तीसरी दुनिया: वायरस पर नियंत्रण के बहाने दुनिया को एबसर्ड थिएटर में बदलती सरकारें

आनंद स्वरूप वर्मा
ओप-एड Published On :

A masked supporter of candidate Salvador Nasralla yells at fellow protesters to fight police at their roadblock to protest what they call electoral fraud in Tegucigalpa, Honduras on Friday. Rodrigo Abd/AP


लंदन से प्रकाशित दैनिक ‘इंडिपेंडेंट’ ने अपनी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जाहिर की है कि कई देशों की सरकारें कोरोना वायरस पर नियंत्रण के बहाने अपने उन कार्यक्रमों को पूरा करने में लग गयी  हैं जिन्हें पूरा करने में जन प्रतिरोध या जनमत के दबाव की वजह से वे तमाम तरह की बाधाएं महसूस कर रहीं थीं।

रिपोर्ट के अनुसार 16 मार्च को संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध विशेषज्ञों के एक समूह ने एक बयान जारी कर इन देशों को चेतावनी दी कि ऐसे समय सरकारों को आपातकालीन उपायों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक मकसद की पूर्ति के लिए नहीं करना चाहिए। बयान में कहा गया है- “हम स्वास्थ्य पर आए मौजूदा संकट की गंभीरता को समझते हैं और यह मानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय कानून गंभीर खतरों के समय आपात अधिकारों के इस्तेमाल की इजाजत देता है, तो भी हम राज्यों को गंभीरता के साथ याद दिलाना चाहते हैं कि कोरोना वायरस से निबटने के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले किसी भी आपात कानून का इस्तेमाल संतुलित ढंग से और बगैर किसी भेदभाव के किया जाना चाहिए… इसका इस्तेमाल किसी समूह विशेष, अल्पसंख्यक समुदाय या व्यक्तियों के खिलाफ नहीं किया जाना चाहिए। स्वास्थ्य की रक्षा की आड़ में इसे दमनात्मक कार्रवाइयों के लिए या मानव अधिकार की रक्षा में लगे लोगों की आवाज बंद करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए.”

19 मार्च को इजरायल की राजधानी यरूशलम में सैकड़ों की संख्या में लोगों ने प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के जनतंत्र विरोधी उपायों के खिलाफ प्रदर्शन किया। 2 मार्च के चुनाव में पराजित होने के बाद नेतन्याहू की पार्टी (लिकुड पार्टी) के स्पीकर ने कोरोना वायरस का खतरा दिखाकर संसद का सत्र समाप्त कर दिया जबकि नवनिर्वाचित सांसदों की मांग थी कि कम से कम नए स्पीकर के चुनाव तक यह सत्र चलने दिया जाए। हद तो तब हो गई जब नेतन्याहू ने देश की सुरक्षा एजेन्सी को आदेश दिया कि वह लोगों के मोबाइल फोन का एक गुप्त डेटाबेस तैयार करे ताकि यह पता चल सके कि किस व्यक्ति ने कोरोना वायरस संक्रमित व्यक्ति से संपर्क किया है। लोगों ने इसे निजता पर हमला कहा है।

वैसे, नेतन्याहू ने पूरे शहर में कोरोना वायरस के नाम पर लॉकडाउन की घोषणा कर दी है। लंदन के अखबार ‘गॉर्डियन’ का कहना है कि ‘परेशानियों से घिरे नेतन्याहू को उम्मीद है कि कोरोना वायरस से उन्हें वह सब हासिल हो जाएगा जो पिछले तीन चुनावों से हासिल नहीं हो सका था— उनके शासन की अवधि बढ़ जाएगी और वह जेल से बाहर रह सकेंगे।’

दरअसल भ्रष्टाचार के तीन आरोपों में नेतन्याहू को 17 मार्च को कोर्ट में पेश होना था लेकिन कोरोना की वजह से अदालतों ने सारी तारीखें अगले दो माह के लिए बढ़ा दीं।

ब्रिटेन में प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन ने दमनकारी ‘कोरोना वायरस बिल’ का सहारा लिया है जिसमें प्रावधान है कि पुलिस या आव्रजन अधिकारी ऐसे किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं जिसके बारे में शक हो कि वह कोरोना वायरस से संक्रमित है। लोगों को भय है कि इस कानून का सहारा ले कर चीनी मूल के ब्रिटिश नागरिकों को वैसे ही परेशान किया जा सकता है जैसे 9/11 के बाद ब्रिटिश मुस्लिम लोगों को किया गया था।

Britain’s Prime Minister Boris Johnson reacts during a press conference at Downing Street on the government’s coronavirus action plan in London, Tuesday, March 3, 2020. Johnson is announcing plans for combating the spread of the new COVID-19 coronavirus in UK.(AP Photo/Frank Augstein, Pool)

अमेरिका में ट्रम्प ने एक ‘अदृश्य दुश्मन’ के खिलाफ युद्ध का आह्वान करते हुए 13 मार्च को नेशनल इमरजेंसी की घोषणा की और खुद को ‘वार टाइम प्रेसीडेंट’ के रूप में पेश किया। फिर एबीसी न्यूज़ ने एक ‘पोल’ (जनमत संग्रह) किया और बताया कि 55 प्रतिशत लोगों ने कोरोना से निपटने में ट्रम्प का समर्थन किया है। इससे महज एक हफ्ते पहले तक ट्रम्प के समर्थन में महज 43 प्रतिशत लोग थे। कोरोना संकट ने अमेरिकी चुनाव को फिलहाल हाशिये पर डाल दिया है और ट्रम्प को अपनी वापसी दिखाई देने लगी है। ‘युद्ध’ के दौरान कोई क्यों नेतृत्व परिवर्तन चाहेगा!

मध्य अमेरिकी देश होंडुरास के मानव अधिकार संगठनों का आरोप है कि कोरोना वायरस पर रोक लगाने की आड़ में सरकार ने अपनी तानाशाही स्थापित करने पर ज्यादा जोर दिया है। देश में कर्फ्यू लगा दिया गया है और आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। सड़कों पर सेना के लोग गश्त लगा रहे हैं और जो लोग खाने पीने की चीजें खरीदने जा रहे हैं उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया जा रहा है। राष्ट्रपति ने एक हुक्मनामा जारी कर दिया है कि जो कोई भी कर्फ्यू का उल्लंघन करेगा उसे छह महीने से दो साल तक जेल में रहना पड़ सकता है। कुछ संगठनों ने यह भी आरोप लगाया है कि कोरोना के नाम पर जो इमरजेंसी बजट का प्रावधान किया गया है उसमें होने वाले खर्च के मॉनिटरिंग की कोई व्यवस्था न होने से घोटाले की आशंका बढ़ गई है।

17 मार्च को मिस्र ने गॉर्डियन के पत्रकार की मान्यता इसलिए रद्द कर दी क्योंकि उसने कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या के बारे में सरकार के दावों पर सवाल उठाया था। वैसे, अफ्रीका के सभी 54 देशों में कोरोना फैल चुका है। सबसे बुरी हालत दक्षिण अफ्रीका की है। अफ्रीका के, और खास तौर पर, सब-सहारन अफ्रीका के देशों में केवल तीन प्रतिशत आबादी 65 वर्ष से ऊपर के लोगों की है। इससे लगता है कि अफ्रीकी देशों में कोरोना के कारण मरने वालों की तादाद अपेक्षाकृत कम रहेगी।

हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में 26 मार्च तक कोरोना मरीजों की संख्या 1100 पार कर चुकी थी और आठ मौतें हो चुकी थीं। यहाँ सरकारी आदेश को नकारते हुए मुफ्ती मुनीब उर रहमान व कई अन्य मुफ्तियों ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि जो भी कोरोना संदिग्ध या अस्वस्थ नहीं है, वह मस्जिदों में आएगा और पांचों वक्त की फर्ज नमाजें व जुमे की नमाज सामूहिक रूप से अदा करेगा। इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए पाकिस्तान के विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री फवाद चौधरी ने कहा है कि धार्मिक तत्वों की जहालत, हठधर्मिता व जानकारी के अभाव की वजह से पाकिस्तान में कोरोना वायरस की महामारी फैली। फवाद चौधरी ने अपने ट्वीट में कहा कि ‘ये (कट्टर धार्मिक तत्व) हमसे कहते हैं कि यह (कोरोना) अल्लाह का अज़ाब है, इसलिए तौबा करो जबकि सच तो यह है कि सबसे बड़ा अजाब जहालत है जो इनकी शक्ल में हमारे सिरों पर सवार है… जाहिल को विद्वान का दर्जा देना बड़ी तबाही है।‘

फिर भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने देश में लॉकडाउन की घोषणा नहीं की। राष्ट्र के नाम अपने एक संदेश में उन्होंने कहा कि अगर उनके देश की हालत फ्रांस, अमेरिका या जर्मनी जैसी होती तो वह भी अपने यहाँ लॉकडाउन लागू कर देते। उन्होंने कहा कि ‘पच्चीस फीसदी पाकिस्तानी गुरबत की लकीर से नीचे हैं जो दो वक्त की रोटी नहीं खा सकते। आज अगर मैं लॉकडाउन करता हूँ तो इसका मतलब मेरे मुल्क के रिक्शा चलाने वाले, रेहड़ी वाले, छोटे दुकानदार, दिहाड़ी वाले, ये सारे घरों में बंद हो जाएंगे और हमारी इतनी कैपेसिटी नहीं है कि हम सबको खाना पहुंचा सकें।’ ऐसी हालत में उन्होंने लोगों से अपील की कि वे खुद ही उन एहतियातों का पालन करें जो बताए जा रहे हैं।

हमारे अपने देश में सब कुछ एक एबसर्ड थियेटर की तरह चल रहा है। लॉकडाउन है और इसका पालन/उल्लंघन दोनों चल रहा है, लोग डरे भी हैं और निश्चिंत भी, पुलिस लोगों को बेरहमी से पीट भी रही है और कहीं कहीं करुणानिधान के अवतार में पटरी पर पड़े भूखों को खाना भी खिला रही है। प्रधानमंत्री की अपील पर पहला लॉकडाउन 14 घंटे का था जिसका लोगों ने थाली और ताली बजा कर समापन किया लेकिन 15वां घंटा शुरू होते ही सोशल डिस्टैंसिंग की पीएम की अपील की ऐसी तैसी करते हुए, घड़ियाल-घंटे बजाते हुए एक हुजूम सड़क पर निकल आया— वंदे मातरम और जय श्रीराम का उद्घोष करते हुए। भाजपाइयों ने इसे पार्टी का कार्यक्रम बना दिया।

इससे पहले हिन्दू महासभा ने 14 मार्च को दिल्ली में गोमूत्र पार्टी का आयोजन किया। कहा गया कि गोमूत्र से कोरोना भाग जाएगा। इसमें लगभग 200 लोग शामिल हुए। फिर इसी संगठन के अध्यक्ष चक्रपाणि ने कहा कि हम मांग करते हैं कि भारतीय धरती पर उतरने वाले किसी भी व्यक्ति को गोमूत्र पीने और गाय के गोबर में स्नान करने के बाद ही हवाई अड्डे से बाहर आने की अनुमति दी जानी चाहिए। जहालत का नमूना केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने भी पेश किया जब उन्होंने मुंबई में चीनी महावाणिज्य दूत और बौद्ध भिक्षुओं के साथ ‘गो कोरोना, गो कोरोना’ के नारे लगाए।

इस ऐबसर्ड थियेटर का पटाक्षेप कोरोना संकट की समाप्ति के साथ होगा। सरकार को पता है कि उसकी सारी नाकामयाबियों पर कोरोना भारी पड़ जाएगा। बेरोजगारी, महंगाई, जीडीपी में कमी सबका ठीकरा कोरोना के सिर फूटेगा।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने धमकी दी कि लॉकडाउन का उल्लंघन करने वालों को देखते ही गोली मारे जाने का आदेश जारी करना पड़ेगा लेकिन विडम्बना देखिए कि इस बयान के चार-पांच दिन बाद ही दिल्ली के आनंद विहार बस टर्मिनल के आस-पास बीस से तीस हज़ार लोगों का सैलाब उमड़ आया। लगभग ऐसी ही स्थिति लखनऊ में भी देखने को मिली। यह न तो कोई विद्रोह था और न कोई साजिश— यह सत्ता की संवेदनहीनता और उपेक्षा के शिकार, समाज के हाशिये पर पड़े और ज़िंदगी की जद्दोजहद में लगे उन लोगों के जीने की ललक की अभिव्यक्ति थी जो हर रोज कमाते और खाते थे, जिनके पास कोई जमा पूंजी नहीं थी और जिन्हें लगा कि उन्हें और उनके परिवार को कोरोना से पहले भुखमरी का ही शिकार बन जाना पड़ेगा।

‘दि शॉक डाक्ट्रिन’ की लेखिका और राजनीतिक विश्लेषक नाओमी क्लेन ने एक जगह लिखा है कि ‘अगर इतिहास से हमें कोई सीख मिलती है तो वह यह कि ‘शॉक’ के क्षण बेहद अस्थिर होते हैं। ऐसे समय या तो हमारे पाँव उखड़ जाते हैं, सब कुछ उच्च वर्ग द्वारा हथिया लिया जाता है और फिर हम दशकों तक उसकी कीमत चुकाते रहते हैं या हमें आगे ले जाने वाली ऐसी कामयाबियां मिलती हैं जो कुछ ही हफ्तों पहले तक नामुमकिन लगती थीं। यह दहशत में आने का समय नहीं है।’


आनंद स्वरूप वर्मा भारत के वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्होंने चार दशक पहले मासिक पत्रिका समकालीन तीसरी दुनिया की स्थापना की। नेपाल, अफ्रीका, लातिन अमेरिका सहित तीसरी दुनिया के देशाें पर हिंदी में ज्यादातर सामग्री उपलब्ध कराने का श्रेय इन्हें जाता है। इसके अलावा इन्होंने तमाम महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद किया है।