बीजेपी नेता के पुत्र अर्णव गोस्वामी ने तहलका पत्रकार असद को आतंकी बताया !

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टाइम्स नाऊ के  शोला एंकर अर्णव गोस्वामी के पिता मनोरंजन गोस्वामी बीजेपी के नेता रहे हैं। उन्होंने 1998 में बीजेपी के टिकट पर गुवाहाटी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था। उनके मामा सिद्धार्थ भट्टाचार्य असम बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और विधायक हैं। क्या इन तथ्यों को बीजेपी विरोधी दलों पर अर्णव के दैनिक आक्रमण का आधार बताना ठीक होगा ? शायद नहीं ! पर अर्णव किसी सवाल करने वाले नौजवान को सिर्फ़ इसलिए आतंकियों का हमदर्द बता सकते हैं कि वह मुसलमान है। यहाँ तक कि मुस्लिम पत्रकारों को भी वे बख्शने को तैयार नहीं हैं, जिनका काम ही सवाल उठाना है। 23 मई को अर्णव ने अपने शो में तहलका के वरिष्ठ संवाददाता असद अशरफ़ को आतंकियों की ठाल बताया जबकि वह आईएसआईएस के ताज़ा वीडियो से निकाले जा रहे नतीजों पर कुछ सवाल उठा रहे थे। असद ने मीडिया विजिल के लिए पूरे घटनाक्रम का बयान किया है जो बताता है कि अर्णव छाप पत्रकारिता देश का कितना नुकसान कर रही है। टाइम्स नाऊ के पर्दे की आग देश जलाने का इरादा रखती है। पढ़िये–  

 

“सोमवार को मैं टाइम्स नाउ स्टूडियो में इस उम्मीद से गया था कि 2008 के बटला हाउस मुठभेड़ की प्रामाणिकता के विषय में मुझे कुछ तथ्य रखने का उचित मौका दिया जाएगा। यह बहस आईएसआईएस के उस वीडियो को लेकर थी जिसमें एक ऐसा आतंकी दिखाया गया है जो कथित रूप से बटला हाउस मुठभेड़ के बाद भाग गया था। मैं शायद इसलिए बुलाया गया था कि मैंने बटला हाउस मुठभेड़ के तमाम पहलुओं पर लिखा था और जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र के रूप में उस आंदोलन में भी शामिल था जो एक स्वतंत्र न्यायिक जाँच की माँग कर रहा था।

लेकिन वहाँ जाकर मुझे महसूस हुआ कि आत्ममुग्ध अर्णव मेरे बहाने मुस्लिम युवाओं के ख़िलाफ़ निंदा अभियान का नया दौर शुरू कर रहा है। ऐसा ही उसने कुछ समय पहले उमर ख़ालिद और उसके कॉमरेडों के साथ किया था। अर्णव ने मुझे इंडियन मुजाहिदीन का ‘कवर’ बताने में ज़रा भी हिचकिचाहटनहीं दिखाई। सिर्फ इसलिए कि मैं बटला हाउस मुठभेड़ कथा की खामियों को बताने का साहस कर रहा था। बेशक मैं मुठभेड़ में मारे गए किसी भी शख्स को निर्दोष नहीं बता रहा था क्योंकि यह तय करना न्यायपालिका का का काम है।

शायद मैं यह अहम बात भूल गया था कि अर्णव की अदालत में वकील से लेकर जज तक ख़ुद अर्णव होता है। मैंने सवाल उठाया कि जिस साजिद बड़ा को आईएसआईएस के वीडियो में दिखाया जा रहा है, उसे एजेंसियाँ अब तक तीन बार मरा घोषित कर चुकी हैं। इराक, अफ़गानिस्तान और सीरिया में उसके मारे जाने की ख़बरें समय-समय पर छप चुकी हैं। कोई भी पत्रकार यह सवाल उठायेगा। लेकिन अर्णव ने तो यह सुनकर जैसे आपा ही खो दिया। उसने मुझे इंडियन मुजाहिदीन का ‘कवर’ बता दिया।

मौक़ा पाकर पैनल में बीजेपी की ओर से शामिल रतन शारदा ने सीधे मुझे आतंकी संगठनों से जोड़ दिया, जिसका मैंने कड़ा प्रतिवाद किया। लेकिन अर्णव ने मेरी बात सुनने के बजाय मुझे शांत रहने की हिदायत दी ताकि शारदा अपने आरोपों को झड़ी लगाता रह सके। मिल-जुलकर यह साबित किया गया कि मेरे जैसे लोग दरअसल आतंकियों के ‘स्लीपर सेल’ होते हैं। अर्णव ने आरोप लगाने वालों को रोकने की  कोई कोशिश नहीं की लेकिन मेरे माइक की आवाज़ ग़ायब करा दी ताकि मेरी बात लोगो तक न पहुँचे।

मुझे कोई शक नहीं है कि अर्णव आतंकवाद केे अपने ‘क़िस्सों’ के ज़रिये मुस्लिम नौजवानों को फँसाने के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकता है। इसके लिए, बटला हाउस मुठभेड़ की प्रामाणिकता पर सवाल उठाना’ इंडियन मुजाहिदीन और आईएसआईएस का समर्थन करने के समान है।

बहरहाल, मुझे ख़ुशी है कि मैं उस शो में गया और यह जान सका कि कोई भी समझदार आदमी अर्णव के शो से दूर रहना क्यों पसंद करता है।”

asad alone

 

असद अशरफ़ की यह पीड़ा सोशल मीडिया में चर्चा में है। ऐसे दो चुनी हुई टिप्पणियाँ पेश हैं—

 

हिमांशु पांड्या  लिखते हैं—

Asad Ashraf तहलका के जाने माने पत्रकार किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. बाटला हाउस एनकाउन्टर को फर्जी बताने वाले प्रमुख पत्रकार के रूप में उनके पास दमदार तर्क रहे हैं. तेईस तारीख को उन्होंने स्टेटस अपडेट किया कि वे अर्नब गोस्वामी के शो में जा रहे हैं इस मुद्दे पर अपनी बात रखने. उनके सारे दोस्तों ने उन्हें टोका, मैंने भी मन में सोचा कि क्या फायदा होगा इससे. वही हुआ, राष्ट्र की स्वयंभू आवाज़ ने उन्हें ISIS का हमदर्द घोषित किया, उनका माइक ऑफ करके शेषाद्री चारी सरीखे लोगों को भौंकने की छूट दी. सब कुछ ठीक वैसे ही हुआ जैसे उमर खालिद के समय हुआ था. कल से आप राष्ट्रभक्तों की वाल पर एक नए दुश्मन का नाम और उनका हाहाकार पढेंगे.

क्या असद ये सब नहीं जानते रहे होंगे जब उन्होंने जाने का तय किया ? फिर वे गए ही क्यों ? मेरा-आपका सवाल कितना आसान और मासूम है ना. बहरहाल, शायद जवाब असद के लौटकर लिखे स्टेटस की आख़िरी लाइन में छुपा है – “Glad that I went and experienced what friends have complained about.”

हम सब कहते रहे कि ‘हम भी उमर खालिद हैं’ – असद ने आज यह दिखा भी दिया. उनके लिए ब्रेख्त की पंक्तियाँ , जो शायद गौहर रज़ा साहब का अनुवाद हैं :

हुक्म हुआ , “सब किताबों को फूँक डालो खुले आम, जिनमे है इल्म हमारे खिलाफ”! बैल मजबूर किये गए कि गाड़ियों में किताबें खींचकर लाएं, अलाव जलाए गए ! मगर एक लेखक परेशान था , क्यूंकि उसका नाम फेहरिस्त से गायब था , उन लोगों की फेहरिस्त से जिनकी किताबें जलाई गई !
गुस्से से तमतमा कर उसने कलम उठाया “हाकिमों , मुझे जलाओ , कि मेरी किताबों ने हमेशा सच बोला है! मैं हुक्म देता हूँ कि मुझे जलाओ ”

 

शशि भूषण सिंह का कहना है–

कितना पीड़ादायी हो सकता है वह क्षण जब “आप जो नहीं हो, वह आपके बारे में कह दिया जाय” और आपको बोलने भी न दिया जाय। अगर आप हिन्दु तो मुल्ला, मुस्लिम हो तो काफिर , मर्द हो तो औरत, औरत हो तो मर्द, वामी हो तो संघी या इस तरह से कुछ भी घोषित करने के पीछे कौन सी मानसिकता / सोच-समझ काम करती है ।

Asad Ashraf का तहलका में होना और मुस्लिम नाम होना#संघी अर्णव गोस्वामी के लिए वह तर्क(?) है,जिसके आधार पर वह असद को आईएसआईएस का सिम्पेथाइजर घोषित कर सकता है , और कथित सेकुलर मीडिया भी चुप्पी साध लेती है। क्यों..?

कारण स्पष्ट है कि कोई भी अभिव्यक्ति के खतरे को उठाना नहीं चाहता। फासीवादी भय के माहौल में भी जिस तरह असद ने “अभिव्यक्ति के खतरे” को समझते हुए भी #बाटला पर अपने को अभिव्यक्त किया है, वह काबिले तारीफ है।

उम्मीद है कि मीडिया में जिनकी “रीढ़ की हड्डी” है और अभी “केंचुआ” नहीं बन पाये हैं, आगे आयेंगे..अपने पेशे को धंधा न समझकर , पेशे का सम्मान बचायेंगे…!