समाजवाद से दुश्मनी के कोरोना-काल में भगत सिंह की याद

डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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दृश्य एक– साम्यवादी क्यूबा ने कोरोना से निपटने के लिए डॉक्टरों का एक बड़ा दल इटली भेजा। यही नहीं, कोरोना मरीज़ों से प्रभावित ब्रिटेन के जिस क्रूज़शिप को दुनिया के किसी बंदरगाह पर लंगर डालने की इजाज़त नहीं मिली, उसे क्यूबा ने बंदरगाह आने की इजाज़त दी। इलाज के बाद मरीज़ों को ब्रिटेन भेजा जाएगा।

दृश्य दो– क्यूबा के हजारों डाक्टरों को देश छोड़ने को मजबूर करने वाले ब्राजील के धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रपति बोलसानारो उन्हें वापस बुलाने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं। सत्ता में आने के पहले से ही बोलसानारो इन क्यूबाई डाक्टरों को ‘आतंकवादी’ बताते थे।

दृश्य तीन– भारत में सत्ताधारी बीजेपी के एक सांसद राकेश सिन्हा ने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ (सोशलिज्म) शब्द को हटाने के लिए राज्यसभा में प्रस्ताव दिया है। बीजेपी सांसद ने अपने प्रस्ताव के तर्क में कहा है कि वर्तमान समय में समाजवाद एक निरर्थक शब्द हो चुका है।

संविधान की शपथ खाये सांसद राकेश सिन्हा संविधान से ‘समाजवाद’ को हटाना चाहते हैं

समाजवाद के दुश्मन

ऊपर के तीन दृश्य यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि मुनाफ़े की हवस का प्रेत पूंजीवाद और आम जन के भौतिक कल्याण को अपनी प्राथमिकता समझने वाले समाजवाद के बीच क्या फ़र्क़ है। तीसरा दृश्य बताता है कि भारत का मौजूदा निज़ाम इन वैश्विक घटनाओं से सबक लेने को तैयार नहीं है। समाजवाद के दुश्मनों की इस समय देश में सत्ता है और वे संविधान की उद्देशिका में दर्ज इस शब्द से परेशान हैं। वैसे, संविधान से समाजवाद को हटाने की मंशा अकेले राकेश सिन्हा की नहीं है। आरएसएस और बीजेपी की हमेशा ये मंशा रही है। समाजवाद उनके लिए पश्चिमी विचार है जिसे भारतीय संविधान में ‘जबरदस्ती घुसेड़ा’ गया है (जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति का वे दिन रात गौरवगान करते हैं उसमें सामाजिक बराबरी की कल्पना भी नहीं थी)। उनका यह भी दावा है कि यह इंदिरा गांधी की सनक का नतीजा है जिन्होंने इमरजेंसी के दौरान ‘सेक्युलरिज्म’ और ‘समाजवाद’ शब्द संविधान में डलवाया था। वैसे, सुप्रीम कोर्ट इस पर विचार करके तय कर चुका है कि ये संविधान की उद्देश्यिका में डाले गये ये शब्द संविधान की मूल भावना के अनुरूप थे।

बहरहाल, यह हिमाक़त उसी दिल्ली में की गयी जहां कभी शहीदे आज़म भगत सिंह ने बहरे कानों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ा था। और जिस आदर्श के लिए उन्होंने शहादत का जाम पिया था उसका नाम था- समाजवाद! ऐसा नहीं कि राकेश सिन्हा या बीजेपी सरकार भगत सिंह का सम्मान नहीं करती। वो ज़रूरत पड़ने पर भगत सिंह की सोने की मूर्ति बनवा सकती है। उनके मंदिर बनवा सकती है, लेकिन उनके विचारों की पुस्तिका छपवाने की ग़लती वह कभी नहीं करेगी।

सारी समस्या विचारों को लेकर ही है। ऐसे में जब कोरोना को लेकर दुनिया में मचे विराट कोलाहल के बीच भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत दिवस (23 मार्च) पर यह लेख लिखा जा रहा है तो मक़सद इसी फ़र्क़ को समझना है कि भगत सिंह और आरएसएसके सपने उलट कैसे हैं?

भगत सिंह के विचार

भगत सिंह, इसलिए शहीदे आज़म हैं क्योंकि उन्होंने भारत में क्रांति की पूरी सैद्धांतिकी पेश की। यह बताया कि वे भरी जवानी में फांसी का फंदा क्यों चूमना चाहते हैं। उनके सपनों का भारत कैसा होगा? भगत सिंह का लिखा ‘नवयुक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र’ (जो ‘क़ौम के नाम संदेश’ शीर्षक से लाहौर के ‘पीपुल्स’ में 29 जुलाई 1931 और इलाहाबाद के ‘अभ्युदय’ में 8 मई 1931 को छपा) में भगत सिंह साफ़ कहते हैंः

“असेम्बली बम केस के समय हमने क्रान्ति शब्द की यह व्याख्या की थी– क्रान्ति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। इस उद्देश्य के लिये हम पहले सरकार की ताक़त को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। इस समय शासन की मशीन अमीरों के हाथ में है। सामान्य जनता के हितों की रक्षा के लिये तथा अपने आदर्शों को क्रियात्मक रूप देने के लिए– अर्थात् समाज का नये सिरे से संगठन कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुसार करने के लिए– हम सरकार की मशीन को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। हम इस उद्देश्य के लिये लड़ रहे हैं, परन्तु इसके लिए साधारण जनता को शिक्षित करना चाहिए।

हमारे दल का अन्तिम लक्ष्य क्या है और उसके साधन क्या हैं– यह भी विचारणीय है। दल का नाम ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’है और इसलिए इसका लक्ष्य एक सोशलिस्ट समाज की स्थापना है। कांग्रेस और इस दल के लक्ष्य में यही भेद है कि राजनैतिक क्रान्ति से शासन-शक्ति अंग्रेज़ों के हाथ से निकल हिन्दुस्तानियों के हाथों में आ जाएगी। हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिए मज़दूरों और किसानों केा संगठित करना आवश्यक होगा क्योंकि उन लोगों के लिए लार्ड इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फ़र्क न पड़ सकेगा।”

भगत सिंह के ख़िलाफ़ RSS

आरएसएस तो ‘लॉर्ड इरविन और तेजबहादुर पुरुषोत्तम दास ठाकुरदास’ दोनों की कृपाकांक्षी रही। यह संयोग नहीं 1925 में स्थापित आरएसएस ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध चूं भी नहीं की। यही नहीं, भगत सिंह और उनके साथियों के प्रभाव से बचाने के लिए अपने कार्यकर्ताओं की ‘क्लास’ भी ली। संघ के तीसरे सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस ख़ुद लिखते हैंः

“जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गयी थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टरजी (हेडगेवार) को बताये बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी। हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए। ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की। ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी। डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया। उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं। हमारे जीवन को नयी दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.” (स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज 47-48)

इसमें क्या शक़ कि डॉक्टर हेडगेवार ने भगत सिंह की शक्ल से नहीं, उनके विचारों से देवरस और साथियों को बचाने की क्लास ली थी। काम ज़रूर मुश्किल रहा होगा,इसीलिए सात दिन लगे होंगे। ज़ाहिर है, यह विरोध भगत सिंह के ‘समाजवादी’ स्वप्न से था जिसका प्रेत अज भी संघ से जुड़े संगठनों को सताता है। हेडगेवार के जीवनीकार राकेश सिन्हा का प्रस्ताव इसी की बानगी है।

समाजवादी यानी..

वैसे भारत की आज़ादी के बाद कांग्रेस के शुरुआती समाजवादी उत्साह का अंत अस्सी के दशक में ही होने लगा था और नब्बे की शुरुआत के साथ जिस कथित उदारवादी दौर की शुरुआत हुई उसने गरीब जनता के प्रति राज्य के दायित्व को दिनों दिन कमज़ोर किया। सेहत के सरकारी मोर्चे को लगभग स्थगित करके बड़े-बड़े पांच सितारा अस्पतालों को विकास का प्रतीक बना दिया गया। अस्पतालों और रिसर्च पर बड़े पैमाने पर खर्च करने की जगह स्वास्थ्य बीमा कराने को प्रोत्साहित किया गया। वैसे भी बीते तीस साल जिस तरह से मंदिर-मस्जिद के मुद्दे में गंवाये गये, उसने शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे ज़रूरी मुद्दों को प्राथमिकता से बाहर कर दिया। मोदी सरकार आयुष्मान योजना का ढोल पीट रही है, लेकिन अगर दवा और इलाज ही न हो तो बीमे का पैसा लेकर कोई करेगा भी क्या। बीते दिनों तर्क और विज्ञान पर जिस तरह सत्ताजनित हमले हुए उसी का नतीजा है कि कोरोना की काट के लिए लगाये गये ‘जनता कर्फ्यू’ की शानदार सफलता का जश्न मनाने लोग सड़कों पर उतर पड़े। देश अब तक नहीं जानता कि कोरोना की भयावहता की असल तस्वीर क्या है क्योंकि अभी जांच किट का मसला भी नहीं सुलझ पाया है। मरीजों की संख्या कम इसीलिए दिख रही है क्योंकि लोगों की जांच ही नहीं करायी जा रही है।

कोरोना से निपटने के लिए सबसे ज़रूरी है कि व्यक्ति में प्रतिरोधक क्षमता बेहतर हो यानी उसे ज़रूरी पोषण मिले जो स्वास्थ्य की निशानी है, पर ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 117 देशों की सूची में 102वें स्थान पर है और हेल्थ इंडेक्स में 169 देशों में 120वें स्थान पर। सोशल डिस्टैंसिंग ज़रूरी है पर जिनकी दिहाड़ी मारी जा रही है, उनके लिए पर्याप्त उपाय नहीं हैं। अभी लखनऊ के एक सरकारी अस्पताल की नर्स का वीडियो वायरल हुआ है जो कह रही है कि नर्सों को दस्ताने जैसी जरूरी चीजें भी उपलब्ध नहीं हैं तो वे मरीजों को छूकर अपनी जान जोखिम में क्यों डालें।

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वेंटीलेटर और आईसीयू जैसी चीजों के आने वाले दिनों में जो जरूरत पड़ेगी उसे सोचकर ही कोई कांप सकता है। कोरोना की आहट दिसंबर में ही आ गयी थी, लेकिन भारत में शुरू में मज़ाक उड़ाया गया। जनवरी और फरवरी दिल्ली चुनाव के लिए चले ज़हरीले प्रचार अभियान और सांप्रदायिक हिंसा के हवाले हो गये। 10 मार्च को सबने जमकर होली खेली। 15 मार्च के बाद सरकार ने कुछ सोचना शुरू किया लेकिन पीएम मोदी के कृतज्ञता ज्ञापन के नाम पर 22 मार्च को जिस तरह गली-गली घंटे बजे और जश्न मनाया गया वह बताता है कि हमने खुद अपने ऊपर बम फोड़ लिया है। इसका असर आने वाले दिनों में पता चलेगा जब बड़े पैमाने पर जांच होगी।

कुछ लोगों का साफ़ कहना है कि चीन ने शुरुआत के बावजूद हालत पर जिस तरह काबू किया वह उसकी तैयारियों का नतीजा था। भारत में यह वायरस फूटता तो पता नहीं क्या होता। क्यूबा की स्वास्थ्य सेवाओं को वे भी सलाम करने को मजबूर हैं जिन्होंने उसके ज़रिये साम्यवाद के दानवीकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

ठहरकर सोचने की ज़रूरत

कोरोना के संकट ने ठहरकर सोचने का एक मौका भी दिया है। स्पेन ने स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया है। पूरी दुनिया में फिर ऐसी ही मांग हो रही है कि मुनाफा केंद्रित व्यवस्था पर रोक लगे और समाज को केंद्र में रखकर योजनाएं बनें। यहां तक कि अमेरिका में भी नियोजित सामाजिक उत्पादन आधारित सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की मांग तेज़ हो गयी है। महामारियों ने अतीत में कई बार मानव जाति का संहार किया है। 14वीं सदी में तो एक तिहाई यूरोप प्लेग से ख़त्म हो गया था। 1918 के इन्फ्लुएंजा ने पांच करोड़ लोगों को लील लिया था जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख भारतीय थे। अब इतना बड़ा संहार नहीं होगा क्योंकि आज नहीं तो कल, इसकी दवा बन ही जाएगी, लेकिन तब तक सबसे बड़ी कीमत वही चुकाएंगे जो कुपोषित हैं और स्वास्थ्य सेवाएं जिनकी पहुंच में नहीं होंगी।

समाजवाद इसी की गारंटी का नाम है। भगत सिंह के सपने का एक रंग यह भी है जिसे राकेश सिन्हा और उनकी विचारधारा बदरंग करने पर आमादा है।


लेखक मीडियाविजिल के संस्थापक संपादक हैं


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