क्या बिहार के लिए अब सामाजिक न्याय मायने नहीं रखता?


नीतीश जी ने जब देखा कि मौजूदा विधानसभा चुनाव में बीजेपी उन्हीं के जड़ में मठ्ठा डाल रही है, तो उन्होंने वाल्मीकि नगर की अपनी एक रैली में समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर रिजर्वेशन देने की बात कह डाली। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में जाति आधारित जनगणना है। यदि सरकार जाति आधारित जनगणना करवाती है, तो वे बतौर मुख्यमंत्री बिहार में जनसंख्या के आधार पर आरक्षण देंगे। माना जा रहा है कि इस तरह से उन्होंने आरक्षण विरोधी रही बीजेपी को ही घेर लिया।


मीडिया विजिल मीडिया विजिल
ओप-एड Published On :



नीरज कुमार

 

1990 से या मंडल कमीशन के आने के बाद बिहार का प्रत्येक विधानसभा चुनाव सामाजिक न्याय के मुद्दों पर लड़ा गया। यही कारण रहा है कि भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए में जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू साथ रहते हुए भी नेतृत्व हमेशा नीतीश जी के हाथों रही हैं और मुद्दा वे ही तय करते रहे हैं। इधर शतरंज की बिसात पर सामाजिक न्याय होता और जदयू और राजद में कौन ज्यादा सामाजिक न्याय करेगा, उसकी लड़ाई चलती और पूरा चुनाव इसी पर केन्द्रित होता।

लेकिन 2015 का बिहार चुनाव जिसमें दोनों सामाजिक न्याय आन्दोलन के नेता साथ आ गए और नीतीश जी के नेतृत्व में लालू जी ने महागठबंधन बनाया। उसी समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण विरोधी बयान देकर चुनाव का पूरा समीकरण बदल दिया। तो इधर लालू जी ने सामाजिक न्याय के नारों के साथ पूरे चुनाव में मोदी लहर की हवा निकाल दी। महागठबंधन की सरकार बनते ही नीतीश जी ने मार्च 2016 में दो बड़े फैसले लिये। जिसमें पहला था- बिहार की हर नौकरी में महिलाओं को 35% क्षैतिज आरक्षण और ओबीसी की महिलाओं को 3% वर्टीकल आरक्षण देना और दूसरा फैसला- शिक्षक भर्ती में महिलाओं के लिए 50% सीट आरक्षित कर देना।

1990 के बाद 2020 का यह पहला बिहार विधानसभा चुनाव है, जिसमें सामाजिक न्याय मुद्दा नहीं है। जबकि इसी धरती पर सामाजिक न्याय की बड़ी लड़ाईयाँ लड़ी गयीं हैं। बिहार लेनिन जगदेव बाबू ने नारा दिया था, “100 में 90 शोषित हैं। 90 भाग हमारा है।” उनके इस नारे के साथ ही सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी गयी। उनका एक और नारा था- “इस लड़ाई में पहली पीढ़ी  के लोग मारे जाएंगे, दूसरी पीढ़ी जेल जाएगी और तीसरी पीढ़ी राज करेगी” – जो सामाजिक न्याय के योद्धा के लिए हमेशा सबक का काम किया है। बिहार में सामजिक न्याय की लड़ाई इतने हाबी थी कि कथित उच्च जाति के लोगों ने प्रतिक्रिया में अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे लोगों के साथ कई जातीय नरसंहार किया। कितने ही दलितों और पिछड़ों को मार दिया गया। 1978 में जनता पार्टी के टिकट पर बिक्रमगंज के सांसद रहे राम अवधेश बाबू ने मंडल कमीशन बैठाने की माँग के क्रम में लोकसभा में रामचरित मानस जलाया था। उस समय लोकसभा में पिछड़ी जाति से केवल 3 सांसद थे। बाद में राम अवधेश बाबू जब राज्यसभा सांसद बने तो मंडल की संस्तुतियों को लागू करवाने के लिए भी आमरण अनशन पर बैठ गए। इसके बाद 2004 में जब UPA सत्ता में आई तो राम अवधेश बाबू को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य बनाया गया। बिहार में ही दरोगा राय और कर्पूरी बाबू ने मुंगेरी लाल आयोग बैठाकर उसकी संस्तुतियों को लागू कर पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की शुरुआत की। इस प्रकार बिहार में सामाजिक न्याय की एक लंबी लड़ाई लड़ी गयी है।

बिहार का यह विधानसभा चुनाव सार्वजनिक रोजगार, सस्ती और व्यवस्थित शिक्षा और निजीकरण के खिलाफ लड़ा जा रहा है। भारत और बिहार की हालिया राजनीति में ये शुभ संकेत है। लेकिन इन मुद्दों के साथ-साथ बिहार के मौजूदा चुनाव का मुख्य मुद्दा होना था- जाति आधारित जनगणना क्योंकि 2021 जनगणना का वर्ष है और मंडल कमीशन से लेकर माननीय सुप्रीम कोर्ट तक ने जाति आधारित जनगणना की बात की है। निजी क्षेत्र में आरक्षण का भी सवाल है क्योंकि जिस तरह से सरकारी संस्थानों को बेंचा जा रहा और सार्वजनिक नौकरियों को खत्म किया जा रहा, उसमें निजी क्षेत्र में आरक्षण एक बहुत ही अहम माँग होना चाहिए। इसके साथ ही, समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर आरक्षण आंदोलन अर्थात जनसंख्या के आधार पर आरक्षण को चुनावी मुद्दा बनाना चाहिए था।

नीतीश जी ने जब देखा कि मौजूदा विधानसभा चुनाव में बीजेपी उन्हीं के जड़ में मठ्ठा डाल रही है, तो उन्होंने वाल्मीकि नगर की अपनी एक रैली में समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर रिजर्वेशन देने की बात कह डाली। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में जाति आधारित जनगणना है। यदि सरकार जाति आधारित जनगणना करवाती है, तो वे बतौर मुख्यमंत्री बिहार में जनसंख्या के आधार पर आरक्षण देंगे। माना जा रहा है कि इस तरह से उन्होंने आरक्षण विरोधी रही बीजेपी को ही घेर लिया।

लालू जी का बिहार चुनाव के मंच पर होना ही यह तय करता था कि सामाजिक न्याय ही बिहार में आर्थिक न्याय का रास्ता तय करेगा। लेकिन यह पहली बार हो रहा है कि राज्य के विधानसभा चुनाव में वे अनुपस्थित है। यही कारण है कि इस चुनाव में सामाजिक न्याय एक अहम मुद्दा नहीं बन पाया। हालाँकि ये काबिलेतारीफ है कि बिहार चुनाव में महागठबंधन ने एजेंडा खुद तय किया। जहाँ हर चुनाव का एजेंडा संघ और भाजपा तय करते रहे हैं और साम्प्रदायिकता के पिच पर खेलते थे, वहीं इस बार चारों खाने चित नज़र आ रहे हैं। न चाहते हुए भी रोजगार के मुद्दों पर आना पड़ा। हालाँकि मज्जेदार यह है कि इस विषय पर बात करने के लिए उनके पास कुछ है ही नहीं।

बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई को हटाकर कोई भी चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। ग्राउंड से जितनी भी रिपोर्ट आ रही है, एक चीज़ बहुत ज्यादा देखने और सुनने को मिलेगी कि लालू जी ने लोगों को इज़्ज़त से जीने का अधिकार सुनिश्चित किया। अगर जनता लालू जी को वोट करती हैं तो वह महज़ उनके सामाजिक न्याय की लड़ाई को लेकर। लेकिन फिर भी इस चुनाव में चुनावी मुद्दा के रूप में सामाजिक न्याय का नहीं होना, थोड़ा खलता है। आखिर क्यों इस चुनाव में सामाजिक न्याय को दर-किनार कर दिया गया है, जबकि 2021 में फिर दस साल का आंकड़ा आएगा और उसमें फिर से जाति के आँकड़े को शामिल नहीं किया जाएगा! इसके बावजूद कि मुख्यमंत्री से लेकर नेता-प्रतिपक्ष तक विधानसभा में जातीय जनगणना और उसके अनुसार आरक्षण की बात करते रहे हैं।

 

नीरज, दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय के छात्र हैं।  ईमेल –   yadav.neeraj397@gmail.com

 


Related