें आवाजें अलग-अलग सुनाई दे रही थीं। ऐसा साफ लग रहा था, जैसे काफी दूर से कोई वीडियो शूट करके उस पर ये आवाजें अलग से सुपरइंपोज कर दी गई हैं। लेकिन टीवी चैनलों का माहौल बिल्कुल अलग था। इसे देशद्रोह के स्पष्ट प्रमाण के तौर पर पेश किया जा रहा था और इसकी सत्यता और प्रामाणिकता पर सवाल खड़ा करने वालों को ‘अफजल गैंग’ और ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का सदस्य बताया जा रहा था।

सचाई जानना मिनटों का काम था। कोई भी फरेंसिक लैब सारे टेप्स की जांच करके बता सकती थी कि भड़काऊ नारे मूल टेप का हिस्सा हैं या नहीं, और हैं तो इसमें मौजूद आवाजें किन व्यक्तियों की हैं। इसके बजाय टीवी चैनलों ने सीधे-सीधे अफवाहबाजी का रास्ता अपनाया और उनके दबाव में आकर दिल्ली पुलिस ने आरोपितों के खिलाफ छापेमारी शुरू कर दी।

इनमें जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार किया गया, जेएनयू प्रशासन द्वारा कई छात्रनेताओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की गई और एक छात्रनेता उमर खालिद के बारे में कहा गया कि ‘वह पाकिस्तान भाग गया है’।

किसी भी देश की कानून-व्यवस्था के लिए यह बेहद शर्मनाक, डूब कर मर जाने लायक बात होती कि इतने गंभीर आरोप में भी उससे आज तक कोई आरोप पत्र दाखिल करते नहीं बना और न सिर्फ सारे आरोपी बेदाग छूट गए, बल्कि टेप में आरोपियों की आवाज का कोई लेश भी न पाए जाने के बाद षड्यंत्र रचने के आरोप में विपरीत राजनीतिक धारा के एक छात्रनेता को 10 हजार रुपये का जुर्माना भरना पड़ा।

और हां, इससे पहले सबसे ज्यादा उछल-उछल कर बोलने वाले टीवी चैनल को एक वैज्ञानिक को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का सदस्य कहने के जुर्म में न्यायालय के आदेश पर सार्वजनिक रूप से माफी मांगने का आदेश एनबीएसए (न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैडर्ड अथॉरिटी) ने दिया। (दो बार ऐसा आदेश हुआ लेकिन ज़ी न्यूज़ ने माफ़ीनामा नहीं चलाया। इस चैनल के मालिक बीजेपी की मदद  से राज्यसभा पहुँचे सुभाषचंद्र हैं- संपादक) लेकिन अफवाहबाजी में माहिर एक राजनीतिक धड़े के लोगों ने कुछ छात्र नेताओं को एक बार आम लोगों की नजर के कठघरे में खड़ा कर दिया तो वे आज भी वहां से निकल नहीं पाए हैं।

मीडिया से लेकर राजनीति तक पसरी यह अफवाहबाजी किस हद तक जानलेवा हो सकती है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तमाम प्रशासनिक विरोधों के बीच अभी हाल में अपनी पीएचडी हासिल करने वाले छात्रनेता उमर खालिद पर सोमवार, 13 अगस्त को संसद के बिल्कुल पास गोली चलाई गई और हमलावर के भागने में कामयाब हो जाने के बावजूद उसका हथियार मौके से बरामद हो गया।

यह लोकतंत्र विरोधी, कायर व्यक्ति कोई भाड़े का हत्यारा या किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता भी हो सकता है, लेकिन काफी संभावना है कि वह टीवी की खबरों और राजनीतिक दुष्प्रचार के प्रभाव में आया कोई सिरफिरा अमीरजादा हो।

क्या इस देश में कोई भी जिम्मेदार इंसान यह बताने का कष्ट करेगा कि 1948 में बापू की हत्या से ठीक पहले जैसा माहौल बना था, उसी तरह का झूठ पर आधारित हत्यारा माहौल छोटे-छोटे कस्बों से लेकर राजधानी के हृदय तक बनाने की जिम्मेदारी आखिर किस पर आती है, और इसके लिए किसी को भी किसी रूप में दंडित किया जाना चाहिए या नहीं?

क्या सड़कों पर निर्दोष लोगों की लाशें बिछने के बाद ही हमें इस बात का एहसास होगा कि भारत में कुछ गलत हो रहा है?

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं।