स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ की आदि-हिन्दू अवधारणा-1

कँंवल भारती कँंवल भारती
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भदन्त बोधनन्द की नौरत्न कमेटी में स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ एकमात्रा दलित जाति (चमार)  सदस्य थे, जो उस समय आदि-हिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक और दलित समाज के महान नायक, कवि और सम्पादक थे। उनके माता-पिता उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद की तहसील छिबरामऊ के मौजा सौरिख के रहने वाले थे, 1857 के गदर के पहले ही द्विजातियों के अत्याचारों से पलायन करके जिला मैनपुरी में तहसील सिरसागंज के मौजा उमरी में, अपनी ससुराल में, आकर बस गए थे। इसी मौजा उमरी में सन 1879 में उनका जन्म हुआ था। उनका बचपन का नाम हीरालाल था। बाद में वे आर्यसमाजी हुए और नाम पड़ा स्वामी हरिहरानन्द। कुछ समय पश्चात उन्होंने आर्यसमाज छोड़ दिया और दलित वर्गों के लिए नया ‘आदि-हिन्दू’ आन्दोलन चलाया, जिसके दौरान ही उनका नामकरण स्वामी अछूतानन्द हुआ। ‘हरिहर’ उनका उपनाम था, जिसके नाम से वे कविताएँ लिखते थे।

आदि-हिन्दू आन्दोलन का सिद्धांत

भारत में 1920 का दशक अनेक ऐतिहासिक राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं का काल खण्ड है। 1919 में ब्रिटिश शासन ने राजनीतिक सुधार लागू किए थे, जिनके तहत साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के आधार पर भारत की सत्ता का हस्तान्तरण किया जाना था। 1919 में ही महात्मा गाॅंधी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया, और काॅंग्रेस का नेतृत्व सॅंभाला था। उन्होंने भारतीय राजनीति में हिन्दुओं और दलितों दोनों के प्रतिनिधित्व का दावा किया था। 1920 में मुसलमानों का खिलाफत आन्दोलन शुरु हुआ, जिसके प्रेरक व्यक्ति भी भारत में महात्मा गाॅंधी थे। 1917 में मद्रास में दलित वर्गों में आत्मसम्मान आन्दोलन आरम्भ हुआ। 1920 में ही आर्यसमाज और काॅंग्रेस का, अछूतोद्धार का नाटक, शुद्धि आन्दोलन चला। और इसी काल खण्ड में दलितों के मूलनिवासी आन्दोलन ने जोर पकड़ा था।

आर्य समाज में रहकर स्वामी जी ने वेदशास्त्रों का अध्ययन तो किया ही, उसके मूल निहितार्थ को भी समझ लिया था। उसका शुद्धि आंदोलन केवल दलितों को ईसाई और मुसलमान बनने से रोकने का राजनीतिक नाटक था। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं की संख्या में वृद्धि करना था, जिससे सत्ता का हस्तान्तरण काॅंग्रेस के हाथों में कराया जा सके, और ब्राह्मण-राज्य कायम किया जा सके। इस आन्दोलन का अछूतों के सामाजिक उत्थान और उनके राजनीतिक अधिकारों को सुनिश्चित करने से कोई सम्बन्ध् नहीं था। स्वामी जी ने इसे अच्छी तरह अनुभव कर लिया था कि आर्य समाज उच्च हिन्दुओं का संगठन है, जिसका मकसद अछूतोद्धार नहीं, बल्कि वेदों और मनु की वर्णव्यवस्था का शासन स्थापित करना है। शुद्धि आन्दोलन भी, जो काॅंग्रेस और आर्यसमाज का संयुक्त उपक्रम था, एक तरह से अन्य धर्मों में धर्मांतरित अछूतों की उनकी पुरानी जाति में घर-वापसी कराने का षडयन्त्र था। इसलिए स्वामी अछूतानन्द जैसे बहुत से दलित बुद्विजीवी इस निष्कर्ष पर पहुॅंचे कि उनका आर्यसमाज में बने रहना दलितों के हित में नहीं है और वे उसे छोड़कर बाहर आ गए।

आर्यसमाज में स्वामी जी की घुटन का मुख्य कारण यह भी था कि उसके नेता अछूतों के राजनीतिक अधिकारों और प्रतिनिधित्व का समर्थन नहीं करते थे, बल्कि वे अछूतों की राजनीतिक माॅंगों का, जो उस काल में देश के कोने-कोने से उठाई जा रहीं थीं, विरोध करते थे। वे डा.आंबेडकर का विशेष विरोध करते थे, जो अछूतों के प्रश्न पर गाॅंधी और काॅंग्रेस के आलोचक थे। स्वामी जी ने आर्यसमाज के प्रति अपना मत मेरठ की एक सभा में इन शब्दों में व्यक्त किया था-

‘यह ईसाई और मुसलमानों के प्रहारों से ब्राह्मणी धर्म को बचाने के लिए गढ़ा गया वैदिक धर्म का एक ढोंग है। इसकी बातें कोरी डींग और सिद्धान्त उटपटांग हैं। इसकी शुद्धि महज धोखा और गुण-कर्म की वर्णव्यवस्था एक झूठा शब्द जाल है। यह इतिहास का शत्रु, सत्य का हंता और झूठी गप्पें मारने में पूरा लपोड़संख है। इसकी दृष्टि दोषग्राही, वाणी कुतर्की, स्थापना थोथी और वेदार्थ निरा मन-गढ़त है। यह जो कहता है, उस पर इसका अमल नहीं। इसका उद्देश्य ईसाई-मुसलमानों से शत्रुता कराकर हिन्दुओं को वेदों और ब्राह्मणों का दास बना देना है।’

आर्य समाज छोड़ने के बाद, स्वामी जी ने नई विचारधरा की खोज आरम्भ की। चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के अनुसार, उन्होंने सन्तों की वाणियों को पढ़ा। सिखों के गुरु ग्रन्थ साहेब, कबीर साहेब के बीजक, दादूदयाल, नामदेव और रैदास साहेब की वाणी का परायण किया। थियोसोफिस्टों और ईसाई पादरियों का सत्संग किया। जैन और बौद्ध साधुओं का सत्संग किया। उन्होंने सायन कृत वेद-भाष्य और रमेशचन्द्र कृत ऋग्वेद का बॅंगला अनुवाद और सभ्यता का इतिहास पढ़ा, मिश्र बन्धुओं का ‘भारतवर्ष का इतिहास’ तथा अन्य अनेक ग्रन्थों को पढ़ा। इस अध्ययन से वे इस निष्कर्ष पर पहुॅंचे कि अछूत और शूद्र बनाए गए मानव प्राणी देश के आदिनिवासी हैं, जो आर्यों के आने से पूर्व यहाॅं रहते थे। स्वामी जी के अध्ययन के अनुसार, इनके प्रतापी पूर्वज बड़े वीर और योग्य थे, जिन्होंने आगन्तुक आर्यों के छक्के छुड़ा दिए थे। उनके अनुसार आर्य लोग इन्हें युद्ध में कभी नहीं जीत सके, छल और कपट से इस देश के स्वामी बन बैठे, क्योंकि वे सच्चे थे और छल-कपट नहीं जानते थे।

1922 में स्वामी अछूतानन्द ने दिल्ली में अछूतों के एक विशाल सम्मेलन में अछूतों के आदि-हिन्दू होने की घोषणा की। उन्होंने कहा-

‘भाइयो! हम लोग भारत के प्राचीन निवासी ‘आदि हिन्दू’ हैं। आर्य द्विजातीय सब विदेशी हैं। इन लोगों ने हमें नीच, अछूत और गुलाम बना रखा है। हमें इन लोगों के फैलाए हुए भ्रम-जाल से निकलकर अपने पैरों पर खड़े होकर अपने सारे मुल्की हकों को हासिल करना चाहिए। हमें ब्रिटिश सरकार के साथ विद्रोह नहीं करना चाहिए। हमें युवराज का स्वागत करना चाहिए और इंग्लैंड की सरकार से अपने राजनैतिक अधिकारों की माॅंग करनी चाहिए।’

यह सम्मेलन उस विशेष अवसर पर हुआ था, जब भारत में इंग्लैंड के युवराज प्रिंस आफ वेल्स पधारे थे, और काॅंग्रेस ने उनका बहिष्कार किया था। युवराज उस समय दिल्ली में थे। अतः उन्होंने दिल्ली के अछूतों को युवराज का स्वागत करने के लिए तैयार किया और जिज्ञासु के अनुसार, लाखों अछूतों ने युवराज का स्वागत किया और ‘आदि-हिन्दू’ शब्द लोगों के कानों में गूॅंज उठा। इस स्वागत समारोह का सरकार पर अच्छा प्रभाव पड़ा और स्वयं वायसराय ने उन्हें सनद प्रदान की। स्वामी जी ने हर जिले के हाकिमों के नाम एक सरकारी आज्ञा-पत्रा लिखवा लिया कि जहाॅं कहीं भी वे अछूत भाइयों की सभा करना चाहें, तो वहाॅं के हाकिम और पुलिस उनकी सहायता करें। इस प्रकार राज-सहानुभूति पाकर स्वामी जी ने दौरा करके समस्त उत्तर भारत में आदि हिन्दू आन्दोलन का डंका बजा दिया, जगह-जगह आदि-हिन्दू सभाएँ कायम कर दीं, जिनके द्वारा अछूत जनता ने अपने मुल्की हकों की माॅंग बड़े जोरों से शुरु कर दी।

इसी काल में आदि-सिद्धांत पर आधरित ‘आदि द्रविड़’ आन्दोलन दक्षिण भारत में और ‘आदि धर्म’ आन्दोलन पंजाब में चल रहे थे। स्वामी अछूतानन्द इन आन्दोलनों से अपरिचित नहीं रहे होंगे। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उनका आदि हिन्दू आन्दोलन उनसे प्रभावित था। स्वामी जी के जीवनी-लेखक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के अनुसार इन आन्दोलनों के बीच महत्वपूर्ण बात सैद्धांतिक मतैक्य की थी। हालाॅंकि उसी काल में बिहार, सन्थाल परगना और गोंडवाना में ‘आदिवासी’ और बंगाल में ‘नाम-शूद्र’ आन्दोलन चल रहे थे किन्तु ये सभी आन्दोलन इसी सिद्धान्त पर आधरित थे कि आज के शूद्र और अतिशूद्र लोग भारत के मूल निवासी हैं। जिज्ञासु की दृष्टि में आदि हिन्दू ही भारत के सर्वहारा हैं तथा द्विज हिन्दू भारतीय बुर्जुआ।

स्वामी जी ने आदि हिन्दूसभा का गठन 1922 में किया था, और 1930 तक यह आन्दोलन अखिल भारतीय स्तर पर पूरे देश में फैल गया था। इसके आठ अखिल भारतीय सम्मेलन, तीन विशेष सम्मेलन, पन्द्रह प्रान्तीय सम्मेलन और छह विशेष सम्मेलन दिल्ली, बम्बई, हैदराबाद, नागपुर, मद्रास, अमरावती, इलाहाबाद, कानपुर, लखनउफ, मेरठ, मैनपुरी, इटावा, मथुरा, गोरखपुर, फर्रुखाबाद, आगरा आदि नगरों में हुए थे। जिला स्तर पर छोटी-बड़ी 208 आदि हिन्दू सभाएँ उत्तर प्रदेश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर हुईं। जिज्ञासु के अनुसार, आदि हिन्दू आन्दोलन केवल ब्रिटिश भारत में ही सीमित नहीं रहा, बल्कि देशी रियासतों-ग्वालियर, भोपाल, जयपुर, अलवर, हैदराबाद, भरतपुर, टिहरी गढ़वाल आदि में भी आदि हिन्दू सभा की असंख्य सभाएँ और जलसे हुए।

 

स्वामी जी की वैचारिकी

स्वामी अछूतानन्द ने आदि हिन्दू की अवधरणा भारत के आदि सनातन मौलिक धर्म से ग्रहण की थी। उनके अनुसार, यह सन्त-मत था, जो आदि ज्ञान पर आधरित था और जिसे वेद-वादियों ने अपना रंग देकर अपने ग्रन्थों में घुसेड़ लिया है। उनका मत था कि यह अनुभवसिद्ध आत्मज्ञान वेदों से परे की बात है, क्योंकि यह सदैव सन्तमत के रूप में प्रचलित रहा और प्रचलित है।

भारतीय भक्ति-दर्शन में निर्गुण और सगुण दो विचारधराएँ विद्यमान हैं। इनमें निर्गुण धारा समतावादी है, और सगुण धारा असमानतावादी है। निर्गुण में ईश्वर निराकार, निर्वैर और अजन्मा है। वह न अवतार लेता है, और न परलोक में वास करता है। वह घट-घट में वास करता है। इसके विपरीत, सगुण धारा में ईश्वर साकार है, अवतार लेता है, शत्रुओं का संहार करता है, परलोक में वास करता है और जीवों को उनके कर्मफल के अनुसार जन्म देता और मारता है। निर्गुण धारा शास्त्र-ज्ञान से रहित है, जो आत्मज्ञान पर जोर देती है, जबकि सगुण धारा शास्त्रवादी है, और लोगों को मुक्ति के लिए वेद-शास्त्रों के अनुसार आचरण करने पर जोर देती है। निर्गुण धारा शूद्र सन्तों की मानवतावादी है, जबकि सगुण धारा ब्राह्मणों की वर्णवादी और जातिवादी है।

ये भारत की मौलिक वाम और दक्षिण विचारधराएँ हैं। स्वामी अछूतानन्द ने आदि हिन्दू धर्म के रूप में सन्तों के निर्गुण धर्म को स्वीकार किया था। 9 नवम्बर 1927 को उन्होंने छावनी फतेहगढ़ की आदि-हिन्दू सभा में कहा था- ‘हम लोग ब्राह्मणी धर्म से बाहर हैं, क्योंकि हमें वेद पढ़ने, ब्राह्मणी देवताओं के मन्दिरों में जाने और ब्राह्मणी धर्म के सभी कर्म करने की मुमानियत है। यही सबूत है कि ब्राह्मणी धर्म हमारा धर्म नहीं है। हमारा धर्म सन्तमत है, जिसे सूफी मत भी कहते हैं। यह आदि काल से हमारे भीतर चला आ रहा है। षटकोप (कंजड़), कबीर (जुलाहा), रैदास (चमार), दादू (धुनिया), नामदेव (छीपी), मत्स्येंद्रनाथ (मछुआ) इत्यादि सैकड़ों हजारों सन्त हमारे भीतर हुए हैं। उनका उपदेश किया धर्म ही हमारा धर्म है।’ उन्होंने भुइयाॅं माता के लाल झंडे का रूसी क्रान्ति का प्रतीक बताते हुए आगे कहा कि ‘हमारी माताएँ और बहिनें भूमि में लाल झंडी गाड़कर अनादि काल से भुइयाॅं माता (मातृभूमि) की पूजा करती हैं, ऐसे लाल झंडे को रूस के मुल्क ने भी मातृभूमि का निशान मानकर अपनाया है।’ उनका मत था कि सन्त धर्म विश्वव्यापी है, यही धर्म सूफी मत और ईसाईयत में गया और इसी सन्तधर्म का प्रचार भगवान बुद्ध ने किया था। इसी व्याख्यान में स्वामी जी ने जोर देकर कहा कि हमें ऊँच-नीच और छुआछूत का भेद पैदा करने वाले और ईसाईयों तथा मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने वाले ब्राह्मणों के संकीर्ण धर्म की आवश्यकता नहीं है।

स्वामी जी का आदि-हिन्दू सिद्धान्त आर्य-अनार्य सिद्धान्त पर आधरित था। उन्होंने 6 और 7 अक्टूबर 1928 को गुजरात की एक सभा में विष्णु को ब्राह्मणी वर्णधर्म का रक्षक और असुरों का शत्रु बताते हुए कहा कि असुर का अर्थ है, जो सुर नहीं, जैसे अनार्य, जो आर्य जाति नहीं हैं। उन्होंने कहा कि असुर इस देश के मूल निवासी हैं, वे कहीं बाहर से नहीं आए। बाहर से आने वाले आर्य हैं। उन्होंने बताया कि आर्य लोग साढ़े तीन हजार वर्ष पहले इस देश में आए और उन्होंने इस तरह कपट से हमारे पूर्वजों से इस देश का शासन लिया और हम लोगों को अनाथ पाकर अपने काले कानूनों द्वारा कुछ को अछूत बनाकर उनसे कठोर काम लिए और कुछ वन-पर्वतों में भाग गए, जो अब भी जंगली हालत में रहते हैं।

अछूत शब्द के सम्बन्ध में उनका तर्क था कि द्विज हिन्दू हमें अछूत कहते हैं, पर अछूत का अर्थ है, जिसमें छूत न हो, अर्थात पवित्रा। उन्होंने कबीर साहेब के इस पद को उद्धृत किया-

छूतै जेमन, छूतै अचमन, छूतै जग उपजाया।
कहैं कबीर ते अछूत जानो, जाके संग न माया।।

स्वामी जी ने कहा कि इसी अर्थ में  ‘मेरा नाम अछूतानन्द है, अर्थात पवित्रता में आनन्द मानने वाला। हमारे आदिम पूर्वज भी पवित्र थे।’

स्वामी जी ने आदि हिन्दू मिशन का प्रचार और जनता में उसे प्रतिष्ठित करने के लिए साहित्य-सृजन को माध्यम बनाया था। वास्तव में वे सन्त परम्परा के बहुत ही उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने गजल, कव्वाली, ख्याल, कजरी, भजन, लावनी, आल्हा और कवित्त छन्द में कविताओं के सृजन के अतिरिक्त एक ‘आदिखण्ड काव्य’ तथा लोक सांगीत शैली में ‘मायानन्द बलिदान’ और ‘रामराज्य न्याय’ शीर्षक से दो महत्वपूर्ण नाटक भी लिखे थे। उन्होंने अपने काव्य में आदि हिन्दू आन्दोलन और उसके धर्म-दर्शन को रूपायित किया है। यह धर्म-दर्शन वर्णवाद, जातिवाद, शास्त्रावाद, अवतारवाद और परलोकवाद का खण्डन करता है, और निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर देता है। आल्हा और कवित्त छन्द में लिखे गए ‘आदिखण्ड काव्य’ के आरम्भ में ही निर्गुण ब्रह्म की उपासना, गुरु का स्मरण और आत्मज्ञान का प्रतिपादन किया गया है, जो सन्तों का मुख्य धर्म है। यथा-

पहले सुमरो सतगुरु स्वामी, दीन्हा लौकिक आतम ज्ञान।
ब्रह्मरूप चेतन घट-घट में, व्यापक सकल सृष्टि दरम्यान।
अलख अनादि अदेह अनूपम, आतम रूप झलक दरशाय।
है प्रत्यक्ष समक्ष सभी कै तौ भी, सहज समझ नहिं आय।

इसके आगे उन्होंने आर्यों के आगमन, अनार्य राजाओं के साथ उनके युद्धों और किस तरह आर्यों ने आदिनिवासियों को गुलाम बनाया, इसका वर्णन किया है। यथा-

अगुवा आर्य जाति ने माना, दिवोदास के धर सिर ताज।
वृत्र कृष्ण संवर नेता थे, आदि हिन्दुवन के महाराज।
जिनके सौ-सौ किले बने थे, अर्ध लाख सेना संग साज।
भारी युद्ध किया आर्यन से, होन हार की पड़ गई गाज।
छलौ छिद्र रच किले छीनकर, धोखे से कारे सब काज।
साम दाम और दण्ड भेद से, कपट नीति से किया स्वराज

आर्यों ने भारत के आदिनिवासियों को हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बनाने के लिए वर्णव्यवस्था बनाई, और उन्हें हमेशा गरीब बनाए रखने के लिए कर्ज और ब्याज में फॅंसाकर धनहीन बनाकर रखा, ताकि वे शिक्षित होकर अपने वंश को जगा न पाएँ और विद्रोह न कर पाएँ। उन्हें ऊँच-नीच और छूत-अछूत में फॅंसाकर रखा, ताकि वे संगठित न हो जाएँ। स्वामी जी ने लिखा कि अगर ये सछूत और अछूत आजादी चाहते हैं, तो उन्हें आपस की छुआछूत मिटाकर आदिवंश के रूप में सगठित होना होगा। यथा-

इसी नीति पर वर्ण व्यवस्था, रच के धर्म चलाई चाल।
रखें गुलामी में फुसलाकर, धर्म आड़ में करें हलाल।
जो कहीं रहके जोश प्रचारें, तो देवेगा वंश जगाए।
जो जग जावें असली हिन्दू, नकलिन की दुर्गत हो जाए।
कौन गुलामी करे हमारी, हमको फेर कहाॅं आराम।
सुख सपनेहूॅं में नहिं मिलिहें, करिहें कौन-कौन हम काम।
हमसे मेहनत नहिं होने की, परे-परे हम पाप कमाएँ।
ब्याज त्याज घर फॅंसा गरीबन, कलम कसाई बन धन खाएँ।
यही सबब ब्यौपार द्विजों ने, अपने रखा गोल के साथ।
थ्जससे धन-बल बढ़े न विद्या, ऊपर उठें न होएँ सनाथ।
जो आजाद होन तुम चाहो, तो अब छाॅंट देउ सब छूत।
आदिवंश मिल जोर लगाओ, पन्द्रह कोटि सछूत-अछूत।

 

जारी….(अगली कड़ी में बात करेंगे स्वामीजी के राजनीतिक तथा अन्य विचारों पर…)

 



कँवल भारती प्रसिद्ध लेखक तथा मीडिया विजिल संलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।