आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय 20 फ़रवरी, 2018

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नवभारत टाइम्स 

नए दौर का भरोसा

ईरान के साथ नजदीकी का खुला इजहार करके भारत ने दुनिया को जता दिया कि उसकी विदेश नीति को अमेरिका के साथ नत्थी करके न देखा जाए। हम किसी दबाव में नहीं बल्कि अपने राष्ट्रीय हितों से जुड़े व्यावहारिक पहलुओं को ध्यान में रखकर फैसले करते हैं। ईरान की पहचान अमेरिका-इजरायल के घोर विरोधी देश की है, लेकिन इन दोनों से भारत की गहरी दोस्ती के बावजूद ईरान भी हमारे लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। दूसरी तरफ ईरान का सुन्नी अरब मुल्कों से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। लेकिन अरब मुल्कों से हमारी निकटता ईरान के साथ दोस्ती में आड़े नहीं आती। ईरान भी इस बात को बखूबी समझता है। सचाई यह है कि आज दोनों देशों को एक-दूसरे की जरूरत है। सस्ते तेल और गैस के लिए भारत का पश्चिम एशिया में पांव जमाना जरूरी है। अमेरिका अब इस मामले में इधर के मुल्कों पर बहुत निर्भर नहीं रह गया है, लिहाजा तेल-गैस का सबसे स्थायी बाजार अब उन्हें भारत में ही दिख रहा है। ईरान और भारत एनर्जी सेक्टर में मिलकर बड़ी कामयाबी हासिल कर सकते हैं। भारत यात्रा पर आए ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तेल, गैस और बैंकिंग क्षेत्र में संबंधों को व्यापक बनाने को लेकर सार्थक बातचीत हुई। दोनों पक्षों ने नौ समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिनमें भारत को डेढ़ साल के लिए चाबहार बंदरगाह का एक हिस्सा लीज़ पर दिए जाने का समझौता भी शामिल है। दोनों नेताओं ने शांतिपूर्ण, स्थिर, संपन्न तथा बहुलतावादी अफगानिस्तान की जरूरत पर जोर दिया। चाबहार बंदरगाह को लेकर हुआ समझौता काफी अहम है। इसके जरिए तैयार हो रहा माल-ढुलाई का गलियारा इस क्षेत्र की भौगोलिक-आर्थिक-सामरिक स्थिति को बदल कर रख देगा। इससे भारत को मध्य एशियाई देशों तक पहुंच बनाने में काफी मदद मिलेगी। पाकिस्तान द्वारा भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक जमीनी पहुंच न बनाने देने के कारण नई दिल्ली के लिए ईरान का रास्ता ही बचता था, हालांकि इस दिशा में आगे बढ़ने में काफी वक्त लग गया। ध्यान रहे, इस पर सहमति 2003 में ही बन चुकी थी। ईरान के साथ हुए अन्य समझौतों में दोहरे कराधान से बचाव तथा वित्तीय चोरी रोकने का समझौता भी शामिल है। दोनों पक्षों ने राज​नयिक पासपोर्ट धारकों को वीजा अनिवार्यता से छूट देने तथा व्यापार बेहतरी के लिए विशेषज्ञ समूह बनाने का भी समझौता किया है। भारत ने प्रतिबद्धता जताई है कि वह चाबहार बंदरगाह से जाहिदान तक रेलवे लाइन के निर्माण में भी तेजी लाएगा। ईरान का यह शहर अफगानिस्तान से लगने वाली उसकी सीमा पर स्थित है। उम्मीद करें कि दोनों प्राचीन पड़ोसियों का रिश्ता समय बीतने के साथ और भी मजबूत होता जाएगा।


जनसत्ता 

साख पर सवाल

पीएनबी घोटाला उजागर होने के बाद से गिरफ्तारियों और छापों का सिलसिला जारी है। इस सब से जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे बैंकिंग व्यवस्था की विश्वसनीयता की पोल खोलते हैं। बैंकों में खासकर बड़े लेन-देन पर नजर रखने के लिए कई स्तरों की निगरानी व्यवस्था होती है, लिहाजा धोखाधड़ी की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। लेकिन धोखाधड़ी बस एक-बार या थोड़े-से वक्त नहीं हुई, बल्कि बहुत बार हुई और धोखाधड़ी का सिलसिला सालोंसाल चलता रहा। इसकी जद में केवल पंजाब नेशनल बैंक नहीं आया। तमाम दूसरे घोटालों की तरह इसमें भी अधिकारियों-कर्मचारियों की मिलीभगत और रिश्वतखोरी सामने आई है। सीबीआइ ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया है उनसे हुई पूछताछ से पता चलता है कि नियम-कायदों को ताक पर रख एलओयू यानी लेटर आॅफ अंडरटेकिंग जारी किए गए। एलओयू एक प्रकार का गारंटीपत्र या साखपत्र होता है, जिसके आधार पर दूसरे बैंक एलओयू धारक को कर्ज दे देते हैं, इस बिना पर कि इसे चुकाए जाने की जवाबदेही एलओयू जारी करने वाले बैंक ने ले रखी है।

नीरव मोदी को पीएनबी की मुंबई स्थित एक शाखा ने एलओयू जारी किए थे और इसी आधार पर उसने पंजाब नेशनल बैंक के अलावा सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया, देना, बैंक, बैंक आॅफ इंडिया, सिंडीकेट बैंक, ओरियंटल बैंक आॅफ कॉमर्स, यूनियन बैंक आॅफ इंडिया, आइडीबीआइ बैंक, एक्सिस बैंक और इलाहाबाद बैंक की विदेश स्थित शाखाओं से कुल हजारों करोड़ रु. के कर्ज उठा लिये। यह पैसा न लौटने पर देर-सेबर भांडा फूटना ही था। पर सवाल है कि नियम-कायदों का उल्लंघन करते हुए ढेर सारे एलओयू कैसे जारी होते रहे? पकड़ में क्यों नहीं आया कि कुछ गलत हो रहा है? एलओयू को बैंक बुक में यानी बैंक के कोर बैंकिंग सिस्टम में दर्ज होना चाहिए था, पर कर्मचारियों ने ऐसा नहीं किया। एक ही कर्मचारी स्विफ्ट आॅपरेशन सिस्टम की जिम्मेदारी लगातार सात साल तक कैसे संभालता रहा?

एलओयू की राशि के आधार पर रिश्वत का फीसद तय था। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि बैंक के आॅडिट में भी कुछ गलत नहीं पाया गया। बैंकों की आंतरिक निगरानी प्रणाली के खोखलेपन का इससे बड़ा प्रमाण और इससे बड़ा चिंताजनक पहलू और क्या होगा? घोटाले का आकार वही बताया जा रहा है जो एलओयू के जरिए नीरव मोदी ने विभिन्न बैंकों से कर्ज उठाए। पर नुकसान का दायरा धोखाधड़ी की भेंट चढ़ी रकम से बहुत ज्यादा है। पीएनबी के शेयरों के ढह जाने और दूसरे कई बैंकों के भी शेयरों के नीचे आने से निवेशकों को कुल हजारों करोड़ रु. की चपत लगी है। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी बीमा कंपनी एलआइसी को भी खासा झटका लगा है, जिसकी पीएनबी में करीब चौदह फीसद, यूनियन बैंक आॅफ इंडिया और इलाहाबाद बैंक में करीब तेरह-तेरह फीसद और गीताजंलि जेम्स में करीब तीन फीसद हिस्सेदारी है।

मुखौटा कंपनियों का खेल खत्म हो जाने के दावे किए जा रहे थे। पर नीरव मोदी और साझेदार मेहुल चोकसी के ठिकानों पर रविवार को हुई छापेमारी में दोनों आरोपियों की दो सौ से ज्यादा मुखौटा कंपनियों के बारे में दस्तावेज जांच एजेंसियों के हाथ लगे हैं। और भी सबूत मिलने तथा और भी राज उजागर होने का सिलसिला अभी चलता रहेगा। पर सवाल है कि विश्वसनीयता को जो नुकसान पहुंचा है, क्या बैंक जल्दी उससे उबर पाएंगे? इस बीच निजी क्षेत्र के सिटी यूनियन बैंक में भी करोड़ों की धोखाधड़ी का मामला सामने आ गया। क्या ऐसी ही बैंकिंग व्यवस्था के बल पर भारत दुनिया के सामने अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती का दावा करेगा? यह घोटाला ऐसे वक्त सामने आया है जब सरकारी बैंकों पर एनपीए का बोझ रिकार्ड स्तर पर पहुंच चुका है।


अमर उजाला
दोस्ती का नया फलक
ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी की तीन दिन की भारत यात्रा का सार दोनों देशों के रिश्तों में आई मजबूती के रूप में सामने है, जिसमें दोनों पक्षों के लिए संभावनाओं के नए फलक खुल रहे हैं। रूहानी की भारत यात्रा ऐसे समय हुई, जब वह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों ही मोर्चों पर जूझ रहे हैं। घरेलू मोर्चे पर जहां उन्हें महंगाई और बेरोजगारी जैसे कारणों से लोगों की नाराजगी और प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा है, वहीं अमेरिका, इस्राइल और सऊदी अरब सहित खाड़ी के अन्य देशों के साथ ईरान के रिश्ते बेहद तल्ख हो चुके हैं। जाहिर है, ऐसे परिदृश्य में भारत के साथ रिश्ते से उसे बड़ा भरोसा मिला है, जिसकी झलक प्रधानमंत्री मोदी और ईरानी राष्ट्रपति रूहानी के बीच हुई बातचीत और दोनों पक्षों के बीच हुए समझौतों में साफ देखी जा सकती है। इनमें प्रत्यर्पण संधि और दोहरे कराधान पर रोक से संबंधित समझौते भी शामिल हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि करीब एक दशक बाद किसी ईरानी राष्ट्रपति की भारत यात्रा हुई है। दूसरी ओर भारत के लिए ईरान का ऐतिहासिक महत्व तो है ही, भौगोलिक-आर्थिक-रणनीतिक दृष्टि से भी उसकी अहमियत समझी जा सकती है। वास्तव में चाबहार बंदरगाह ईरान के लिए जितना अहम है, उतना हमारे लिए भी, जिसके जरिये भारत की पहुंच अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक हो गई है। भारत वहां भारी निवेश कर रहा है, जिसका फायदा दोनों देशों को होना है। खास बात यह है कि भारत वहां रुपये में निवेश कर सकेगा, इसका मतलब यह हुआ कि यदि ईरान पर और अधिक अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध थोपे भी जाते हैं, तो इससे वहां भारत के निवेश पर फर्क नहीं पड़ेगा । चाबहार पर बात 2003 में शुरू हुई थी, जो अब जाकर अंजाम पर पहुंच रही है। वास्तव में चाबहार का संचालन जब पूरी तरह से शुरू हो जाएगा, तब वह पाकिस्तान के क्षेत्रीय प्रभाव को निष्प्रभावी कर देगा, जो कि भारत को अपने रास्ते से अफगानिस्तान तक माल भेजने की इजाजत नहीं देता। इसके अलावा एक अहम पहलू यह भी है कि भारत और ईरान, दोनों ही इस तरह से अफगानिस्तान का विश्वास जीतने में भी सफल हो रहे हैं। मोदी और रूहानी, दोनों ने ही अफगानिस्तान में अमन को अपनी प्राथमिकता में रखा है, इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि ईरान भी वहाबी कट्टरपंथ और आतंकवाद से लड़ रहा है।

हिंदुस्तान 

वैकल्पिक रास्ता

ऊपरी तौर पर यह योजना बहुत महाकाय भी लगती है और हैरत में डालने वाली भी, लेकिन चीन की बेल्ट ऐंड रोड इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना, जिसे कई बार वन बेल्ट, वन रोड परियोजना भी कहा जाता रहा है, विवादों से कभी दूर नहीं रही। हालांकि चीन ने इसे लेकर पूरी दुनिया को, खासकर यूरोप, एशिया और अफ्रीका के देशों को बहुत से सब्जबाग भी दिखाए हैं। चीन इसके नाम पर उस पुराने सिल्क रूट को फिर से जीवित करने की बात करता है, जिससे सदियों पहले चीन से रेशम पूरी दुनिया, खासकर यूरोप में पहुंचता था। चीन इसको आधुनिक रूप देना चाहता है, ताकि दुनिया भर के देश आपस में आसानी से व्यापार कर सकें। पर इसे लेकर चीन की नीयत पर शक हमेशा से रहा है। यह माना जाता है कि पश्चिम की पिछली मंदी से चीन की अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा था, चीन अब वैसी स्थिति से निपटने के लिए एक पक्की व्यवस्था चाहता है, ताकि वह पश्चिम पर निर्भरता कम करके दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देशों में अपना माल खपा सके। खासकर एशिया, यूरेशिया और अफ्रीका के उन देशों में, जो अभी ज्यादा विकसित नहीं हैं। ज्यादा आपत्तिजनक यह है कि इसके नाम पर वह दुनिया में राजनीतिक आधिपत्य चाहता है। यह परियोजना उसे वह ढांचा दे देगी, जिससे वह जरूरत पड़ने पर कहीं भी हस्तक्षेप कर सके। भारत ने इसीलिए इस परियोजना का लगातार विरोध किया है।

चीन की इस नीयत को हम उस सड़क से समझ सकते हैं, जिसे चाइना-पाकिस्तान कॉरीडोर का नाम दिया गया है। इसे बेल्ट ऐंड रोड परियोजना का पहला हिस्सा भी माना जाता है। चीन से पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक जाने वाली यह सड़क कश्मीर के उस हिस्से से निकलती है, जो पाकिस्तान के कब्जे में है। चीन ने इसके लिए न तो भारत की भावनाओं और न ही कश्मीर पर उसके  दावे का कोई ख्याल ही रखा। हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ। उसके पहले भी चीन उस क्षेत्र में काराकोरम मार्ग बना चुका है। फिर पिछले दिनों चीन ने जिस तरह से भूटान के नाथुला तक सड़क बनाने की कोशिश की, वह बताता है कि चीन उन तमाम जगहों पर अपनी पहुंच बना रहा है, जो भारत के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। पाकिस्तान ही नहीं, भारत को चारों ओर से घेरने के लिए चीन नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और मालदीव आदि देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर अपने केंद्र बना रहा है। पर इस सब का भारत के पास विकल्प क्या है? अच्छी बात यह है कि एक विकल्प अब उभर रहा है।

अब भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया मिलकर बेल्ट ऐंड रोड का एक नया विकल्प देने की तैयारी कर रहे हैं। यह सच है कि चीन की बेल्ट ऐंड रोड परियोजना का आर्थिक तर्क काफी मजबूत है। नए दौर में दुनिया को एक ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है, जो तमाम देशों को आपस में जोडे़। ऐसी रिपोर्ट आ रही हैं कि ये चारों देश एक नया विकल्प देने को सहमत हो गए हैं। एशिया, अफ्रीका और यूरोप के ऐसे बहुत से देश हैं, जिन्हें ऐसी किसी परियोजना की जरूरत है, लेकिन वे चीन पर भरोसा नहीं करते। इनमें कई तो ऐसे हैं, जो पिछले काफी समय से चीन की दादागिरी के शिकार रहे हैं। इन सबके लिए यह विकल्प एक अच्छी खबर हो सकता है। इसलिए भी कि इस पर किसी एक देश का आधिपत्य नहीं, बल्कि चार देशों का सहयोग होगा।


दैनिक भास्कर

कर्मचारियों के फर्जी आंकड़ों से पीछा छुड़ाता रेल विभाग

अपने कर्मचारियों पर लंबे समय तक यकीन करने के बाद आखिरकार रेलवे ने भी डिजिटल दुनिया और उनंके आंकड़ो को ज्यादा विश्वसनीय मानने का फैसला किया है। इसके पीछे रेलवे के कर्मचारियों की हानिकारक चालाकियां हो सकती हैं या आंकड़ो की बढ़ती विश्वसनीयता। किंतु सच्चाई यह कि जब से रेलवे को पता चला है कि उनके कर्मचारी रेलवे की मशीनों और उपकरणों में होने वाली गड़बड़ियों के बारे में जानकारियां छुपा रहे हैं तबसे रेल प्रशासन ने यह व्यवस्था कर दी है। अब कोई भी अधिकारी अपने पुराने आंकड़ों का संपादन नहीं कर सकेगा। अब निरंतर नए आंकड़े डाले जाएंगे और यह भी स्वचालित प्रणाली से डाले जाएंगे ताकि ट्रेनों के समय और गति की सही जानकारी रखी जा सके। रेलवे की केंद्रीय नियंत्रण व्यवस्था को यह जानकारी तात्कालिक तौर पर होना चाहिए कि कहां इंजन खराब हो रहा है, कहां ट्रेक खराब है और ट्रेन किस जोन से किस जोन में प्रवेश कर रही है। रेलवे ने जनवरी के मध्य से यह व्यवस्था शुरू कर दी है और अब कंट्रोल ऑफिस अप्लीकेशन में मैनुअल तरीके से डाले जाने वाले सिर्फ 10 से 20 प्रतिशत रह गये हैं। प्रशासन के पास यह शिकायत आ रही थी कि कर्मचारी ज्यादा दक्षता का प्रदर्शन करने के लिए तमाम अक्षमताओं को छुपा रहे हैं। मौजूदा व्यवस्था इस बात का संकेत है कि आरंभ में कर्मचारियों पर अतिरिक्त विशवास जताने वाले रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अश्वनी लोहानी को कहीं निराश होना पड़ा है। उन्होंने शुरू में यह भी कहा था कि प्रोद्योगिकी तभी भरोसे के साथ चल सकती है जब हमारे कर्मचारी भरोसे के होंगे। रेलवे जैसे बड़े संगठन में कर्मचारियों के प्रति जगाया गया यह शुरूआती विश्वास जहां उत्साहवर्धक था वहीँ फर्जी आंकड़े भरने और उनसे अधिकार लेकर मशीनों का जिम्मा सौंपा जाना कहीं निराश भी करता है। यह  भारतीय कार्यशैली और उसकी दक्षता पर एक टिप्पणी है। हमारे प्रधानमंत्री ने हाल में दावोस में डाटा को सबसे महत्वपूर्ण और ताकत वस्तु बताया था। ऐसे में रेलवे का यह परिवर्तन स्वागत योग्य है लेकिन इसी को आधार बनाकर कर्मचारी में सुधार की आवश्यकता भी बनती है। आशा है विवेकानंद और गीता में भरोसा करने वाले लोहानी जी मनुष्य की बुनियादी ईमानदारी में विश्वास बनाए रखेंगे।


राजस्थान पत्रिका
सईद से डरे अब्बासी!
पाकिस्तान की हुकूमत आतंकवाद के सामने नतमस्तक हो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंककारी घोषित लोगों के खिलाफ कार्रवाई से मुकर रही है। आतंकी हाफिज सईद पर किसी भी कार्रवाई से पाक सरकार ने इंकार कर दिया है। प्रधानमंत्री शाहिद खक्कन अब्बासी ने हाफिज सईद और उसके संगठनों जमात उद्-दावा तथा फलाह-ए-इंसानियत के खिलाफ कोई भी फैसला नहीं करने की घोषणा की है। ये वही अब्बासी हैं जिन्होंने एक सप्ताह पूर्व ही एलान किया था कि सईद के पाकिस्तान स्थित जमात-उद्-दावा और फलाह-ए-इंसानियत को प्रतिबंधित किया जा रहा है। अब वे साफ मुकर गए। पाक सरकार को डर है कि सईद के खिलाफ कार्रवाई से राजनीतिक संकट खड़ा हो सकता है। पाकिस्तान आतंककारियों की पनाहगार है, यह बात अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी कह चुके हैं। लश्कर-ए-तैयबा के सरगना सईद को 2014 में अमेरिका अन्तरराष्ट्रीय आतंककारी और उस पर 2012 में एक करोड़ डॉलर का ईनाम घोषित कर चुका है। अब्बासी के नए बयान बताता है कि वे आतंक के खौफ के सामने अन्तरराष्ट्रीय दबाव को दरकिनार कर चुके हैं। भारत के सबूतों को वे नहीं मानते। उन्होंने भारत को सलाह दी है कि यदि सईद के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं तो वह अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला चलाए। पाक सरकार को पता है कि यदि सईद जैसे आतंकियों के खिलाफ कोई भी कदम उठाते हैं तो अशांति फैलने के साथ सरकार खतरे में पड़ सकती है। चीन भी कश्मीर में भारत को उलझाने के लिए सईद जैसे आतंकी सरगनाओं की अन्तरराष्ट्रीय मंच पर तरफदारी कर चुका है। अब्बासी की घोषणा के बाद भारत को और सतर्क तथा आक्रामक होना होगा। पाक के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीय दबाव भी तैयार करना होगा। अब यदि कश्मीर पर सीमा पार से कोई घुसपैठ या आतंकी हमला होता है तो उसका कड़ा प्रतिकार करना होगा। भले ही हमारी सेनाओं को निर्णायक कदम के लिए सीमा ही पार क्यों न करनी पड़े। आतंक परस्तों को जब तक सख्त सबक नहीं सिखाया जाएगा वे सुधरेंगे नहीं।

दैनिक जागरण
जीएसटी में फेर बदल
जीएसटी से संबंधित नियम-कानूनों में फेरबदल करने की तैयारी कारोबारियों के लिए राहत की खबर है। चूंकि करीब चार दर्जन संशोधन संभावित हैं इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि इसके बाद कारोबारियों की समस्या का समाधान होगा, लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि शायद कुछ नियम-कानूनों का निर्माण जल्दबाजी में किया गया या फिर उनके संभावित नतीजों के बारे में सही ढंग से आकलन नहीं किया गया। जो भी हो, कम से कम अब तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि संभावित संशोधनों के बाद फिर नए सिरे से फेरबदल की जरूरत न उभर आए और अन्य प्रकार की जटिलताएं सामने न आने पाएं। यह सुनिश्चित करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कानूनों में संशोधनों पर संसद की मंजूरी चाहिए होगी और यह आसान काम नहीं है। बेहतर होगा कि जीएसटी परिषद नियम-कानूनों में संभावित संशोधन के मसौदे को अंतिम रूप देने से पहले कारोबार जगत के लोगों से व्यापक सलाह-मशविरा करें। यह सही है कि जीएसटी टैक्स ढांचे में आमूल-चूल बदलाव लाने वाला एक नया कानून था और सारे देश में उस पर अमल करना आसान काम नहीं था, लेकिन अब जब इस कानून को लागू हुए आठ माह होने वाले हैं तब फिर यह देखा ही जाना चाहिए कि कारोबारी नियम-कानूनों की जटिलता से परेशान न हों। कम से कम यह तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि कारोबारियों को जीएसटी नेटवर्क की सुस्ती परेशान करती रहे। आखिर यह कैसा नेटवर्क है जो आठ माह बाद भी पटरी पर आने का नाम नहीं ले रहा है?
जीएसटी नेटवर्क की खामी ने शासन की तकनीकी दक्षता के साथ ही प्रशासनिक क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न लगाने का काम किया है। दुर्भाग्य से यही काम जीएसटी के तहत बने ईवे बिल सिस्टम ने भी किया है। ईवे बिल सिस्टम को स्थगित करना पड़ा तो इसलिए, क्योंकि उसका तकनीकी सिस्टम लाखों बिल तैयार करने में सक्षम नहीं था। यदि किसी को तकनीकी खामियों के लिए जिम्मेदार नहीं बनाया जाता तो आगे भी संकट खड़े हो सकते हैं और उनकी आड़ में वे कारोबारी जीएसटी को कोसने का काम करते रह सकते हैं जो टैक्स बचाने की जुगत में रहते हैं। ऐसे कारोबारियों को तभी हतोत्साहित किया जा सकता है जब जीएसटी संबंधी प्रक्रियाएं और तकनीकी सिस्टम सही तरह संचालित होने लगे। जीएसटी का पूरा तंत्र ऐसा होना चाहिए जिससे एक ओर जहां टैक्स चोरी रुके वहीं दूसरी ओर कारोबार करने में आसानी भी हो। ऐसा होने पर ही वांछित राजस्व हासिल हो सकता है। सरकार और साथ ही जीएसटी परिषद को यह समझना होगा कि अब इस तर्क के लिए गुंजाइश नहीं रह गई है कि नई व्यवस्था में प्रारंभ में कुछ समस्या आती ही है। कारोबार जगत के बीच से ऐसे स्वर उभरना ठीक नहीं कि जीएसटी ने अनावश्यक अड़चनें पैदा कर दी हैं। अब जब जीएसटी कानूनों में व्यापक संशोधन की तैयारी हो रही है तो फिर उचित यह होगा कि टैक्स दरों में फेरबदल को भी अंतिम रूप दिया जाए। इसके अलावा पेट्रोलियम पदार्थों और शराब के साथ रियल एस्टेट को भी जीएसटी के दायरे में लाने पर आम सहमति कायम की जाए।

प्रभात खबर
बदहाल बैंकिंग व्यवस्था
धन हाथ से निकल जाये, तो चिंता स्वाभाविक है, पर यह भरोसा भी रहता है कि व्यवस्था ठीक रही, तो मेहनत से पूंजी कमा ली जायेगी. व्यवस्था का संगत बना रहना बहुत कुछ निगरानी के इंतजाम पर निर्भर करता है. निगरानी दुरुस्त हो, तो व्यवस्था पर लोगों का विश्वास कायम रहता है. लेकिन निगरानी और अंकुश का तंत्र ही कमजोर हो, तब? सरकारी बैंकों पर बढ़ते बैड लोन के बोझ, बड़े-बड़े फर्जीवाड़े के सिलसिले, लगातार घाटे और कार्रवाई की नाकामियों के बीच एक अहम सवाल यह भी है. देश की बैंकिंग व्यवस्था की बदहाली साफ दिखने लगी है. सूचना के अधिकार के तहत दाखिल एक अर्जी के जवाब में रिजर्व बैंक ने जानकारी दी है कि सरकारी और निजी बैंकों ने आपसी सहमति से बीते साढ़े पांच सालों (2012-13 से 2017 के सितंबर तक) में 3.67 लाख करोड़ की पूंजी को राइट ऑफ (डूबी पूंजी के रूप में चिह्नित) किया. ऐसा करनेवाले 27 सरकारी बैंक और 22 निजी क्षेत्र के बैंक. इस श्रेणी की रकम लगातार बढ़ी है. साल 2012-13 में यह लगभग 32 हजार करोड़ रुपये थी, तो 2016-17 में करीब 1.03 लाख करोड़ रुपये. जहां तक सरकारी बैंकों का सवाल है, उन्होंने मान लिया है कि डूबत की रकम चाहे जितनी हो, संकट के मौके पर सरकार आगे आकर विपदा से छुटकारा दिलायेगी. सरकारी खजाने से बीते 11 सालों में सरकारी बैंकों को 2.6 लाख रुपये की सहायता हासिल हुई. पिछले साल अक्तूबर में सरकार ने कहा कि वह अगले दो सालों में सरकारी बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये का निवेश करेगी, ताकि सरकारी बैंक अपने घटते मुनाफे की चिंता से उबरें और नये कर्ज देने का साहस जुटा पाएं. साल 2015 में भी सरकारी बैंकों में निवेश की ऐसी घोषणा हुई थी. लेकिन सरकारी बैंकों का शीर्ष प्रबंधन अपना मुनाफा बढ़ाने या फिर डूबी पूंजी की वसूली के लिए नहीं चेत पाया, नतीजतन बैड लोन का बोझ बढ़ता गया.साल 2017 के सितंबर महीने तक सरकारी बैंकों का एनपीए बढ़कर 7.34 लाख करोड़ पहुंच चुका था. हाल में भारतीय स्टेट बैंक ने 20,339 करोड़ रुपये के फंसे कर्ज को बट्टा खाते में डाला. सरकारी बैंकों के लिहाज से बट्टे खाते में डाली जानेवाली यह सबसे बड़ी राशि है. बीते वित्त वर्ष (2016-17) में बैंकों के बट्टे खाते में 81,683 करोड़ रुपये की राशि डाली गयी. साल 2012-13 को आधार वर्ष मानें, तो पांच सालों में सरकारी बैंकों में बट्टा खाते में डाली गई रकम में तीन गुना इजाफा हुआ है. अगर बैंकिंग व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए निगरानी और अंकुश के कारगर इंतजाम नहीं किए जाते हैं, तो सबसे बड़ा घाटा लोगों के विश्वास का होगा. बैंक वित्त व्यवस्था के मेरुदंड होते हैं और वित्त व्यवस्था देश की आर्थिक गतिविधियों की धुरी. ऐसे में लोगों का भरोसा डिग जाये, तो अर्थव्यवस्था को किसी भी वक्त संकट घेर सकता है.

देशबन्धु

शिवाजी को कैसे याद करें

हिंदुस्तान के लोकप्रिय राजाओं में छत्रपति शिवाजी का नाम महत्वपूर्ण है। वे भारतीय इतिहास के वैसे ही अमिट नायक हैं, जैसे अशोक या अकबर। अक्सर यह कहा जाता है कि इतिहास विजेताओं की कहानी होता है। लेकिन जब बाद की पीढ़ी इतिहास पढ़ती है, तो वह यह आकलन भी करती है कि किस शासक ने किस तरह का प्रशासन दिया।
शायद इसलिए अशोक और अकबर को सदियों बाद भी याद किया जाता है। शिवाजी भी एक महान योद्धा थे, जिन्होंने अपने दम पर सेना खड़ी की, युद्ध की नई शैली विकसित की और अपनी वीरता से मुगलों को अचंभित कर दिया। उन्हें इतिहास में एक कुशल रणनीतिकार, योद्धा और प्रशासक के रूप में याद किया जाना चाहिए। लेकिन उनकी इन खूबियों से ज्यादा उन्हें मुस्लिम विरोधी या हिंदू हृदय सम्राट की बताकर याद किया जाता है। आज उनके नाम पर राजनीति करने वाले भी धर्म के चश्मे से ही उन्हें देखते हैं और बार-बार शिवाजी को विवादों में डालते हैं। हाल ही में अहमदनगर में डिप्टी मेयर और भाजपा नेता श्रीपाद छिंदम पर आरोप लगा कि उन्होंने शिवाजी के बारे में अमर्यादित टिप्पणी कर दी, जिसके बाद अहमदनगर समेत महाराष्ट्र के कई शहरों में हिंसक विरोध-प्रदर्शन हुआ। बताया जा रहा है कि श्रीपाद छिंदम ने नगर निगम के कर्मचारी अशोक बिड़वे को फोन करके वार्ड के कुछ अधूरे कामों के बारे में पूछताछ की थी, जिस पर अशोक बिड़वे का जवाब था कि शिवाजी जयंती के बाद वे काम पूरा करने के लिए आदमी भेजेंगे।

आरोप है कि श्रीपाद छिंदम ने ग़ुस्से में आकर शिवाजी जयंती के बारे में अमर्यादित टिप्पणी कर दी थी। बिड़वे ने इस बातचीत की शिकायत कामगार यूनियन से कर दी। कुछ ही देर में इस बातचीत की क्लिप सोशल मीडिया में वायरल हो गई और विवाद खड़ा हो गया। छत्रपति प्रतिष्ठान और संभाजी ब्रिगेड के कार्यकर्ताओं ने छिंदम के दफ़्तर और घर पर हमला कर दिया। शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी छिंदम के खिलाफ प्रदर्शन किए। इस बीच छिंदम ने माफीनामा भी जारी किया कि मैंने कुछ गलत शब्द कहे, मैं पूरे महाराष्ट्र से माफी मांगता हूें, समाज मुझे माफ करेगा ऐसी अपेक्षा करता हूं। लेकिन छिंदम का माफीनामा लोगों की भावनाएं शांत करने में नाकाम ही रहा और तनाव बरकरार रहा। इस बीच विवाद बढ़ता देख भाजपा सांसद दिलीप गांधी ने छिंदम को पार्टी से निकाले जाने की घोषणा की।

छिंदम पर सरकारी काम में बाधा डालने और धार्मिक भावनाएं आहत करने के आरोप पर उन्हें गिरफ्तार किया गया है और अदालत ने उन्हें एक मार्च तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। इस पूरी घटना में आरोपी भाजपा का था, शायद इसलिए मामला जल्द संभाल लिया गया। अगर कांग्रेस या अन्य किसी भाजपा विरोधी दल के नेता पर विवादित टिप्पणी करने का आरोप लगता तो यह विवाद कहां तक जाता, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

बीते कुछ समय में महाराष्ट्र में धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर तनाव भड़काने का खेल जनता ने खूब देखा है। यह विडंबना ही है कि एक ओर हम इतिहास के नायकों को याद करते हैं, उन्हें अपना आदर्श बताते हैं, लेकिन उनके आदर्शों से कोई सबक नहीं लेते। आज शिवाजी जयंती पर भी देश के कई हिस्सों में उन्हें श्रद्धांजलियां दी गईं, कार्यक्रम किए गए। बेहतर हो कि हम यह भी याद कर लें कि शिवाजी भले हिंदू थे, लेकिन वे मुस्लिम विरोधी नहीं थे। न ही वे अपने शासन में धर्म के आधार पर प्रजा से भेदभाव करते थे। इतिहास में ऐसे कई प्रकरण दर्ज हैं, जो यह बताते हैं कि शिवाजी मुस्लिमों को साथ लेकर चलते थे, उन पर भरोसा भी करते थे। शिवाजी ने औरंगजेब के साथ कई लड़ाइयां लड़ीं। औरंगजेब की सेना का नेतृत्व करने वाले राजपूत राजा जयसिंह के हाथों में था। जबकि शिवाजी की थलसेना और जलसेना में एक तिहाई मुस्लिम सैनिक थे। उनकी नौसेना की कमान मुसलमान सिद्दी संबल के हाथों में थी। जब शिवाजी आगरा के किले में नजरबंद थे तब कैद से निकल भागने में जिन दो व्यक्तियों ने उनकी मदद की थी उनमें से एक मुसलमान थे।