पत्रकारों के शोषण में जुटे मीडिया से ग़ायब है मई दिवस ?

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समाज Published On :


मई दिवस क्या है और इसका क्या महत्व है, आज का मीडिया इसे बताने में नहीं, छिपाने में दिलचस्पी रखता है। संपादक से मैनेजर बन चुके लोगों के लिए इस पर बात करना भी ऐसा ‘पाप’ है जो उन्हें किसी भी क्षण पैदल कर सकता है। ये संयोग नहीं कि दिल्ली से छपने वाले ज़्यादातर अख़बारों में इसका आज कोई ज़िक्र ही नहीं है। टीवी चैनलों की तो बात ही क्या करना। पत्रकारों के काम के घंटे और उनकी सेवा सुरक्षा का प्रावधान संविधान में दर्ज है, लेकिन यह बात करते ही ‘नक्सली’ कहलाए जाने का ख़तरा होता है ‘ गोया न्यू इंडिया की बुनियाद श्रम के शोषण पर ही रखी जाएगी।

इस बुरी स्थिति पर वरिष्ठ पत्रकार और कवि विष्णु नागर ने फ़ेसबुक पर यह टिप्पणी की है-

“आज पहली मई है-मज़दूर दिवस। मैं जो तीन अख़बार पढ़ता हूँ,उनमें से किसी ने इसकी याद दिलाना ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि ऐसा करना ख़ुद उनके लिए और सरकार के लिए असुविधाजनक है।  प्रधानमंत्री ने ज़रूर महीन संकेत में बात करके मुद्दे को भटकाने की कोशिश की।  आज के ज़्यादातर पत्रकार भी विशुद्ध मज़दूर हैं -कुछ को मज़दूरी अच्छी मिलती है मगर अधिकतर को न्यूनतम मज़दूरी से भी कम मिलती है और काम के घंटे भी निर्धारित नहीं हैं, उनकी नौकरी पक्की नहीं है, सुबह नहीं तो शाम को वे निकाले जा सकते हैं। उनकी मुक्ति की कामना तो की जा सकती है हालाँकि उनकी मुक्ति की परिस्थियाँ आज दूर दूर तक नहीं हैं। कुछ अपनी इच्छा से और कुछ नौकरी की मज़बूरी के कारण हिंदुत्व और सरकार के भोंपू बने हुए हैं। उन सबके लिए भी मन में सद्भावना है और चूँकि वे ईश्वर को मानते हैं, इसलिए आज ईसामसीह को याद करते हुए यह भी कहना चाहता हूँ कि ईश्वर उन्हें माफ़ करना कि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। वे मज़दूर हैं ,इसलिए भी उन्हें माफ़ करना। वे माफ़ी के हक़दार हैं और पत्रकार के रूप में इज़्ज़त पाने और उसे हासिल करने की कोशिश करने के अधिकारी भी। “

आज़ादी के तुरंत बाद यह ख़तरा महसूस किया गया था कि पत्रकारों की नौकरी सुरक्षित नहीं हुई तो वह मालिकों के इशारे पर कम करने को मजबूर होंगे। इसीलिए नेहरू सरकार ने ‘श्रमजीवी पत्रकार ऐक्ट’ बनाकर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि पत्रकार निर्भय  होकर क़लम चलाएँ। उनकी नौकरी उनके मालिक भी ना ले पाएँ। लेकिन उदारीकरण के साथ मालिकों की ओर से पत्रकारों को ठेके पर रखने का चलन चलाया गया। कॉरपोरेटीकरण ने इस बीमारी को और बढ़ाया। कभी लालच और कभी भय से ज़्यादातर पत्रकारों ने ठेके की व्यवस्था स्वीकार कर ली। अब उनके ऊपर हमेशा नौकरी से निकाले जाने की तलवार लटकती रहती है। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे अच्छा काम जानते हैं या अनुभवी हैं। उम्र बढ़ना और अधिक अनुभवी होना भी उनके ख़िलाफ़ जा सकता है। समय के साथ वेतन बढ़ जाना भी उन्हें कंपनी के लिए बोझ बना सकता है।

इस बीच सरकार का रवैया भी पूरी तरह बदल गया है। कहाँ तो पत्रकारों की सेवा सुरक्षा उसका दायित्व था, कहाँ वह सीधे मालिकों के साथ खड़ी नज़र आती है। इस या उस पार्टी से राज्यसभा सदस्य बनकर मालिक सरकार पर दबाव डालने की स्थिति में हैं। यह संयोग नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बाद भी मजीठिया वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू नहीं हुई हैं।

बहरहाल, श्रम सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद श्रमजीवी पत्रकार ऐक्ट अभी तक लागू है। संवाददाताओं की स्थिति विशेष होती है, लेकिन ऐक्ट के मुताबिक डेस्क पर काम करने वाले किसी पत्रकार से-

-छह घंटे से अधिक काम नहीं लिया जा सकता ।

-चार घंटे से अधिक लगातार काम नहीं कराया जा सकता।

-हर चार घंटे के बाद 30 मिनट का अवकाश ज़रूरी है।

-रात्रिकालीन पाली साढ़े पाँच घंटे से ज़्यादा नहीं हो सकती।

-रात में साढ़े तीन घंटे काम के बाद 30 मिनट का अवकाश ज़रूरी है।

-पत्रकार जितने घंटे अतिरिक्त काम करे, उतने घंटे उसे अतिरिक्त अवकाश मिलना चाहिए।

-एक हफ़्ते से ज़्यादा नाइट शिफ़्ट नहीं कराया जा सकता।

-अवकाश के दिन बुलाने पर उस दिन का वेतन भी दिया जाना चाहिए। इसके बदले किसी और दिन अवकाश देना ग़लत है।

-सभी पत्रकारों को साल में 10 सार्वजनिक अवकाश मिलना चाहिए।

लेकिन इन नियमों की प्रबंधन ने धज्जियाँ उड़ा कर रख दी हैंं।  दिक्क़त ये है कि श्रमजीवी पत्रकारों के संगठन भी नहीं बचे। शोषण की यह चक्की तब तक चलती रहेगी जब तक पत्रकार ख़ुद को मज़दूर मानकर संघर्ष के लिए तैयार नहीं होते।

 

 बर्बरीक