‘हिंदी योद्धा’ श्यामरुद्र पाठक गिरफ़्तार ! पुलिस ने दी पीटने की धमकी !

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हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं को हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में स्थान दिलाने के लिए दशकों से संघर्ष कर रहे श्यामरुद्र पाठक को अभी-अभी (क़रीब 11 बजे दिन) दिल्ली पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया। उन्हें संसद मार्ग थाने में रखा गया है जहाँ उन्हें बैठने के लिए कुर्सी तक नहीं दी गई है। श्यामरुद्र पाठक ने आज से प्रधानमंत्री आवास के बाहर धरना देने का ऐलान किया था। इससे पहले वे 2013 में भी कांग्रेस मुख्यालय के बाहर सौ दिन से ज़्यादा दिनों तक धरना दे चुके हैं।

श्याम रुद्र पाठक ने कल शाम फ़ेसबुक पर साफ़ लिखा था कि संसद मार्ग थाने के एसएचओ ने उन्हें धमकी दी है कि अगर वे धरना देने का प्रयास करेंगे तो उन्हें पीटा जाएगा। ख़बर है कि पुलिस आज सुबह उनके घर गिरफ़्तार करने पहुँची थी लेकिन वे मेटो में थे। उन्होंने फ़ोन पर इसकी जानकारी पुलिस को दे दी। जैसे ही केंद्रीय सचिवालय पर उतरकर वे प्रधानमंत्री आवास की ओर बढ़े, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।

श्यामरुद्र पाठक आईआईटी दिल्ली के छात्र रहे हैं। उनके संघर्ष का ही नतीजा है कि 1990 से आईआईटी प्रवेश परीक्षा हिंदी में होने लगी।

नीचे पढ़िये उनकी कुछ फ़ेसबुक टिप्पणियाँ, जिनमें वह ज्ञापन भी है जो उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में दिया था।

Shyam Rudra Pathak

14 hrs ·

आज शाम पाँच बजकर चालीस मिनट पर संसद मार्ग थाना, नई दिल्ली के SHO की ओर से फोन नंबर 8750870521 से मुझे स्पष्ट तौर पर धमकी दी गई है कि अगर हम ने प्रधानमंत्री कार्यालय के सामने कल (3 मई को) धरना देने का प्रयास किया तो हमें पीटा जाएगा |

 

Shyam Rudra Pathak

23 hrs ·

जैसा कि मैं आपको पहले सूचित कर चुका हूँ; कल 3 मई, 2017 को 11 बजे पूर्वाह्न से मैं अपने कुछ साथियों के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय के समक्ष धरना पर बैठने जा रहा हूँ । आप में से जो भी लोग इस मुद्दे से सहमत हैं, वे आत्मबल से इस मुहीम में हमारे साथ होंगे, ऐसी मेरी आकांक्षा है ।

प्रधानमंत्री कार्यालय के सामने धरना पर बैठने के समय औपचारिक तौर पर हमारी एक मात्र माँग है कि भारत के उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में भारत की कम से कम एक-एक भाषा का प्रयोग अधिकृत करने हेतु केंद्र सरकार संविधान संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत करने की घोषणा करे ।

इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए ।

 

Shyam Rudra Pathak

April 24 at 10:24pm ·

धरना प्रारम्भ करने की पूर्व सूचना हेतु आज मेरे द्वारा प्रधानमन्त्री कार्यालय में जमा किया गया पत्र :

सेवा में,

श्री नरेन्द्र मोदी जी,
प्रधान मंत्री, भारत सरकार ।

विषय : उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में भारत की कम से कम एक-एक भाषा का प्रयोग अधिकृत करने की माँग को लेकर 3 मई, 2017 को पूर्वाह्न 11 बजे से आपके कार्यालय (प्रधान मंत्री कार्यालय) के समक्ष सत्याग्रह (धरना) प्रारम्भ करने की पूर्व सूचना ।

महाशय,

भारत के उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में भारत की कम से कम एक-एक भाषा का प्रयोग अधिकृत करने हेतु केंद्र सरकार संविधान संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत करे, इस आग्रह का पत्र आपके कार्यालय में 7 नवम्बर, 2014 और 1 दिसंबर, 2014 को हमने जमा किए ।

विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में आजादी के सत्तर वर्षों के पश्चात् भी सर्वोच्च न्यायालय और देश के 24 में से 20 उच्च न्यायालयों की किसी भी कार्यवाही में भारत की किसी भी भाषा का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित है और यह प्रतिबंध भारतीय संविधान की व्यवस्था के तहत है । संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड (1) के उपखंड (क) के तहत उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अंग्रेजी भाषा में होंगी ।

यद्यपि इसी अनुच्छेद के खंड (2) के तहत किसी राज्य का राज्यपाल उस राज्य के उच्च न्यायालय में हिंदी भाषा या उस राज्य की राजभाषा का प्रयोग राष्ट्रपति की पूर्व सहमति के पश्चात् प्राधिकृत कर सकेगा । इस खंड की व्यवस्था ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होगी । अर्थात् इस खंड के तहत उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा के सीमित प्रयोग की ही व्यवस्था है; और इसके तहत उच्च न्यायालय में भी भारतीय भाषा का स्थान अंग्रेजी के समतुल्य नहीं हो पाता ।

ऐसी संवैधानिक व्यवस्था होते हुए भी किसी भारतीय भाषा के सीमित प्रयोग की स्वीकृति भी संविधान लागू होने के सड़सठ वर्ष पश्चात् भी केवल चार राज्यों के उच्च न्यायालयों में ही दी गई है । 14 फरवरी,1950 को राजस्थान के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया । तत्पश्चात् 1970 में उत्तर प्रदेश,1971 में मध्य प्रदेश और 1972 में बिहार के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत किया गया । इन चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में अंग्रेजी अनिवार्य है ।

सन् 2002 में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस व्यवस्था के तहत उस राज्य के उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत करने की माँग केन्द्र सरकार से की । सन् 2010 एवं 2012 में तमिलनाडु एवम् गुजरात सरकारों ने अपने उच्च न्यायालयों में तमिल एवम् गुजराती का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए केंद्र सरकार से माँग की । परन्तु इन तीनों मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों की माँग ठुकरा दी ।

5 अप्रिल, 2015 को उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश एवम् राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम ने तमिलनाडु सरकार की यह माँग दोहराई कि मद्रास हाई कोर्ट में तमिल भाषा के इस्तेमाल की इजाज़त दी जाए । उन्होंने केंद्र से अपील की कि वह इस मामले में अपने रुख पर पुनर्विचार करे और मद्रास हाई कोर्ट में तमिल भाषा के इस्तेमाल की इजाजत देकर तमिलनाडु राज्य की पुरानी आकांक्षा और माँग को पूरा करे । मुख्य मंत्री ने कहा कि यदि हमें न्याय का प्रशासन वाकई लोगों के करीब ले जाना है तो यह बहुत जरूरी है कि हाई कोर्ट में स्थानीय भाषा का इस्तेमाल किया जाए ।

ध्यातव्य है कि श्री ओ पनीरसेल्वम अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद पर थे और तमिलनाडु राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में लिखा था कि वह मद्रास हाई कोर्ट में तमिल के इस्तेमाल की समर्थक है ।

सन् 2012 में, जब आप गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब गुजरात सरकार ने केंद्र सरकार से यह आग्रह किया था कि गुजरात के उच्च न्यायालय में गुज़राती का प्रयोग अधिकृत हो । तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने तो इस पर ध्यान नहीं ही दिया, परन्तु आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि जब आप स्वयम् देश के प्रधान-मंत्री बन गए तो भी आप ने इस पर कभी भी ध्यान नहीं दिया । आपके प्रधान मंत्री बनने के बाद इस मामले में पत्र लिखकर आपके कार्यालय में दो बार ( 7 नवम्बर, 2014 और 1 दिसंबर, 2014 को ) जमा किए गए पत्रों की प्राप्ति हमारे पास है ।

सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के प्रयोग की अनिवार्यता हटाने और एक या एकाधिक भारतीय भाषा को प्राधिकृत करने का अधिकार राष्ट्रपति या किसी अन्य अधिकारी के पास नहीं है । अतः सर्वोच्च न्यायालय में एक या एकाधिक भारतीय भाषा का प्रयोग प्राधिकृत करने के लिए और प्रत्येक उच्च न्यायालय में कम-से-कम एक-एक भारतीय भाषा का दर्जा अंग्रेज़ी के समकक्ष दिलवाने हेतु संविधान संशोधन ही उचित रास्ता है । अतः संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड (1) में संशोधन के द्वारा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ अंग्रेजी अथवा कम-से-कम किसी एक भारतीय भाषा में होंगी ।

इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए ।

ध्यातव्य है कि भारतीय संसद में सांसदों को अंग्रेजी के अलावा संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित सभी बाईस भारतीय भाषाओं में बोलने की अनुमति है । श्रोताओं को यह विकल्प है कि वे मूल भारतीय भाषा में व्याख्यान सुनें अथवा उसका हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद सुनें, जो तत्क्षण-अनुवाद द्वारा उपलब्ध कराया जाता है । अनुवाद की इस व्यवस्था के तहत उत्तम अवस्था तो यह होगी कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में एकाधिक भारतीय भाषाओं के प्रयोग का अधिकार जनता को उपलब्ध हो परन्तु इन न्यायालयों में एक भी भारतीय भाषा के प्रयोग की स्वीकार्यता न होना हमारे शासक वर्ग द्वारा जनता को खुल्लमखुल्ला शोषित करते रहने की नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है ।

किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में स्वयम् बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे । परन्तु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष बीस उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सतानवे प्रतिशत (97 प्रतिशत) जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया गया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं । सतानवे प्रतिशत जनता में से कोई भी इन न्यायालयों में मुकदमा करना चाहे या उन पर किसी अन्य द्वारा मुकदमा दायर कर दिया जाए तो मजबूरन उन्हें अंग्रेजी जानने वाला वकील रखना ही पड़ेगा जबकि अपना मुकदमा बिना वकील के ही लड़ने का हर नागरिक का अधिकार है ।

अगर कोई वकील रखता है तो भी वादी या प्रतिवादी यह नहीं समझ पाता है कि उसका वकील मुकदमे के बारे में महत्‍वपूर्ण तथ्यों को सही ढंग से रख रहा है या नहीं ।

निचली अदालतों एवम् जिला अदालतों में भारतीय भाषा का प्रयोग अनुमत है । अतः उच्च न्यायालयों में जब कोई मुकदमा जिला अदालत के बाद अपील के रूप में आता है तो मुकदमे से संबद्ध निर्णय एवम् अन्य दस्तावेजों के अंग्रेजी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है; वैसे ही बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान उच्च न्यायालयों के बाद जब कोई मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में आता है तो भी अनुवाद में समय और धन का अपव्यय होता है ।

प्रत्येक उच्च न्यायालय एवम् सर्वोच्च न्यायालय में एक-एक भारतीय भाषा का प्रयोग भी अगर अनुमत हो जाए तो उच्च न्यायालय तक अनुवाद की समस्या पूरे देश में लगभग समाप्त हो जाएगी और सर्वोच्च न्यायालय में भी अहिंदीभाषी राज्यों के भारतीय भाषाओं के माध्यम से संबद्ध मुकदमों में से जो मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय में आएँगे, केवल उन्हीं में अनुवाद की आवश्यकता होगी ।

प्रस्तावित कानूनी परिवर्तन इस बात की संभावना भी बढ़ाएगा कि जो वकील किसी मुकदमे में जिला न्यायालय में काम करता है, वही वकील उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में भी काम कर सके । इससे वादी-प्रतिवादी के ऊपर मुकदमे से सम्बंधित खर्च घटेगा ।

यह कहना कि केवल हिंदी भाषी राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान) के उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा का प्रयोग अनुमत होगा, अहिंदीभाषी प्रांतों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार है । परन्तु अगर यह तर्क भी है तो भी छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड एवं झारखंड के उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग अनुमत क्यों नहीं है ?

ध्यातव्य है कि छत्तीसगढ़, उत्तराखंड एवम् झारखंड के निवासियों को इन राज्यों के बनने के पूर्व अपने-अपने उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग करने की अनुमति थी ।

अगर चार उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषा में न्याय पाने का हक है तो देश के शेष बीस उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में निवास करने वाली जनता को यह अधिकार क्यों नहीं ? क्या यह उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं है ? क्या यह अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त ‘विधि के समक्ष समता’ और अनुच्छेद 15 द्वारा प्रदत्त ‘जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध’ के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है ? और इस आधार पर छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और गुजरात सरकार के आग्रहों को ठुकराकर क्या केन्द्र सरकार ने देशद्रोह एवम् भारतीय संविधान की अवमानना का कार्य नहीं किया था ?

उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायलय में वकालत करने एवम् न्यायाधीश बनने के अवसरों में भी तीन प्रतिशत अंग्रेजीदां आभिजात्य वर्ग का पूर्ण आरक्षण है, जो कि ‘अवसर की समता’ दिलाने के संविधान की प्रस्तावना एवम् संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है ।

ऊपर वर्णित संविधान की अवमाननाओं के अलावा उच्च न्यायालयों एवम् सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता अनेक संवैधानिक व्यवस्थाओं का उल्लंघन है, जिन में से कुछ का जिक्र नीचे किया जा रहा है :

(1) संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत को ‘समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाना है और भारत के नागरिकों को ‘न्याय’ और ‘प्रतिष्ठा और अवसर की समता’ प्राप्त कराना है तथा ‘व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता’ को बढ़ाना है ।

(2) अनुच्छेद 38 – राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए काम करेगा ।
अनुच्छेद 39 – राज्य अपनी नीति का विशेष रूप से इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो ।
अनुच्छेद ‘ 39 क’ – राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि कानून का तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और किसी भी असमर्थता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए ।

(3) अनुच्छेद ‘51 क’– भारत के प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्तव्य है कि वह स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे और भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे, जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो ।

[ ध्यातव्य है कि ‘स्वराज’ हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का पथ-प्रदर्शक सिद्धांत था और हिंदी व अन्य जन-भाषाओं का प्रयोग तथा जनता के लिए अंग्रेजी के अनिवार्य प्रयोग का विरोध गांधीजी की नीति थी और राष्ट्रभाषा का प्रचार-प्रसार उनके रचनात्मक कार्यक्रम का मुख्य बिंदु था । स्पष्ट ही अनुच्छेद 348 को वर्त्तमान स्वरूप में रखकर हमारे शासक वर्ग संविधान द्वारा निर्धारित मूल कर्तव्य का उल्लंघन कर रहे हैं । ]

(4) अनुच्छेद 343 – संघ की राजभाषा हिंदी होगी ।
अनुच्छेद 351 – संघ का यह कर्तव्‍य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे और उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे ।

अनुच्छेद 348 में संशोधन करने की हमारी प्रार्थना एक ऐसा विषय है जिसमें संसाधनों की कमी का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता है । हम ऊपर यह बता चुके हैं कि प्रस्तावित संशोधन से अनुवाद में लगने वाले समय और धन की बचत होगी तथा वकीलों को रखने के लिए होने वाले खर्च में भी भारी कमी होगी । अनुच्छेद 348 का वर्त्तमान स्वरूप शासक वर्ग द्वारा आम जनता को शोषित करते रहने की दुष्ट भावना का खुला प्रमाण है । यह हमारी आजादी को निष्प्रभावी बना रहा है । यह एक शोषणकारी औपनिवेशिक व्यवस्था की जीवन्तता है । क्या स्वाधीनता का अर्थ केवल ‘यूनियन जैक’ के स्थान पर ‘तिरंगा झंडा’ फहरा लेना है ?

कहने के लिए भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, परन्तु जहाँ जनता को अपनी भाषा में न्याय पाने का हक नहीं है, वहाँ प्रजातंत्र कैसा ? दुनिया के तमाम उन्नत देश इस बात के प्रमाण हैं कि कोई भी राष्ट्र अपनी जन-भाषा में काम करके ही उल्लेखनीय उन्नति कर सकता है । किसी भी विदेशी भाषा के माध्यम से आम जनता की प्रतिभा की भागीदारी देश की विकास-प्रक्रिया में नहीं हो सकती । प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व के वही देश अग्रणी हैं, जो अपनी जन-भाषा में काम करते हैं; और प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व के वे देश सबसे पीछे हैं, जो विदेशी भाषा में काम करते हैं । विदेशी भाषा में उन्हीं अविकसित देशों में काम होता है, जहाँ का बेईमान आभिजात्य वर्ग विदेशी भाषा को शोषण का हथियार बनाता है और इसके द्वारा विकास के अवसरों में अपना पूर्ण आरक्षण बनाए रखना चाहता है ।

इस विषय में केंद्र सरकार संविधान संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत करने का निर्णय ले और इसकी सार्वजनिक घोषणा करे, यही हमारा आग्रह है ।

अगर इस तरह का निर्णय सरकार नहीं लेती है, तो 3 मई, 2017 को पूर्वाह्न 11 बजे से आपके कार्यालय के समक्ष हम सत्याग्रह (धरना) प्रारम्भ करेंगे ।
इस सत्याग्रह में किसी भी एक समय में अधिक से अधिक चार लोग भाग लेंगे । यह सत्याग्रह पूर्णतः शान्तिपूर्ण और अहिंसक ढंग से होगा । इसमें किसी प्रकार के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होगा ।

श्रीमान् से हमारा विनम्र आग्रह है कि जब तक हम किसी असभ्य भाषा का प्रयोग न करें तब तक हमारे साथ पुलिस या किसी अन्य सरकारी अधिकारी द्वारा असभ्य भाषा का इस्तेमाल न किया जाए और जब तक हम हिंसा या मारपीट पर न उतरें तब तक हमारे साथ पुलिस या किसी अन्य सरकारी अधिकारी द्वारा हिंसा या मारपीट का बर्ताव न किया जाए ।

अगर इस सम्बन्ध में हमें आपसे मिलने का मौक़ा दिया जाता है, तो हम आपके आभारी रहेंगे ।

आपका विश्वसनीय
24 अप्रिल, 2017 (मेरा हस्ताक्षर)
1. श्याम रुद्र पाठक
संयोजक, न्याय एवं विकास अभियान
एच डी – 189, सेक्टर 135, नॉएडा – 201304
shyamrudrapathak@gmail.com
फोन : 9818216384

  1. प्रेम चन्द अग्रवाल
    423/10, प्रीत नगर, अम्बाला शहर – 134003
    फोन : 9467909649
  2. ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र
    बी – 319, इंदिरा गार्डन, खोड़ा कॉलोनी, गाजियाबाद – 201309
    फोन : 9213161050
  3. बिनोद कुमार पाण्डेय
    ए – 435, जैतपुर एक्सटेंशन, पार्ट – 1, बदरपुर, नई दिल्ली- 110044
    फोन : 8287578876