G-7: बेल्ट एंड रोड का जवाब एक नए शीतयुद्ध से!


हालांकि हमारे लिए यह सोचने को रह जाता है कि अमीर मुल्कों को इस सत्कार्य से अबतक किसने रोक रखा था? उनकी कंपनियां इधर का रुख करतीं तो आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से कर्ज लेना भी आसान हो जाता। एक अर्से से हम देख रहे हैं कि अमेरिका समेत सारे विकसित देशों की कंपनियां मैन्युफैक्चरिंग और कॉन्स्ट्रक्शन के क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीय सीमा से बाहर कदम नहीं रखना चाहतीं। बल्कि भूमंडलीकरण के दौर में अपनी सीमा के भीतर भी उनकी हालत दिनोंदिन खस्ता ही होती गई है। विकसित देशों की अतिरिक्त पूंजी मोटे कामों में लगकर हाथ गंदे करने के बजाय या तो बैंकिंग-बीमा जैसे सेक्टरों में लगकर उभरते देशों की तरफ जाती है, या फिर असेट मैनेजमेंट कंपनियों के जरिये इस तरफ के शेयर बाजारों में सुविधानुसार आती-जाती रहती है।


चंद्रभूषण चंद्रभूषण
ओप-एड Published On :


सात अमीर मुल्कों के गुट जी-7 के जमावड़े को एक अर्से से मौज-मस्ती की ही नजर से देखा जाता रहा है। दुनिया के बड़े नीतिगत रुझान पिछले कई वर्षों से जी-7 के बजाय जी-20 में तय होते आए हैं। उसका दायरा बड़ा है और 2008 की मंदी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद कम से कम आर्थिक मामलों में उसकी भूमिका धरती की धुरी जैसी हो गई है। लेकिन इस बार सबका ध्यान ब्रिटेन में आयोजित जी-7 शिखर बैठक पर लगा था तो इसकी दो वजहें थीं। एक तो यही कि कोरोना महामारी का प्रकोप शुरू होने के बाद दुनिया के कुछ बड़े राजनेताओं के सशरीर एक जगह बैठने की यह पहली घटना थी और सभी जानना चाहते थे कि इसके चौतरफा प्रभावों से उबरने के लिए कौन सी लाइन यहां से निकलती है।

दूसरी वजह का संबंध इस उत्सुकता से था कि डॉनल्ड ट्रंप के हाथों संसार की लगभग सारी जवाबदेह संस्थाओं और बहुपक्षीय व्यवस्थाओं का बेड़ा गर्क कर दिए जाने के बाद अमेरिका के नए नेतृत्व की ओर से विश्व बिरादरी जैसी किसी धारणा की बहाली को लेकर कोई शुरुआत यहां से होती है या नहीं। बैठक के बाद काफी लंबा-चौड़ा घोषणापत्र जारी होने के बावजूद ठोस नतीजे के नाम पर एक ही बात निकली है कि अगले एक साल में यह समूह विकासशील देशों के लिए वैक्सीन की एक अरब खुराकों का इंतजाम करेगा। वैक्सीन की इतनी मात्रा साल भर में गैर-अमीर मुल्कों की सिर्फ 10.3 फीसदी आबादी का वैक्सिनेशन सुनिश्चित कर पाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन को इस जमावड़े से 11 अरब खुराकें निकलने की उम्मीद थी, जो बीमारी के प्रभावी खात्मे के लिहाज से 70 प्रतिशत आबादी को वैक्सिनेट करने के लिए पर्याप्त होती।

अलबत्ता मंदी और महामारी का दोहरा झटका झेलकर निकलने वाली विकासशील दुनिया को उम्मीद बंधाने के लिए जी-7 ट्रिपल बी डब्लू नाम का एक दिलचस्प जुमला लेकर आया है- ‘बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड।’ अमेरिकी राष्ट्रपति जोसफ बाइडन की टीम ने उनके सत्ता में आने के साथ या शायद उसके पहले से ही इस पर काम शुरू कर दिया था। जी-7 समिट में इसे अश्वमेध के घोड़े की तरह छोड़ भर दिया जाना था। यह काम हुआ भी, लेकिन ब्यौरों के अभाव में इससे चमत्कृत होना कठिन है। बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड या ट्रिपल बी डब्लू को चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) के जवाब की तरह प्रस्तुत किया गया है। अमेरिका का कहना है कि विकासशील देशों को 2035 तक 40 लाख करोड़ डॉलर की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की जरूरत पड़ेगी। इस काम को संसार के प्रमुख लोकतंत्रों को मूल्य संचालित, उच्च मानकों वाली, पारदर्शी ढांचागत भागीदारी के जरिये अंजाम देना होगा। घोषणापत्र में इस बात को ज्यों का त्यों शामिल करने का मतलब यह है कि जी-7 के बाकी छह भागीदारों ने भी इस दिशा में मिलकर काम करने के लिए हामी भर दी है। गरीब और मध्यम स्थिति वाले देशों के लिए यह मोहक घोषणा है। अमीर मुल्क अपनी पहल पर उनके यहां सड़क, रेलवे, बिजली और बंदरगाह की व्यवस्था करें, इससे अच्छा और क्या होगा। लेकिन इसका एक बड़ा संदर्भ भी है, जिससे कतराकर आगे बढ़ जाने पर पूरी बात समझ में नहीं आएगी।

दरअसल 21वीं सदी में पहली बार शीतयुद्ध जैसी खेमेबंदी का उपक्रम ही इस बार की जी-7 शिखर बैठक की सबसे खास बात है। रूस और चीन के खिलाफ बाइडन का रुख शुरू से ही सख्त रहा है और अब अपने इस नजरिये में वे बाकी जी-7 सहयोगियों कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान को भी भागीदार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अपने इसी दौरे में उन्हें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन से मुलाकात भी करनी है। कहना कठिन है कि अभी दो महीने पहले एक इंटरव्यू में पूतिन को हत्यारा घोषित कर चुकने के बाद यह भेंटवार्ता कितनी सुखद रह पाएगी।

अमेरिका के कूटनीतिक हित पश्चिमी एशिया और पूर्वी यूरोप में लगातार रूस से टकरा रहे हैं लिहाजा बाइडन की कोशिश पूतिन के साथ रिश्ते खुशगवार बनाने के बजाय टकराव की हद तय करने की रहेगी। लेकिन चीन के साथ तो अब अमेरिका का कोई न कोई कोना हर जगह ही टकराने लगा है। एटमी रिएक्टर और जहाजी बेड़े जैसे बड़े सौदे भी अब दोनों देशों के बीच नहीं होने वाले। ऐसे में रिश्ते सुधारने की कोई वजह भी नहीं बची है। यही कारण है कि चीन के मामले में डॉनल्ड ट्रंप और जोसफ बाइडन के स्टैंड में एक भी पहलू पर रत्ती भर का फर्क नहीं दिखता। अलबत्ता यूरोपियन यूनियन और नाटो को लेकर दोनों के बीच बहुत बड़ा अंतर साफ देखा जा सकता है। ट्रंप अपने यूरोपीय जोड़ीदारों के बीच बहुत नापसंद किए जाते थे। उनका कहना था कि अमेरिका और यूरोप के व्यापारिक रिश्तों में कई शर्तें यूरोपीय देशों की तरफ झुकी हुई हैं, जो अब नहीं चलेगा।

दूसरा मामला सुरक्षा खर्चों से जुड़ा था। ट्रंप यूरोप में अमेरिकी फौजों और रणनीतिक साजोसामान की तैनाती के खर्चे में नाटो के यूरोपीय भागीदारों की बराबर की साझेदारी चाहते थे। इन दोनों बिंदुओं पर अमेरिका और यूरोप का टकराव बहुत तीखा हो गया था, जिसका कुछ फायदा चीन को भी यूरोप में अपनी जड़ें जमाने में मिल गया। बाइडन अपनी चीन विरोधी मुहिम में यूरोपीय मुल्कों को साथ लेना चाहते हैं, पर क्या इसके लिए वे अमेरिका के व्यापारिक हितों से समझौता करने को तैयार होंगे? जर्मनी और इटली ने जता दिया है कि दोनों में एक खेमा पकड़ने की उन्हें कोई जल्दी नहीं है।

चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव मौजूदा चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की एशिया, अफ्रीका और यूरोप तक फैली हुई एक असाधारण पहल है, जो एक समय सपने जैसी लगती थी। विशाल बंदरगाह, दुर्गम पहाड़ों से गुजरती चौड़ी सड़कें और महाद्वीपीय स्तर की रेलवे लाइनें एक राष्ट्राध्यक्ष के कार्यकाल में ही खड़ी कर देना इस पहल का हिस्सा है। लेकिन हकीकत का रूप लेने के साथ ही इन सपनों में कुछेक दुःस्वप्न भी निकल आए हैं। अरुणाचल प्रदेश की चौहद्दी से थोड़ी ही दूर पड़ने वाले छोटे से मुल्क लाओस की नेशनल पावर ग्रिड एक चीनी कंपनी ने बहुत कम समय में खड़ी कर दी लेकिन इस काम में खर्चा इतना आया कि लाओस सरकार को इसका मालिकाना चीनी कंपनी को ही सौंप देना पड़ा।

कुछ ऐसा ही श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह के साथ भी हुआ, जो अभी निन्यानबे साल की लीज पर चीन के पास है। बीआरआई का सबसे बड़ा प्रॉजेक्ट पाकिस्तान में चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के रूप में चल रहा है। डर है कि इसका हश्र भी कहीं लाओस और श्रीलंका जैसा ही न हो। जी-7 के घोषणापत्र में कहा गया है कि ‘बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड’ के तहत विकासशील देशों में जो इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया जाएगा उसका स्वरूप लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों द्वारा संचालित होगा और इसे पूरी तरह पारदर्शी रखा जाएगा।

इन सात अमीर मुल्कों ने दुनिया में कहीं भी अगर ऐसा ढांचा खड़ा किया होता तो बात समझने में आसानी होती। लेकिन उदाहरण देने के बजाय बताया गया है कि इस काम में पर्यावरण और जलवायु का पूरा ध्यान रखा जाएगा, भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जाएगी और बाजार से संचालित निजी क्षेत्र इसका उच्च स्तर सुनिश्चित करेगा। इस घोषणा में विकासशील देशों के लिए अच्छी बात यही है कि आगे से उनके पास अपने यहां आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के लिए दो विकल्प मौजूद होंगे। उन्हें अगर यह अंदेशा हुआ कि चीन उनके यहां बंदरगाह या पावर ग्रिड बनाने के बाद उसपर कब्जा कर लेगा तो वे इस काम के लिए जी-7 के पास अर्जी लगाएंगे।

हालांकि हमारे लिए यह सोचने को रह जाता है कि अमीर मुल्कों को इस सत्कार्य से अबतक किसने रोक रखा था? उनकी कंपनियां इधर का रुख करतीं तो आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से कर्ज लेना भी आसान हो जाता। एक अर्से से हम देख रहे हैं कि अमेरिका समेत सारे विकसित देशों की कंपनियां मैन्युफैक्चरिंग और कॉन्स्ट्रक्शन के क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीय सीमा से बाहर कदम नहीं रखना चाहतीं। बल्कि भूमंडलीकरण के दौर में अपनी सीमा के भीतर भी उनकी हालत दिनोंदिन खस्ता ही होती गई है। विकसित देशों की अतिरिक्त पूंजी मोटे कामों में लगकर हाथ गंदे करने के बजाय या तो बैंकिंग-बीमा जैसे सेक्टरों में लगकर उभरते देशों की तरफ जाती है, या फिर असेट मैनेजमेंट कंपनियों के जरिये इस तरफ के शेयर बाजारों में सुविधानुसार आती-जाती रहती है।

क्या बीआरआई के जवाब में ट्रिपल बी डब्लू का दम दिखाने के लिए जी-7 के मुल्क अपने यहां चीन जैसी नई कॉन्स्ट्रक्शन कंपनियां खड़ी करेंगे? ध्यान रहे, अमेरिका, कनाडा, जापान और यूरोप में लगभग पूरा का पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर आधी सदी पहले खड़ा किया जा चुका है और वहां इस क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों का कामकाज अब मेंटिनेंस वर्क तक ही सिमट गया है। जो भी हो, कोरोना का किस्सा निपट जाने के बाद विकासशील दुनिया को आशा की तगड़ी खुराक चाहिए। यह अगर ‘बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड’ के रूप में मिलती है तो चीन को भी अपने तौर-तरीकों पर दस बार सोचना होगा।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।