कश्‍मीर : एक मां के नाम उसके बेटे का ख़त, जो कभी पहुंचा नहीं!

इरफ़ान राशिद
कश्मीर Published On :

Representative Image, Photo Credit: Bilal Ahmad, Courtesy: Inuth.com


मेरे फ़ोन पर चमकते हुए अज्ञात नंबर को मैंने क्षेत्र कोड से पहचान लिया था। मुझे पता था कि वो मेरी माँ है। वो बाज़ार गयी थी (जो कि निस्संदेह बंद था) क्योंकि मेरी छोटी बहन को चॉकलेट चाहिए थी। काश मैं उसे ये बता पाता कि हालात ऐसे हैं कि कश्मीरी बच्चों को चॉकलेट से ज़्यादा पेलेट मिलते हैं।

चौदह दिन के बाद, पहला वाक्य जो मेरी माँ ने फ़ोन पर बोला, वो था, “सिअब जान ओ, तचे चुक्का ठीक, ज़ुव हा वनडाई, तचातीआ तचातीआ हा एसेस करान काठ करहा बे तचे सीट.”

इसका उनुवाद करना मुश्किल होगा, क्योंकि ये केवल शब्द नहीं हैं भावनाएँ हैं, फिर भी मैं पूरी कोशिश करूँगा: ”ओ, मेरे प्यारे बेटे, क्या तुम अच्छे हो? तुम पर आने वाली सारी मुसीबतें मैं अपने पर ले लूँ। मैं बहुत निराश हो रही थी क्योंकि मुझे नहीं पता था कि मैं कब तुम्हारी आवाज़ सुन सकूंगी।”

क्योंकि वह हमारा लैंडलाइन या फिर एसटीडी/पीसीओ बूथ नहीं था, मैंने सुझाव दिया कि मैं उन्हें फ़ोन करता हूँ क्योंकि मुझे पता था कि हम देर तक बात करेंगे।

हमने मेरे छोटे भाई फैज़ल के बारे में बात की जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। मेरी माँ उसके लिए बहुत परेशान थी क्योंकि वो हाल ही में परिवार से अलग और घर से दूर गया है। उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या तुम रोज़ फैज़ल को फ़ोन करते हो? उसको अकेला मत महसूस होने देना, उससे जरूर पूछना उसे कुछ चाहिए तो नहीं, कुछ जरूरत हो तो बताये”, और वो रो पड़ी।

इतने दिनों तक जब मैं अपने परिवार से संपर्क नहीं कर पा रहा था तब मैंने श्रीनगर के एक प्रसिद्ध रेडियो स्टेशन को संपर्क किया। वो रेडियो स्टेशन राज्य से बाहर रह रहे उन कश्मीरी लोगों के सन्देश ले रहा था जो अपने परिवार वालों को पैगाम भेजना चाहते थे।

इसकी संभावना थी कि मेरे परिवार से कोई भी वो सन्देश नहीं सुन पाए पर मुझे विश्वास था कि हमारे मोहल्ले से कोई न कोई तो ज़रूर सुन ही लेगा। और ऐसा ही हुआ। बात करते वक़्त माँ ने कहा, “अंकल ने बताया कि तुम रेडियो पर थे. मुझे तो नई ज़िन्दगी मिल गयी जब मुझे तुम्हारा सन्देश मिला कि तुम ठीक हो।”

इन 14 दिनों में मेरी सबसे बड़ी चिंता थी मेरी माँ की दवा। वो गठिया की मरीज़ हैं और उन्हें नियमित रूप से दवा लेने की ज़रूरत है, नहीं तो उनका दर्द और बढ़ जाता है। यही विचार मुझे दिन भर परेशान करता रहता था। मैंने माँ से उनकी दवाइयों के बारे में पूछा।

उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने दवाई का पर्चा एक एम्बुलेंस चालक को, जो कि मरीज़ों और अन्य मेडिकल स्टाफ को हमारे यहाँ से श्रीनगर ले जाता है, उसे सौंप दिया था। मुझे नहीं पता था कि मैं इस पर क्या प्रतिक्रिया दूँ। हालाँकि मैं खुश था कि उन्हें अपनी दवाइयाँ मिल गयी थीं पर जैसे मिली थीं, उससे मैं स्तब्ध रह गया।

ईद-उल-अदहा क़ुर्बानी के लिए मशहूर है। जितना मुझे याद है, कोई भी ईद ऐसी नहीं थी जब हमने भेड़ या बकरी की क़ुर्बानी नहीं दी हो। मगर माँ ने कहा कि यह पहली बार था जब हम भेड़ नहीं ख़रीद पाए। इसके दो कारण थे – पहला, कर्फ़्यू के चलते गड़रिये हर गली-कूचे में नहीं पहुँच पाए और दूसरा, ईद पर मेरे पिताजी की तनख्वाह ही नहीं आई।

मैं परिवार के अन्य सदस्यों और रिश्तेदारों के बारे में पूछने लगा। कोई नहीं आया था और उनके बारे में कोई ख़बर भी नहीं थी। माँ को मेरी 80 साल की नानी की हालत के बारे में भी नहीं पता है। ईद से एक दिन पहले, नाज़िर साहिब को दिल में दर्द उठा और उन्हें पास ही के अस्पताल में इमरजेंसी में ले गए। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था, मगर उनकी बहन, मेरी फूफी को इसका पता ही नहीं चला। चार दिन बाद, उनका बेटा माजिद, किसी तरह चरारी शरीफ़ पहुँचा और उसने मेरी बुआ और फूफा को बताया। मेरी फूफी रो पड़ीं।

मेरा शहर, चरारी शरीफ़, वही जगह है जो मई 1995 में ख़बरों में था, जब सेना और उग्रवादियों के बीच तीन महीने चली मुठभेड़ के दौरान पुरा शहर जल कर राख हो गया था। क़रीब 10,000 लोगों को बस्ती छोड़ कर जाना पड़ा और कई महीनों बाद जब लौट कर आए तो देखा कि उनके घर ध्वस्त हो चुके हैं, इसमें मेरा घर भी शामिल था।

ईद से पहले, मेरा एक दोस्त दिल्ली से अपने घर श्रीनगर गया, बिना यह जाने कि वह हवाईअड्डे से अपने घर कैसे जाएगा। जब वह श्रीनगर उतरा और उसने वहाँ मौजूद इकलौते टैक्सी चालक को उसे घर छोड़ने के लिए पूछा तो टैक्सी चालक बोला, “30 किलोमीटर तो भूल जाइये, ज़्यादा से ज़्यादा मैं आपको चनापोरा बाइपास (हवाईअड्डे से 6 किलोमीटर दूर) छोड़ सकता हूँ और उसके मैं 1500 रुपये लूँगा.”

मैंने उसके हाथों एक बहुत ज़रूरी सन्देश अपने परिवार को भेजा था पर वो उन तक कभी पहुँचा ही नहीं। पहले दिन उसने मेरे घर के नज़दीक तहसील कार्यालय जाने की कोशिश की जहाँ सिपाही तैनात थे, उन लोगों ने उसे पार नहीं जाने दिया। दूसरे दिन भी वह असफ़ल रहा। ईद के दिन, उसे उम्मीद थी कि वह मोर्चाबंदी पार कर मेरे घर के नज़दीक विशाल मस्जिद इलाके में पहुँच जाएगा, मगर उसे और उसके पिताजी को फिर एक बार रोक दिया गया।

मेरा सन्देश 800 किलोमीटर दूर, दिल्ली से कश्मीर तक तो पहुँच गया मगर मेरी माँ तक नहीं। मैं नहीं समझ पाया कि क्यों एक बेटे का सन्देश उसकी माँ तक पहुँचने से रोका गया। क्या वो देशद्रोही सन्देश था? क्या उससे क़ानून और व्यवस्था भंग हो सकती थी?

हालाँकि मैं खुश हूँ कि अंततः मैं अपनी माँ से बात कर पाया पर जिस तरह सरकार ने इस मसले को संभाला है, ऐसा लगता है कि बहुत सी माँएं अपने बेटों को जल्दी नहीं देख पाएँगी। हज़ारों हिरासत में हैं, और पेलेट और गोलीबारी जारी है। अंधकार अंतहीन जान पड़ता है, मगर हमने उम्मीद को जकड़ा हुआ है, उम्मीद हमें धोखा नहीं दे सकती। यह आलम है कि बाकी मुल्क ने हमसे आँखें फेर ली हैं और एक बहुत बड़ा हिस्सा कश्मीर के हालात के या तो खुलेआम या चुपचाप मज़े ले रहा है।

कुछ मुट्ठी भर दोस्तों ने मुझे सन्देश भेजा और मैं उनका आभारी हूँ परन्तु दिल्ली में बहुत से दोस्तों की आपराधिक चुप्पी ने मुझे हैरान कर दिया। बहुतों को कश्मीर के लिए ‘दुःख’ महसूस हुआ लेकिन उन्होंने मुझे अपनी एकजुटता प्रकट करते हुए एक भी सन्देश नहीं भेजा। अगर वो मुझे कह देते कि “हम तुम्हारे साथ खड़े हैं” या “फ़िक्र मत करो, सब ठीक हो जाएगा” या मुझे पूछ लेते “क्या तुम्हारी अपने परिवार से बात हुई?” या “क्या तुम्हें कोई मदद चाहिए”, तो ये मुश्किल समय थोड़ा आसान हो जाता।


(अंग्रेज़ी में The Quint पर छप चुके इरफ़ान राशिद के इस लेख का अनुवाद कल्‍याणी ने किया है। साभार प्रकाशित।)


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