आज के हिंदी अखबारों के संपादकीय: 22 फ़रवरी, 2018

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नवभारत टाइम्स 

विकास का रास्ता

उत्तर प्रदेश में इन्वेस्टर्स समिट के आयोजन ने विकास और रोजगार को लेकर यहां की जनता की उम्मीदें बढ़ा दी हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस आयोजन को लेकर जिस तरह उत्साहित हैं, उससे लग रहा है कि पिछली सरकारों के कार्यकाल में हुए ऐसे ही आयोजनों की तरह यह एक रस्मी कवायद भर साबित नहीं होगा। उन्होंने आश्वासन दिया है कि जो भी एमओयू साइन हुए हैं, उनकी नियमित देखरेख और कार्यान्वयन वह खुद करेंगे। यूपी के लिए ऐसे ही जज्बे की जरूरत है। अच्छी बात है कि प्रदेश के विकास की यह कहानी स्वयं प्रधानमंत्री के मार्ग-निर्देशन में लिखी जा रही है। इन्वेस्टर्स समिट के मौके पर नरेंद्र मोदी ने पांच ‘पी’ का मंत्र दिया। उन्होंने कहा कि पोटेंशियल, पॉलिसी, प्लानिंग और परफॉर्मेंस से ही प्रोग्रेस आती है। पिछली कई सरकारें प्राय: इस बात का रोना रोती थीं कि उन्हें केंद्र सरकार का सहयोग नहीं मिल पाता है, इसलिए वे लाख चाहकर भी कुछ खास नहीं कर पातीं। अभी संयोग से राज्य और केंद्र में एक ही पार्टी की सरकार है। ऐसे में यह भरोसा किया जा सकता है कि दोनों सरकारें मिलकर यूपी को विकसित राज्यों की पांत में ला खड़ा करेंगी। राज्य की विडंबना यह है कि 1980 का दशक बीतने के साथ ही यह राजनीति की प्रयोगशाला बनकर रह गया है। न सिर्फ स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय पार्टियों ने भी इस राज्य का इस्तेमाल अपना दबदबा बढ़ाने में किया और बदले में यहां की जनता को सिर्फ सपने दिखाए। नब्बे के दशक में एक तरफ देश में भूमंडलीकरण और उदारीकरण की शुरुआत हुई, दूसरी तरफ यूपी और बिहार मंडल-मंदिर और सोशल इंजीनियरिंग के रास्ते पर बढ़ गए, जिसके अजेंडे में आर्थिक विकास था ही नहीं। इस दौर में दक्षिण और पश्चिम के समुद्र तटीय राज्य आर्थिक और तकनीकी विकास के रास्ते पर बढ़ते गए, जबकि यूपी में जाति और संप्रदाय की लड़ाई चलती रही। इस दौरान राज्य के ज्यादातर नेताओं और अफसरों की निजी संपत्ति दिन-दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ी, लेकिन प्रदेश बदहाल हो गया। एक समय था जब अपने कपड़ा और चमड़ा उद्योग के बल पर कानपुर को पूरब का मैनचेस्टर कहा जाता था। राज्य के कई और शहरों की भी औद्योगिक पहचान हुआ करती थी। लेकिन उपेक्षा के कारण धीरे-धीरे उनकी कमर टूट गई। कानून-व्यवस्था लचर होने के कारण कई उद्योगपतियों ने भी ठिकाना बदल लिया। विकास के नाम पर गाजियाबाद-नोएडा ही बचे हैं, जिसकी वजह इनका दिल्ली से जुड़ा होना है। और कहीं ऐसा कोई औद्योगिक ढांचा नहीं है जो युवाओं को रोजी-रोटी दे सके। ऐसे में जरूरी है कि योगी सरकार कानून-व्यवस्था को लेकर निवेशकों को आश्वस्त करे और हर कीमत पर परियोजनाओं को जमीन पर उतारे। राजनीतिक दल राज्य को कुछेक साल सांस लेने का मौका जरूर दें।


जनसत्ता 

फिर तकरार

दिल्ली सरकार और उसके प्रशासनिक अधिकारियों के बीच एक बार फिर सीधी तकरार शुरू हो गई है। मुख्य सचिव अंशु प्रकाश ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की उपस्थिति में आम आदमी पार्टी के कुछ विधायकों ने उन्हें गालियां दीं और उनके साथ हाथापाई की। अंशु प्रकाश ने थाने में लंबी शिकायत दर्ज की है। पर दिल्ली सरकार का कहना है कि मुख्य सचिव के सारे आरोप बेबुनियाद हैं। उनके साथ कोई बदसलूकी नहीं हुई। उलटा आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने मुख्य सचिव के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है कि उन्होंने उनके खिलाफ जातिगत टिप्पणी की, जब उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र में लोगों को राशन मिलने में आ रही परेशानी की शिकायत की।

मुख्य सचिव पर हुए तथाकथित हमले के बाद दिल्ली सचिवालय से जुड़े प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों ने काम का बहिष्कार कर दिया और मांग की कि जब तक आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं होती, वे काम पर नहीं लौटेंगे। प्रशासनिक अधिकारी पहले उपराज्यपाल और फिर केंद्रीय गृहमंत्री के पास भी अपनी शिकायत दर्ज करा आए। जबकि दिल्ली सरकार में मंत्री इमरान हुसैन ने पुलिस के समक्ष शिकायत दर्ज कराई है कि सचिवालय के कुछ अधिकारियों और कर्मचारियों ने उन्हें लिफ्ट में बंधक बना लिया था और वे किसी तरह वहां से जान बचा कर निकलने में कामयाब हुए।

इस प्रकरण से स्वाभाविक ही एक बार फिर आम आदमी पार्टी सरकार विवादों में घिर गई है। ताजा प्रकरण के बाद जिस तरह का माहौल बन गया है, उसमें दिल्ली सरकार के लिए काम करना कठिन हो गया है। इसका असर स्वाभाविक रूप से योजनाओं के क्रियान्वयन पर भी पड़ेगा। आम आदमी पार्टी और प्रशासन के बीच शुरू से ही तनातनी का रिश्ता रहा है। पहले मुख्यमंत्री सार्वजनिक मंचों से भी आरोप लगाते रहे कि दिल्ली सरकार के साथ नत्थी प्रशासनिक अधिकारी केंद्र की भाजपा सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं, इसलिए उन्हें काम करने में दिक्कतें आ रही हैं। मुख्य सचिव और दूसरे सचिवों की नियुक्ति को लेकर पूर्व उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच लंबे समय तक रस्साकशी चलती रही। जब इस मामले में कुछ विवाद थमा नजर आने लगा था, तभी यह प्रकरण घटित हो गया। दरअसल, दिल्ली सरकार अपने तीन साल पूरे होने के मौके पर टेलीविजन पर विज्ञापन प्रसारित करना चाहती है, जिसके लिए मुख्य सचिव की मंजूरी आवश्यक है। पर नियम-कायदों का हवाला देते हुए मुख्य सचिव उसके प्रसारण में अडंÞगा लगाते रहे हैं। इसी को लेकर दिल्ली सरकार, आम आदमी पार्टी विधायकों और मुख्य सचिव के बीच तल्खी बताई जा रही है।

दिल्ली सरकार पर विज्ञापनों के प्रसारण में अतार्किक रूप से पैसा खर्च करने का आरोप पहले ही लग चुका है। ऐसे में मुख्य सचिव की फूंक-फूंक कर कदम रखने की मंशा समझी जा सकती है। पर यह ऐसा मामला नहीं हो सकता, जिस पर विवेक से काम लेने के बजाय हिंसक रास्ता अख्तियार करने की नौबत आ जाए। आम आदमी पार्टी लोगों की समस्याओं को दूर करने, पारदर्शी और प्रभावी प्रशासन देने के वादे पर सत्ता में आई थी, इसलिए उससे संयम की अपेक्षा अधिक की जाती है। फिर अगर इस प्रकरण में कोई राजनीतिक कोण है, तो उसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। सरकार और प्रशासन के बीच इस तरह की अप्रिय स्थिति किसी भी रूप में लोकतांत्रिक दृष्टि से ठीक नहीं है।

इस प्रकरण से स्वाभाविक ही एक बार फिर आम आदमी पार्टी सरकार विवादों में घिर गई है। ताजा प्रकरण के बाद जिस तरह का माहौल बन गया है, उसमें दिल्ली सरकार के लिए काम करना कठिन हो गया है। इसका असर स्वाभाविक रूप से योजनाओं के क्रियान्वयन पर भी पड़ेगा। आम आदमी पार्टी और प्रशासन के बीच शुरू से ही तनातनी का रिश्ता रहा है। पहले मुख्यमंत्री सार्वजनिक मंचों से भी आरोप लगाते रहे कि दिल्ली सरकार के साथ नत्थी प्रशासनिक अधिकारी केंद्र की भाजपा सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं, इसलिए उन्हें काम करने में दिक्कतें आ रही हैं। मुख्य सचिव और दूसरे सचिवों की नियुक्ति को लेकर पूर्व उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच लंबे समय तक रस्साकशी चलती रही। जब इस मामले में कुछ विवाद थमा नजर आने लगा था, तभी यह प्रकरण घटित हो गया। दरअसल, दिल्ली सरकार अपने तीन साल पूरे होने के मौके पर टेलीविजन पर विज्ञापन प्रसारित करना चाहती है, जिसके लिए मुख्य सचिव की मंजूरी आवश्यक है। पर नियम-कायदों का हवाला देते हुए मुख्य सचिव उसके प्रसारण में अडंÞगा लगाते रहे हैं। इसी को लेकर दिल्ली सरकार, आम आदमी पार्टी विधायकों और मुख्य सचिव के बीच तल्खी बताई जा रही है।

दिल्ली सरकार पर विज्ञापनों के प्रसारण में अतार्किक रूप से पैसा खर्च करने का आरोप पहले ही लग चुका है। ऐसे में मुख्य सचिव की फूंक-फूंक कर कदम रखने की मंशा समझी जा सकती है। पर यह ऐसा मामला नहीं हो सकता, जिस पर विवेक से काम लेने के बजाय हिंसक रास्ता अख्तियार करने की नौबत आ जाए। आम आदमी पार्टी लोगों की समस्याओं को दूर करने, पारदर्शी और प्रभावी प्रशासन देने के वादे पर सत्ता में आई थी, इसलिए उससे संयम की अपेक्षा अधिक की जाती है। फिर अगर इस प्रकरण में कोई राजनीतिक कोण है, तो उसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। सरकार और प्रशासन के बीच इस तरह की अप्रिय स्थिति किसी भी रूप में लोकतांत्रिक दृष्टि से ठीक नहीं है।


अमर उजाला
आधी रात का ड्रामा
सरकार और अधिकारियों के बीच असहमति व असहयोग के लंबे इतिहास के बावजूद इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, जैसा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर में आधी रात को शुरू हुई एक बैठक में मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ हुआ। मेडिकल रिपोर्ट में मुख्य सचिव के चेहरे पर घाव और चोट के निशान पाए गए हैं और उन पर कथित तौर पर हमला करने वाले दो विधायकों की गिरफ्तारी भी हुई है। हालांकि पूरी तस्वीर तो मामले की जांच के बाद ही स्पष्ट हो पाएगी लेकिन आप के तौर-तरीके को देखते हुए मुख्य सचिव के आरोप और नौकरशाही के रोग क्षोभ पर अविश्वास करने की बहुत गुंजाइश नहीं है। हालांकि यह भी सच है कि केंद्र ने केजरीवाल सरकार को काम-काज करने की बहुत स्वतंत्रता नहीं दी है। मौजूदा मामले में भी आप के इस आरोप पर अर्थपूर्ण चुप्पी छाई है कि मुख्य सचिव के साथ बदसलूकी के अगले दिन सुरक्षा के मामले में संवेदनशील सचिवालय में सौ से अधिक लोग घुस गए थे और उन्होंने मंत्री और उनके सुरक्षाकर्मियों के साथ मारपीट की। अलबत्ता इससे आप के गुनाह और इस मामले की गंभीरता कम नहीं होती। अव्वल तो मुख्य सचिव को बैठक के लिए रात बारह बजे बुलाने का ही कोई औचित्य नहीं था। तिस पर सरकार का यह तर्क भी गले नहीं उतरता कि बैठक खाद्य सुरक्षा के मसले पर बुलाई गई थी। फिर बैठक में खाद्य मंत्री और खाद्य आपूर्ति विभाग के अधिकारी मौजूद क्यों नहीं थे? दरअसल दिल्ली में सरकार चलाना आसान काम नहीं है; केंद्र में दूसरी पार्टी की सरकार से पटरी न बैठने के अलावा नौकरशाही के असहयोग का मामला पहले भी उठता रहा है। मुख्यमंत्री रहते हुए सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित को भी अपने मुख्य सचिव का असहयोगी रवैया झेलना पड़ा था। लेकिन उन्होंने कभी ऐसे तौर-तरीके का परिचय नहीं दिया, जैसा आप सरकार ने लगातार दिया है। अधिकारियों के साथ उसका विवाद पुराना है, चाहे वह एम एम कुट्टी का मामला हो, शकुंतला गैमलिन का, अश्विनी कुमार आदि का। यह सचमुच बड़ी विडंबना है कि जन आंदोलन की कोख से निकली एक पार्टी सत्ता में आने के बाद लगातार आपसी विवादों के कारण ही चर्चा में है। और अब तो उसने कार्यपालिका के साथ मर्यादित व्यवहार की भी धज्जियां उड़ा दी हैं, जिसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम होगी।

हिन्दुस्तान 

विकास के लिए

आबादी और संसाधनों के लिहाज से उत्तर प्रदेश को देश का सबसे विकसित राज्य होना चाहिए था। यह बात हम बिहार के बारे में भी कह सकते हैं और उत्तर भारत के कई दूसरे राज्यों के बारे में भी। लेकिन वास्तविकता यही है कि विकास की दौड़ में ये सारे राज्य पिछड़ गए। उत्तर भारत के ये सारे राज्य एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहां आगे बढ़ने के लिए उन्हें बडे़ और निरंतर प्रयासों की जरूरत है। उत्तर प्रदेश में हुई ‘इनवेस्टर्स समिट’ को हमें इसी संदर्भ में देखना होगा। यह समिट तरक्की की दिशा में पहला कदम हो सकती है। समिट के पहले ही दिन अभी तक जो ब्योरा मिला है और जो माहौल दिखाई दिया है, उससे एक बड़ी उम्मीद तो बंधती ही है। देश और दुनिया भर के बड़े उद्योगपतियों का एक साथ एक मंच पर पूरी तैयारी के साथ जमा होना, और एक के बाद एक 4.28 लाख करोड़ रुपये के 1,045 एमओयू पर दस्तखत होना यह बताता है कि यह सिर्फ राज्य सरकार का एक औपचारिक प्रयास भर नहीं है, बल्कि देश-दुनिया के उद्योगपति इसमें खासी दिलचस्पी ले रहे हैं। इसके साथ ही मंच पर प्रधानमंत्री की मौजूदगी भी इस बात का आश्वासन थी कि भारत सरकार भी उत्तर प्रदेश के इस प्रयास को गंभीरता से ले रही है।

यह गंभीरता सभी के लिए जरूरी है, क्योंकि देश की तकरीबन 17 फीसदी आबादी उत्तर प्रदेश में ही रहती है। दुनिया में भारत को आने वाले दौर की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत सिर्फ इसीलिए माना जाता है कि सबसे बड़ी युवा आबादी यहीं पर है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे डेमोग्राफिक डिविडेंट कहा जाता है। और अगर भारत के भीतर देखें, तो सबसे बड़ी युवा आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश ही है। उत्तर प्रदेश की यह उत्पादक क्षमता और संभावना अगले कुछ दशकों तक बनी रहने वाली है। इसी कारण से उद्योगों के लिए निवेश की इससे अच्छी जगह कोई और नहीं हो सकती। खासकर इसलिए कि प्रदेश में कुशल और पढ़े-लिखे नौजवानों की बड़ी संख्या है। साथ ही उत्तर प्रदेश एक इतना बड़ा बाजार भी बन चुका है कि इसे नजरंदाज किसी भी उद्योग के लिए अब संभव नहीं है। यह प्रदेश हस्तशिल्प और दुग्ध उत्पादन के मामले में अव्वल है, जो बताता है कि प्रदेश में कारोबार की एक परंपरा पहले से ही मौजूद है, बस इसे आधुनिक कार्य-संस्कृति से जोड़ने की जरूरत है।

इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश को एक नई चुनौती दी, प्रदेश को महाराष्ट्र से पहले ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने की चुनौती। महाराष्ट्र के लिए भी यह बहुत आसान नहीं है, पर वह इससे ज्यादा दूर भी नहीं है। उत्तर प्रदेश को इसके लिए काफी दूरी तय करनी होगी। उत्तर प्रदेश के मुकाबले महाराष्ट्र के पास बहुत बड़ा व विकसित इन्फ्रास्ट्रक्चर है। उत्तर प्रदेश अगर ऐसी तमाम दिक्कतों के बावजूद महाराष्ट्र को पछाड़ सका, तो एक इतिहास बन जाएगा। प्रदेश के पास इसकी क्षमता तो है, लेकिन चुनौती उस क्षमता के सही उपयोग की है। इसके लिए प्रदेश को उन सब बाधाओं को भी दूर करना होगा, जिसके कारण निवेशक पहले भी उत्तर प्रदेश आते-आते रह जाते थे। साथ ही महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों से यह भी सीखना होगा कि कैसे विकास को प्रदेश का स्थाई भाव बनाया जाए। इन प्रदेशों में सरकारें आती-जाती रहती हैं, विभिन्न दलों की सरकार बनती रहती है, लेकिन औद्योगिक विकास जारी रहता है। उत्तर प्रदेश को भी ऐसा ही बनना होगा।


दैनिक भास्कर
क्या कमल हासन दक्षिण की राजनीति को नया मोड़ देंगे
दक्षिण भारत में फिल्म और राजनीति के चोली-दामन के संबंधों पर यकीन करते हुए अभिनेता और फिल्मकार कमल हासन ने नई पार्टी का आरंभ तो कर दिया है लेकिन,यह कहना कठिन है कि यह प्रयास कोई चमत्कार दिखा पाएगा। जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति नई अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है और उसमें डूबने और उतराने की कई राजनीतिक संभावनाएं विद्यमान हैं। कमल हासन ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के परिवार से आशीष और रामेश्वरम के मछुआरों से समर्थन लेकर मदुराई से जो राजनीतिक यात्रा शुरू की है वह चेन्नई के फोर्ट सेंट जॉर्ज स्थित विधानसभा तक पहुंचेगी या दिल्ली की संसद तक आएगी यह तो समय बताएगा। उनकी राजनीति में अन्नाद्रमुक-द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दलों का ही नहीं भाजपा का भी विरोध है। जयललिता की पार्टी को एकजुट रख सत्ता में कायम रखने का काम भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व कर रहा है इसके बावजूद यह रिश्ता सहज नहीं है। इसका प्रमाण तब मिला जब केंद्रीय मंत्री राधाकृष्णन ने कहा कि तमिलनाडु आतंकियों का प्रशिक्षण स्थल है। इसके जवाब में उपमुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम ने यह खुलासा कर दिया कि किस तरह प्रधानमंत्री मोदी की इच्छा थी कि पार्टी से शशिकला का प्रभाव हटे और पलानीस्वामी मुख्यमंत्री बनें और पन्नीरसेल्वम भी मंत्रिमंडल में शामिल हों। उधर दो बार लगातार चुनाव हारने के बाद द्रमुक बहुत बेचैन है और अगला चुनाव जब भी हो उसे जीतने के लिए वह जान लगा देने की तैयारी में है। उसके भाग्य से टू-जी घोटाले से कनिमोझी और ए राजा के बरी होने का छींका टूटा है। असली सवाल कमल हासन के मैदान में उतरने और प्रभाव पड़ने का है। अगर चुनाव निर्धारित वर्ष 2021 में होता है तो उन्हें प्रचार करने और संगठन बनाने के लिए काफी समय मिल जाएगा और अगर दिनाकरण के 18 विधायकों पर विपरीत फैसला आने के कारण जल्दी होता है तो द्रमुक और अन्नाद्रमुक के माध्यम से भाजपा ज्यादा सशक्त हस्तक्षेप करेगी। भाजपा ने द्रमुक पर भी डोरे डालने में कसर नहीं छोड़ी है। इस बीच एक बात स्पष्ट होती जा रही है कि रजनीकांत जैसे लोकप्रिय अभिनेता कमल हासन की बजाय भाजपा का साथ देंगे। देखना है 2019 का चुनाव 1989 की तरह कोई नया ध्रुवीकरण करेगा और तमिलनाडु से दिल्ली तक मौलिक बदलाव करेगा या उन्हीं पुराने दो दलों के बीच सीमित रहेगा।

राजस्थान पत्रिका

जिम्मेदारी से न भागें 

पंजाब नेशनल बैंक घोटाले पर देश को वित्त मंत्री अरुण जेटली से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। इतने बड़े घोटाले पर सात दिन बाद मुंह खोलने वाले जेटली ने सारा ठीकरा सीए और ऑडिटर्स पर फोड़ दिया मानो इतने बड़े घोटाले को रोकने की जिम्मेदारी सरकार पर बिल्कुल नहीं थी। जेटली की पीड़ा ये है कि ऑडिटर्स गलती क्यों नहीं पकड़ पाए? घोटाले में गिरफ्तार बैंक के पूर्व अधिकारी गोकुलनाथ शेट्टी ने पूछताछ में ‘लेटर ऑफ अंडरटेकिंग’ कि 2008 से जारी होने की बात स्वीकारी है। आश्चर्य तो इसी बात का है कि सरकारें अपनी जवाबदेही से मुंह चुराने लगी हैं। सवाल यह है कि 2008 से घोटाला चल रहा है लेकिन दस साल में पकड़ने वाला कोई नजर नहीं आया। कांग्रेस राज में भी और भाजपा राज में भी। बैंकों की गहराई से जांच की जाए तो न जाने कितने हजार-करोड़ के दूसरे और घोटाले सामने आ सकते हैं। सवाल ये नहीं कि गलती पकड़ना किसका काम है? सवाल ये कि जो पैसा डूब रहा है वह तो जनता का ही। इससे बड़ा सवाल ये कि इतने बड़े घोटाले क्या बिना ऊपरी शह के हो सकते हैं? बैंक घोटाले की परतें जैसे-जैसे खुल रही हैं, वैसे वैसे बड़े-बड़े नाम सामने आते जा रहे हैं। राजनीतिक फायदे के लिए राजनीतिक दल एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने के प्रयास कर रहे हैं। कांग्रेस नेताओं के पास इस बात का जवाब नहीं है कि अगर ये घोटाला 2008 या 2011 से चल रहा था तो तब उसकी सरकार क्यों सोई पड़ी रही? इसी सवाल का जवाब देश की जनता वर्तमान भाजपा सरकार से भी जानना चाहती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं। जनता को सवालों के जवाब नहीं मिल पाए तो काहे का लोकतंत्र? हर पांच साल में चुनाव होने या फिर सिर्फ सरकारें बदलने को ही लोकतंत्र कैसे मान लिया जाए? लोकतंत्र का मतलब है कि इतने बड़े घोटाले पर लीपापोती करने की बजाए देश के वित्त मंत्री सार्वजनिक रूप से अपनी नाकामी स्वीकारें कि साढ़े तीन साल तक उनकी सरकार को इतने बड़े घोटाले की भनक क्यों नहीं लग पाई? सीए व ऑडिटर्स पर ठीकरा फोड़ने से कुछ होने वाला नहीं? आखिर ये तंज भी तो सरकार के तहत ही आता है.


दैनिक जागरण

वक्त पर न चेतने की बीमारी

पंजाब नेशनल बैंक मैं बड़ा घोटाला सामने आने के बाद बड़े पैमाने पर बैंक कर्मचारियों के तबादले के साथ वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक की ओर से बैंकिंग व्यवस्था की खामियां पता करने की कोशिश एक तरह से चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत को चरितार्थ कर रही है। बैंकिंग व्यवस्था के साथ सरकार की साख को बट्टा लगाने वाले कारनामे के बाद दिखाई जा रही सक्रियता से तो यही लगता है कि सभी जिम्मेदार लोग घोटाला होने का इंतजार कर रहे थे। आखिर नीरव मोदी की कारगुजारी का पता लगने के पहले किसी ने इसकी चिंता क्यों नहीं की कि सरकारी बैंक आवश्यक नियम-कानूनों और निगरानी तंत्र का पालन करते हुए पर्याप्त सतर्कता बरत रहे हैं या नहीं? क्या वित्त मंत्रालय और साथ ही रिजर्व बैंक को तभी नहीं चेत जाना चाहिए था जब नोटबंदी के बाद यह साफ हो गया था कि बैंकों ने जमकर मनमानी की है? रिजर्व बैंक की यह जवाबदेही बनती है कि उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित इलेक्ट्रॉनिक वित्तीय प्लेटफार्म स्विफ्ट को कोर बैंकिंग सिस्टम के दायरे में लाना अनिवार्य क्यों नहीं बनाया? इस सवाल का जवाब इसलिए मिलना चाहिए क्योंकि 2016 में बांग्लादेश में एक बैंक से हुई 8.1 करोड़ डॉलर की धोखाधड़ी में स्विफ्ट संदेश प्रणाली की ही खामी सामने आई थी। समझना कठिन है कि इसके बाद रिजर्व बैंक ने भारतीय बैंकों से केवल सावधान रहने को कहकर कर्तव्य की इतिश्री क्यों कर ली? आखिर उसने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि बैंक हर हाल में स्विफ्ट संदेश प्रणाली को कोर बैंकिंग सिस्टम का हिस्सा बनाएं? अगर रिजर्व बैंक ने बैंकों को इसके लिए बाध्य किया होता तो शायद नीरव मोदी का गोरखधंधा पहले ही पकड़ में आ जाता।

पंजाब नेशनल बैंक के घोटाले पर वित्त मंत्री की ओर से यह जो संकेत दिया गया कि बैंक प्रबंधन और ऑडिटर्स के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है उसके संदर्भ में भी यह सवाल उठता है कि आखिर इसके पहले और खासकर तभी बैंकिंग प्रबंधन और बैंकों की ऑडिट व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोई ठोस पहल क्यों नहीं हुई जब फंसे कर्ज की समस्या को बेलगाम होती दिख रही थी? सरकारी बैंकों की नियामक संस्था रिजर्व बैंक के साथ यह नैतिक जिम्मेदारी तो वित्त मंत्रालय की भी बनती थी कि वह बैंकों के कुप्रबंधन को ठीक करने के लिए अपने स्तर पर उचित कदम उठाता। यदि सरकारी बैंकों के फंसे कर्ज एनपीए में तब्दील होते जा रहे हैं और सक्षम लोग कर्ज लौटाने की बजाय बहाने बनाकर मौज कर रहे हैं तो इसीलिए कि बैंकों का प्रबंधन कुप्रबंधन का पर्याय बन गया है। इसी कुप्रबंधन के कारण सरकारी बैंक आम आदमी के बजाय संदिग्ध किस्म के लोगों के हितों की पूर्ति अधिक कर रहे हैं। उनके गोरखधंधे की वजह से ही उनकी साख रसातल में जा लगी है। रिजर्व बैंक के साथ साथ सरकार को यह समझ आ जाना चाहिए कि अगर बैंकिंग व्यवस्था सुधरी नहीं तो उस पर से लोगों का भरोसा उठ सकता है और वह देश के साथ साथ विदेश में भी बदनाम हो सकते हैं। ऐसी कोई स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट की ओर ही ले जाएगी।


प्रभात खबर

शिशुओं को बचायें

जनवरी में बजट को लेकर जोर पकड़ती चर्चाओं के बीच केंद्रीय वित्त मंत्री ने विकास नीति के लिहाज से बड़ी मानीखेज टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि देश के ज्यादातर लोग आज भी खेती पर निर्भर हैं, ऐसे में अगर कृषि क्षेत्र को आर्थिक वृद्धि का लाभ नहीं मिलता है, तो उसे उचित तथा समान विकास नहीं कह सकते हैं. इस टिप्पणी का विस्तार करते हुए कहा जा सकता है कि आर्थिक बढ़त सामाजिक विकास में परिणत हो कर ही तर्कसंगत कहला सकती है. समृद्धि से व्यक्ति और समाज की योग्यता और क्षमता में बढ़ोतरी होनी चाहिए, क्योंकि इस बढ़त और विकास से ही लोकतंत्र में व्यक्ति के लिए बेहतर स्थितियां तैयार हो सकती हैं. लेकिन सामाजिक विकास के सूचकांकों को पर गौर करें, तो भारत कुछ मामलों में अपने पड़ोसी बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल से भी पीछे नजर आता है. मिसाल के तौर पर नवजात शिशुओं की मृत्यु दर को लिया जा सकता है. संयुक्त राष्ट्रसंघ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर नवजात शिशुओं नवजात शिशुओं की मृत्यु दर 25 है यानी 1000 शिशुओं में 25 शिशु अपने जन्म के 28 दिन के भीतर काल-कवलित होने को अभिशप्त हैं. बांग्लादेश में यह दर 20.1 और श्रीलंका में 5.3 है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में हर साल छह लाख नवजात शिशु जन्म के एक माह के भीतर मौत के शिकार होते हैं. यह वैश्विक स्तर पर नवजात शिशुओं की मृत्यु का एक चौथाई हिस्सा है. ऐसा नहीं है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में कमी के सरकारी प्रयासों का कोई असर नहीं हुआ है. साल 1990 के दशक में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर प्रति हजार जीवित शिशुओं के जन्म पर 52 थी. साल 2013 में यह घटकर 28 पर आयी और अब इसमें कुछ और कमी आयी है. लेकिन, शिशुओं की मृत्यु दर में कमी अपेक्षा या सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के अनुकूल नहीं है. जन्म के कुछ ही समय के भीतर शिशुओं के मरने की दर का ऊंचा होना कई स्थितियों की ओर संकेत करता है. भारत में अस्पताली प्रसव की तादाद अभी तुलनात्मक रुप से कम है. जहां तक माताओं की सेहत का सवाल है, ज्यादातर माताओं को गर्भावस्था में जरूरी पोषण नहीं मिल पाता है और न ही प्रसव के बाद जच्चा-बच्चा को समुचित चिकित्सा देखभाल उपलब्ध होती है. अस्पताली प्रसव बढ़ावा देने के लिए सरकार ने वित्तीय सहायता देने की योजना चलायी है, परंतु अन्य कई नीतियों की तरह इसका क्रियान्वयन लचर है. देश में हर जगह योजना की कामयाबी एक-सी नहीं है. कम उम्र में ब्याह और मां बनना भी शिशु मृत्यु दर के अधिक होने की एक वजह है. सामाजिक विकास के मद में पर्याप्त सरकारी खर्च तथा बुनियादी सुविधाओं के आधारभूत ढांचे के विस्तार की सख्त जरूरत है, ताकि भारत दुनिया में ‘सबसे ज्यादा नवजात शिशुओं की मृत्यु वाला देश’ कहलाने के कलंक से बच सकें।


देशबन्धु 

आप और अफसर आमने सामने

किसी भी सरकार के लिए सबसे बड़ा संकट तब खड़ा हो जाता है, जब अफसरशाही ही उसके खिलाफ हो जाए। भारत में प्रशासन की बागडोर उन अफसरों के हाथ में ही रहती है, जो ब्रिटिश शासन में बनाई गई व्यवस्था की देन हैं। कहने को ये नौकरशाह होते हैं, पर असली बादशाहत इनके ही हाथों में रहती है। यही कारण है कि जनता द्वारा निर्वाचित सरकार भी इनके ही भरोसे ही चलती है और अगर अफसर रूठ जाएं तो संवैधानिकसंकट जैसी नौबत आ जाती है।

दिल्ली सरकार फिलहाल इन्हीं हालात से गुजर रही है। मुख्य सचिव अंशु प्रकाश ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री आवास पर एक बैठक में उनके साथ विधायकों ने मारपीट की। अंशु प्रकाश के साथ कथित तौर पर हुई इस घटना के बाद दिल्ली सरकार के अधिकारी और कर्मचारी लामबंद हो गए हैं। मंत्रियों, नेताओं द्वारा अधिकारियों के साथ बदसलूकी के मामले पहले भी हुए हैं, लेकिन ऐसा शायद पहली बार हो रहा हो कि सरकार के खिलाफ आईएएस एसोसिएशन और सारे कर्मचारी हो गए हों और मुख्यमंत्री से माफी की मांग कर रहे हों। अंशु प्रकाश ने इस मामले की शिकायत उपराज्यपाल अनिल बैजल से की।

भाजपा और कांग्रेस ने भी फटाफट इस मामले की निंदा कर दी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो जांच हुए बिना ही कह दिया कि दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव के साथ हुए घटनाक्रम से गहरा दुख पहुंचा है, प्रशासनिक सेवाओं के लोगों को निडरता और गरिमा से काम करने देना चाहिए। बहरहाल, मुख्य सचिव की शिकायत पर आप के एक विधायक प्रकाश जरवाल को गिरफ्तार कर लिया गया है। दूसरे विधायक अमानतुल्ला खां की तलाश इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जारी है और अरविंद केजरीवाल के सलाहकार वीके जैन को हिरासत में ले लिया गया है। इधर इस पूरे घटनाक्रम पर आम आदमी पार्टी का कहना है कि यह भाजपा की साजिश है।

मीडिया में पहले खबरें थीं कि मुख्यमंत्री आवास पर विज्ञापन से उठे विवाद पर चर्चा के लिए बैठक बुलाई गई थी। आप ने इसका भी खंडन किया है और बताया है कि दिल्ली में राशन कार्ड को आधार से लिंक करने की नयी व्यवस्था कायम करने की प्रक्रिया के कारण राशन वितरण नहीं हो पाने से लोगों को हो रही परेशानी को लेकर बैठक बुलायी गयी थी। आप का कहना है कि इस बारे में मुख्यमंत्री ने अंशु प्रकाश से कुछ सवाल पूछे तो उन्होंने कहा कि उनकी जवाबदेही विधायकों या सरकार के प्रति नहीं बल्कि उपराज्यपाल के प्रति है। इस पर बैठक में मौजूद आप विधायकों ने नाराजगी जतायी लेकिन उनके साथ मारपीट का आरोप गलत है। आप का यह भी आरोप है कि अंशु प्रकाश ने अनुसूचित जाति के विधायकों के लिए जातिसूचक शब्द कह उनका अपमान किया। विधायक जरवाल और अजय दत्त ने उनके खिलाफ दिल्ली पुलिस तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में एक शिकायत भी दर्ज कराई है। आम आदमी पार्टी का यह भी कहना है कि अगर उनके साथ मारपीट हुई तो वे तुरंत पुलिस के पास क्यों नहींगए? घटना के 14 घंटे बाद उनका आईएएस संघ को बुलाकर इस तरह के आरोप लगाना उनकी मंशा पर सवाल खड़े करता है।

मुख्यमंत्री आवास पर देर रात घटी इस घटना का सच निष्पक्ष जांच के बाद ही सामने आ सकता है। लेकिन इस पर राजनीतिक लाभ लेने की जो हड़बड़ी दिखाई दे रही है, वह ज्यादा चिंताजनक है। जांच हुए बिना भी गृहमंत्री ने बयान देने की हड़बड़ी दिखाई। भाजपा और कांग्रेस को तो मानो इस प्रकरण के बहाने आम आदमी पार्टी से हिसाब चुकता करने का मौका मिल गया। आम आदमी पार्टी भी हमेशा की तरह अड़ियल रवैया ही दिखा रही है कि उसके विधायक कभी कोई गलती नहीं कर सकते और हर बात के लिए भाजपा जिम्मेदार होती है। तीन साल हो गए जब आम आदमी पार्टी को छप्पर फाड़ बहुमत के साथ दिल्ली की जनता ने दोबारा मौका दिया था।

केजरीवाल सरकार के लिए यह जीवनदान था। लेकिन अफसोस कि आम आदमी पार्टी इस जीवनदान का मान नहीं रख पाई। तीन साल में न जाने कितनी बार आप सरकार ने इस बात का रोना रोया कि केन्द्र की भाजपा सरकार उसे काम नहीं करने दे रही है। यह सही है कि मोदी लहर पर सवार भाजपा दिल्ली में बुरी तरह डूब गई और इसकी झुंझलाहट निकालने के लिए वह आप के लिए परेशानियां खड़ी करती होगी, लेकिन जनता ने अरविंद केजरीवाल के हौसले, जुझारू प्रवृत्ति को अपना समर्थन दिया था, उनके रोने को नहीं। अगर केजरीवाल हर किसी की नीयत पर सवाल खड़े करते हैं, तो कभी उन्हें अपने नेताओं के व्यवहार को भी परख लेना चाहिए। इस प्रकरण में सरकार और अफसरों में गुरूर की लड़ाई भी जुड़ गई है और कोई अपनी ऐंठ कम नहीं करना चाहेगा। लेकिन इसमें उस गरीब जनता के राशन का सवाल तो फिर हाशिए पर ही चला गया है, जिसके लिए बैठक बुलाई गई थी।