आज हिंदी का एक स्वतंत्र पत्रकार खुद को आखिर कैसे बचाए?

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पुष्य मित्र 

हिंदी पत्रकारिता में आज भी एक स्वतंत्र पत्रकार का सर्वाइवल मुश्किल है. विभिन्न अखबारों में फीचर और आलेख लिखने वाले कुछ सीनियर पत्रकार भी अगर सर्वाइव कर रहे हैं तो इसमें या तो उनके व्यक्तित्व और अनुभव का योगदान है, या मीडिया हाउस में उनकी व्यक्तिगत सेटिंग का. एक क्राइम रिपोर्टर, एक इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टर या एक रोविंग संवाददाता या फिर एक ग्रामीण संवाददाता. अपनी खबरों की दम पर स्वतंत्र रूप से अपना जीविकोपार्जन करने में विफल रहता है. ऐसे में उसे किसी और तरह का धंधा करना पड़ता है. जो ठेकेदारी से लेकर ब्लैकमेलिंग तक कुछ भी हो सकता है.

अपने पत्रकारीय जीवन में कई ऐसे पत्रकारों से मिलना हुआ जिनमें सरकार और समाज के ऐसे तबके से खबर तलाश लाने का हुनर है, जिसके बारे में हम आप सोच भी नहीं सकते. इसकी वजह है कि उसकी पैठ हर जगह है. वह अच्छी कॉपी नहीं लिखता, मगर उसकी खबरें विस्फोटक होती हैं. मगर क्या कोई मीडिया हाउस इस स्थिति में है, या हिंदी में कोई ऐसी परंपरा है, कि संपादक उसकी खबरें वाजिब कीमत देकर खरीद सके. नहीं. यह परंपरा अंगरेजी में है, अंगरेजी के कई साथी स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए अच्छी तरह जी रहे हैं. मगर हिंदी में खबरों की कोई कीमत नहीं है, क्योंकि हमारी पूरी पत्रकारिता अब राज्य के आइपीआरडी की सेटिंग में खर्च हो रही है. हम उनकी गाइडलाइन के हिसाब से खबरें लिख रहे हैं, क्योंकि मीडिया हाउस का अपना सर्वाइवल मुख्यतः सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर है, और इसके लिए कोई कारगर पॉलिसी नहीं है. सरकार के मुखिया के मूड पर निर्भर है कि वह किस मीडिया हाउस को विज्ञापन देगा, किसे नहीं. ऐसे में हिंदी पत्रकारिता बार-बार दंडवत हो जाती है.

हालांकि कुछ लोग सीना तानकर खड़े भी होते हैं. जैसे राजस्थान में पत्रिका समूह करता रहा है. आज फिर वह वसुंधरा राजे के खिलाफ तन कर खड़ा हो गया है. मगर ऐसी मिसालें कितनी हैं? उंगलियों पर गिनने लायक. जाहिर है, इस माहौल में खबरों की जरूरत लगातार कम होने लगी है. बिहार का फार्मूला है, एक मोदी की खबर, एक नीतीश की खबर, एक शराबबंदी या बाल विवाह या दहेज प्रथा की सक्सेस स्टोरी. बस हो गया. यही पत्रकारिता है. हर राज्य का अपना पैटर्न होगा.

तो ऐसे में जो खालिस पत्रकार हैं, क्या करें? उनका भी परिवार है, उन्हें भी रोजी-रोटी की फिक्र है. उनके सामने तीन रास्ते हैं, पहला, या तो वह सिस्टम का हिस्सा बन जाए और सरकारोन्मुखी पत्रकारिता का हुनर सीख ले. अपने मालिकान के लिए अगर सरकारों से डील करना आप सीख गये तो फिर आप पत्रकारिता जगत के शहंशाह हैं. दूसरा रास्ता है, हम जैसों का. जो परिधि पर हैं. परिवार है, इसलिए नौकरी करना जरूरी है. मगर पहला रास्ता चुन नहीं सकते. कभी सरकारोन्मुखी कर लेते हैं, बीच-बीच में जनोन्मुखी भी पुश करने की कोशिश करते हैं. कुछ नहीं होता है, तो अपना फ्रस्टेशन सोशल मीडिया में निकालते हैं. मीडिया हाउस भी हमें झेलता है, हम भी झेलते हैं. और संतुलन बनाये रखते हैं. हालांकि यह संतुलन कभी भी खत्म हो सकता है.

तीसरा रास्ता है, आप इस सिस्टम से आजाद हो जायें, या फिर आपको खुद आपका हाउस आजाद कर दे. ऐसे में आपकी लाचारी है कि आप स्वतंत्र पत्रकारिता करें. मगर कोई मीडिया हाउस आपकी खबरों को जगह नहीं देगा. आपके पास दिल्ली के बड़े और पटना के छोटे ऑनलाइन पोर्टलों का विकल्प बचता है. मगर देखने वाली बात यह है कि वहां भी आपको कितना इंटरटेन किया जाता है. यह अच्छी बात है कि कुछ लोग फेसबुक पर भी लिखते हैं तो असर होता है. मगर रोजी-रोटी का क्या… यह बड़ा सवाल है. जाहिर है, इस सवाल पर हिंदी पत्रकारिता का भविष्य अटका हुआ है.

हिंदी पत्रकारिता को दिल्ली के न्यूज चैनलों और पटना के अखबारों में मत तलाशिये. मीडिया हाउस की परिधि पर अटके और वहां से खारिज हो चुके स्वतंत्र पत्रकारों के अस्तित्व का इंतजाम कीजिये. देखिये, पत्रकारिता कैसे रंग लाती है. पाठकों को ऐसे पत्रकारों के सर्वाइवल का इंतजाम करना पड़ेगा. तभी हिंदी की पत्रकारिता बचेगी. वरना, सब देख, समझ और पढ़ ही रहे हैं…!


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ‘रेडियो कोसी’ के लेखक हैं. बिहार में ज़मीनी रिपोर्ट करने वाले दुर्लभ और लोकप्रिय पत्रकार हैं. यह लेख उनकी फेसबुक दीवार से साभार है. आवरण तस्वीर भी उन्हीं की दीवार से साभार.