5 अगस्त..कश्मीर..देश और कुछ धुंधले सपने

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
ओप-एड Published On :


1.

कितनी रातें बीतती हैं जागते
और फिर भी नींद से बाहर नहीं आता हूं
आंख बंद होते ही नींद टूट जाती है
दिखता है सच
जैसा भयानक नहीं कोई सपना

एक बच्चे को अकेला छोड़ गया है कोई
मेले में जानबूझ कर
और किसी घोषणा पर
कोई उसे आकर ले जाने वाला नहीं

वो रात को जहां सोता था, सुबह कभी भी ख़ुद को वहां नहीं पाता था। उसकी मां भी कहती थी कि उसके पैरों में चक्कर है। लेकिन मां के पैरों में गोखरू था, जिसकी न उसे परवाह थी…न किसी और को। उसके साथ कम ही लोग रहते थे क्योंकि सबको लगता था कि उसे कोई काला जादू आता है, जिससे वो लोगों को इंसान बनाने लगता है।

वो इक्कीसवीं सदी का पंद्रहवां साल था और कोई इंसान बनने को तैयार नहीं था। ये मुश्किल और वक़्त लेने वाला ऐसा काम था – जिससे कोई फ़ायदा भी नहीं था। उसके बारे में सुनते थे कि जो इसके चक्कर में फंसा – बर्बाद हो गया।

उसे लोगों ने खूब कोसा, खूब गालियां दी और उसने पलट कर कभी जवाब नहीं दिया। यहां तक कि वो, जो ये जानते थे कि वो कभी जवाब नहीं देगा – वे गूंगे हो जाने की हद तक उसके ख़िलाफ़ ज़हर उगलते रहे। वो हर रात सोता और सुबह किसी और जगह उठता। ये शायद लोगों की बद्दुआओं का ही असर था कि वह किसी एक जगह चैन से रह न पाता।

एक रात वो सोया और उठा तो हैरान था कि वो उसी जगह कैसे था – जहां वो सोया था…उसने एक राहगीर से पूछा तो उसने बताया कि ये दुनिया का छोर है..उसने हैरानी से कहा – ‘लेकिन, दुनिया तो गोल है न…’ राहगीर ने मुस्कुरा के कहा, ‘धरती गोल है…दुनिया नहीं..और तुम वो ही हो न, जो रात को सोते कहीं हो और उठते कहीं और?’ उसने नीचे की सूखी घास पर जमी बर्फ को छूते हुए हामी में सिर हिलाया। राहगीर ने कहा, ‘तुम अकेले नहीं हो…और भी हैं ऐसे…मैं यहां इसीलिए आता-जाता रहता हूं कि तुम सबको यहां पहुंच जाने पर बता सकूं कि ये छोर है…और अब वक़्त आ गया है कि तुम लोग संभलो और दुनिया के दिए कपड़े पहन लो..दुनिया के दिए कपड़े-बद्दुआओं से बचाते हैं…इस छोर के बाद, सीधे दुनिया से बाहर धकेले जाओगे..’

उसने पूछा, ‘बाहर क्या है?’ राहगीर ने कहा, ‘मैं कभी गया नहीं…मुझे नहीं पता…ये मेरा काम भी नहीं कि पता करूं…मुझे नहीं सिखाया गया कि मैं कुछ नया पता करूं…तुम कुछ लोगों के अलावा किसी को नहीं ये फालतू ज़िद…’

वो चिढ़कर बोला, ‘अव्वल तो मैं ये नहीं मानता कि दुनिया गोल नहीं! दूसरी बात ये कि मैं अकेला हूं – ऐसा न तो है, न मैं होने दूंगा…तीसरा ये कि मैं क्यों पहनूं दुनिया के दिए कपड़े – क्यों नहीं दुनिया ही बद्दुआ देना छोड़ देती…’ राहगीर हंस कर बोला, ‘तुम फिर मुझसे ऐसा सवाल पूछ रहे हो, जिसका न तो मुझे जवाब पता है और न ही मैं ढूंढने वाला हूं…तुम लोगों के लिए दुनिया में हमेशा बर्फ़ का ही मौसम रहेगा…ये कपड़े पहन लो – दुनिया के दिए…सर्दी में गर्म रखेंगे और गर्मी में ठंडा..’

उसने हिक़ारत से उन कपड़ों को देखा और फिर मुस्कुराया। उसने ज़ेब से एक सिगरेट और एक माचिस निकाली। फेफड़ों को आग लगा कर, उसने कपड़ों के ढेर को एक साथ रखा और उस पर माचिस फेंक दी। राहगीर भी उसके साथ आग तापने बैठ गया और उसकी मां का पसंदीदा गाना, गाने लगा। गाना ख़त्म होते ही, वो उठा और जाने लगा।

राहगीर ने पीछे से आवाज़ लगाई, ‘कहां जा रहे हो अब?’

उसने कहा, ‘जहां, पहली बार रात सोया था और सुबह कहीं और उठा था…अब फिर से वहीं सोऊंगा…देखता हूं दुनिया इस बार गोल निकलती है या नहीं…’

2.

एक आंख से इतना खून गिरता है
कि रंग जाती है सारी दुनिया
आंख की रोशनी जाती रही है
और दुनिया…
वो कब कहां कुछ देखती थी

मैदान के किनारे
उग आता है अचानक समंदर
किताब के खुले पन्ने पर लिखा है
जहां हिमालय है
वहां सागर था कभी
घरों में कपड़े सुखाती औरतें
देखती हैं आती सुनामी
और भाग कर कांख में छुपा लेती हैं बच्चों को

भूकम्प से हिलती हैं इमारतें
और लोग घरों से बाहर भागते हैं
इतनी इमारतों के बीच
कैसे पाएंगे खुली जगह बचने को
सोचते हुए डर से मर जाते हैं आधे लोग
आधे बचे लोग
आंखों पर हथेलियां रख लेते हैं
जैसा कि सिखाया गया है उनको करना
हर मुश्किल में

उसने अपने आप से वादा किया था, ख़ुद से पहले मंज़िल पर पहुंच जाने का। उसके पास दो जोड़ी चप्पलें थी, जिसमें से एक–एक चप्पल टूटी थी और दोनों एक ही पैर की थी, तीन तरह के बर्तन थे और दो के तले में छेद था और एक में पानी चाहिए होता था, कांच का एक कुतुबनुमा था, जिसमें दिशाएं सलामत थी और सुई कोई दिशाहीन व्यक्ति चुरा ले गया था। उसके झोले में एक इस्तरी किए हुए कपड़ों और सफेद दाढ़ी वाले तानाशाह के मनमोहक भाषण थे, जिनसे ख़ुद को दिलासा दिया जा सकता था कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा। वो तेज़ दौड़ने की आदत पाल चुका था और चप्पलों के पीछे लिखा था कि ये ज़िंदगी भर साथ देंगी अलबत्ता ये नहीं लिखा था कि ये जुमला चप्पलों की ज़िंदगी पर लागू होता था कि उसकी…ये ही बात तानाशाह के भाषण में भी कई बार आती थी और तानाशाह की ज़िंदगी थी कि ख़त्म ही नहीं हो रही थी।
उसकी हथेलियों में हाथ के बल चलने के निशान थे, जबकि उसकी मां कहती थी कि वो पैदा होते ही दोनों पैरों पर सीधा खड़ा हो कर घर से बाहर निकल गया था। वो इस बात को मानने को राज़ी नहीं था, लेकिन पैदा होने के बाद से आजतक वो घर नहीं लौट सका था। एक पागल लेखक था, जिसे सब समझदार कहते थे, वो अक्सर कहता था, ‘घर कहीं नहीं होता…’ वो चाहता था कि वो उसकी कोई एक किताब पढ़े, लेकिन उसके झोले में पहले से तीन किताबें थी, जिसमें से एक वो चाहने के बाद भी जला नहीं सका था, जिसमें प्रस्तावना, पूरी किताब से बड़ी थी और बाकी दो किताबें, छूते ही उसके बीमार हो जाने ख़तरा था। वो किताब की जगह बनाने के लिए झोला पलटता, तो उसमें से एक बूढ़ी औरत की दो साड़ियां, एक बीमार बूढ़ा और दो मजबूर औरतें गिर पड़ती। वो सब कुछ संभालता और इंतज़ार करता, ख़ुद से पहले मंज़िल पर पहुंचने का…
उसने पिछली बार, रेगिस्तान में पानी पीते वक्त, अपना एक पैर काट लिया था, जिससे कि एक ही पैर की दो सलामत चप्पलें भी उसे ज़्यादा लगें और उसे यक़ीन है कि वो इससे तेज़ भाग सकेगा। ज़्यादा चप्पलों से तेज़ भागने का भ्रम, सिर्फ उसको ही नहीं है, तानाशाह के भाषणों में इसका ज़िक्र बार-बार आता है…
वो यक़ीन करता है, तानाशाह पर…चप्पलों पर…लिखे हुए गारंटी के वाक्य पर…और मां पर…जिनमें से दो से वो कभी नहीं मिला…और उनसे ही मिलना सबसे ज़रूरी था..एक को गले लगाने के लिए और एक को टूटी हुई चप्पलें भेंट करने के लिए…

3.

मैं जब-जब नींद से बाहर आता हूं
मेरी आंखें बंद हो जाती हैं
या फिर अंधेरा ही है नींद से बाहर
रोशनी सिर्फ नींद में
मैं जागती आंखों से सपने देख कर
जैसे ही सोना चाहता हूं
सच घेर लेते है मुझे

मुझसे पूछते हैं दोस्त                        
सोते नहीं हो…बीमार नहीं पड़ जाओगे
मैं जाकर बैठ जाता हूं
उस पेड़ की छांव में
जिसे काट दिया गया पिछली जनगणना के पहले
और ज़ोर से गाने लगता हूं राष्ट्रगान
मेरे सुर में सुर मिलाते लोग
परिजनों की लाशों पर रोना छोड़
सावधान में खड़े हो जाते हैं
और राष्ट्रगान के अंत में नारा लगाते हैं
भारत माता की जय का

जब वो किसी कमज़ोर को हथेलियों के बीच मसलता था – लोगों को लगता था कि उसके हाथ प्रार्थना में जुड़े हुए हैं। वो अमुक दिन, फलां जगह, इतने बजे प्रार्थना करेगा, ये उसने ही लोगों को बताया था। लोग बताने और बताए जाने के बड़े क़ायल थे। वे किसी के बताने पर किसी स्त्री को बुरा मान लेते थे, किसी के बता देने पर, बचपन के दोस्त से रिश्ते ख़त्म कर लेते थे। उन्हें बतया ही गया था बस कि उनका एक धर्म था और अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग ईश्वर थे, जो एक जैसे जिस्म वाले इंसान बनाते थे…दिलचस्प ये है कि उनको ये नहीं बताया गया कभी भी कि इन ईश्वरों के बीच कोई युद्ध कभी हुआ हो…हां, उनको बताया गया था कि ईश्वर जो सर्वशक्तिमान है, उसकी सत्ता को बचाने का युद्ध मनुष्यों को लड़ना है। ईश्वर बहुत चालाक ‘व्यक्ति’ था, उसने जानबूझ कर ‘बाकी’ जानवरों को नहीं बताया कि वो है, उसका एक धर्म है और जानवरों को भी उसकी सत्ता बचानी हैं…जानवरों के धंधे में सारे ईश्वर पार्टनर थे, जबकि मनुष्य जो ज़्यादा बड़ा और लाभ का धंधा था – उसमें वे अलग-अलग बिज़नेस करते थे और प्रतिस्पर्धी थे…
लोगों को बताया गया था कि अपने मामले में हमेशा सुबूत मांगो और दूसरों के मामलों में सिर्फ बताया जाना काफी है…जैसे कि बताया गया था कि किसी एक जगह और एक तरह के पेड़, हवा में ज़हर घोलते थे…ये बताए जाते समय, सुबूत पढ़े जाते – तो वो चीख के कह देते कि पेड़ हैं तो हवा है…वरना ज़हर है…बताए जाने पर भरोसे ने पेड़ कटवा दिए…पेड़ काट कर, ऑक्सीजन की कमी से मर गए योद्धा शहीद कहलाते हैं…पेड़ों को कभी न शहीद का दर्जा मिलता है…न ही कभी वुजूद का प्रमाण..पेड़ को भी बता दिया गया था कि इंसान कैसा भी हो जाए, उसे ऑक्सीजन देते रहना है…ये ही उसका धर्म है…पेड़ का धर्म कितना अलग था न…बताया जाता है कि जिन धर्मों में ईश्वर नहीं होते, वहां मनुष्यता (जैसी की अपेक्षित है पर है नहीं) बची रहती है…पेड़ ज़्यादा मनुष्य रह गया…मनुष्य तो ख़ैर पेड़ क्या ही होता…
बताया जाता है कि सदी के आख़िरी दिनों में एक पेड़ बचेगा और एक मनुष्य…तब मनुष्य पेड़ को प्यार करना सीखेगा और धीरे-धीरे उस आख़िरी पेड़ को अपनी मौत के पहले सूखता हुआ देखेगा…
लोग बताते हैं कि सब कुछ बताना नहीं पड़ता…मन की कई बातें तानाशाह, कभी नहीं कहता!

4.

ठीक उसी वक्त कुछ बच्चे आकर
अपनी छाती में मार लेते हैं तलवार
कुछ गर्भवती औरतें
अपनी नाभियां नोचने लगती हैं
ढेर सारे नौजवान फाइलों और डिग्रियों में आग लगाकर
उनमें कूद कर आत्मदाह करते हैं
और बूढ़े-बूढ़ियां नींद की दवा को
मुट्ठी भर के फांकते हैं

वो छोटी सी थी, पतली थी और एक बार में उसमें अमूमन 10-15 लोग ही अंदर नमाज़ पढ़ पाते थे…यूं लगता था शायद जब वहां बस्ती आबाद होने को ही थी, किसी ने अपनी इबादत के लिए वह मस्जिद बना ली थी…हालांकि अब उसके आस-पास एक घनी बस्ती आबाद थी और ठीक पास में ही लोगों ने अपने घर का कचरा फेंकने का ठिकाना बना लिया था…शहर जहां भी जाता है, वहां कचरा फैलाता है, वह मस्जिद कभी लोगों को तरसती थी, क्योंकि वहां वीराना था…अस्तबल था और कटरा बसने को था और अब वह लोगों को तरसती थी क्योंकि अस्तबल और कटरा उस घनी बस्ती के सैकड़ों मुहल्लों में खो गए थे…और उस लखौरी ईंटों से कोई डेढ़ सदी पहले बनाई गई मस्जिद की परवाह किसे थी…उसके दरवाज़े के बगल में बाहर ही एक वजू का हौज था, उसके बगल में एक पुरानी नक्काशी का अब आखिरी दिन गिनता दरवाज़ा था…वह दरवाज़ा शायद उस मस्जिद के आस-पास लगाया गया पहला दरवाज़ा था…और वह लड़की शायद उस दरवाज़े में रहने वाली आखिरी लड़की…

फाकों के दौर में भी वह रोज़ वक़्त पर वजू के हौज में पानी भरती थी, गोकि मस्जिद में कभी भी कोई नमाज़ी नहीं आता था…उसके पिता आखिरी मुअज्जिन थे, जो अपनी आखिरी नमाज़ के पहले, आखिरी वुजू कर के गए थे और उस रात के आखिरी खाने में उनको कई साल से सहेजे गए नींबू के अचार के साथ, चार रोटियां दे दी गई थी…इत्तेफाक कैसा था कि वह रोटियां भी कटोरदान में बची आखिरी रोटियां थी, नीचे की रोटी के गल जाने से वह समझ गए थे कि बीवी और बेटी आज कुछ नहीं खाएंगे और इसी तकलीफ में शायद उन्होंने अपनी आखिरी सांस, पानी के आखिरी घूंट के साथ ही ली थी…वह आखिरी रोज़ा था, जिसका इफ्तार सिर्फ अब्बू ने किया था और आखिरी ईद थी, जो उस घर में मनाई नहीं जा सकी…उस इमारत के साथ पहले और आखिरी का जो राब्ता था, उसको सिर्फ उसका पहला और आखिरी वारिस ही समझ सकता था…क्योंकि उन दोनों ने ही वह वीराना देखा था…पहला वीराना, जब वहां लोग ही नहीं थे…आखिरी वीराना, जब वहां बेशुमार लोग थे…इतने लोग कि सब वीरान दिखने लगा था…

ये बीसवीं सदी का भी आखिरी दौर था और लोगों के पास आखिरी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी बचे थे…आखिरी रेडियो कभी-कभी सांझ ढले बजते थे और उन पर सिर्फ खाड़ी मुल्कों में मजदूरी कर रहे रिश्तेदारों का ख्याल रखने के लिए ख़बरें सुन ली जाती थी…लेकिन या ख़ुदा, वह लड़की भी क्या शै थी कि पांचों वक्त वुजू के लिए ताज़ा पानी रखती थी…इतना ताज़ा कि कुदरत ने मानो सारी दुनिया की शबनम सुबह होते ही उस हौज में उड़ेल दी हो…लेकिन कुछ जानवरों और परिंदों को छोड़ कर उस पानी की ओर कोई नहीं देखता था…ये सही भी था, क्योंकि ये जानवरों और परिंदों का भी आखिरी दौर था और उस पानी पर इंसान की नज़र पड़ते ही वह भी उनके लिए नहीं बचना था…उसको किसी ने कभी ग़ौर से नहीं देखा था, इसलिए वह क़स्बे की शायद आखिरी ख़ूबसूरत लड़की बची थी, न उसकी आंखों में नफ़रत थी, न ख़ौफ़ और न ही शर्म…हां, शर्म जो छातियों को घूरती आंखों और नफ़रत, जो मौका देखते लोगों की ओर से तोहफ़ा होती है…उसने कभी सोचा भी नहीं था, कि कोई उसे देखता ही नहीं…और सिर्फ न सोचने से वह दिन पर दिन और ख़ूबसूरत होती जा रही थी…सुबह वुजुू का पानी भर कर, वह इत्मीनान से रसोई में जो भी होता, पकाने की कोशिश करती और बूढ़ी वालिदा को चाय पिला कर, पड़ोसी बूढ़ी आखिरी नवाब की बीवी के घर काम करने चली जाती…जिन दो घरों के बीच, उसकी इकलौती आवाजाही थी, वहां दो अकेली, औरतें थी, जिनकी उम्र मकानों की आखिरी पुताई से थोड़ी ज़्यादा थी…कुल जमा वो तीन औरतें थी और वह उन तीनों में से आखिरी औरत भी होने वाली थी…
उसकी आंखों में सिर्फ एक ख्वाब था और वो ख्वाब था कि किसी रोज़ उसके घर में नया रंग हो जाए…लेकिन शायद उसके लिए आसान ख्वाब था ये देखना कि उसे कोई देख ले…दूसरे ख्वाब से पहले ख्वाब की ताबीर हो सकती थी…यकीनन और भी कई ख्वाबों की…लेकिन पहला ख्वाब, दूसरे ख्वाब के बिना मुमकिन नहीं था…और दूसरा ख्वाब उसने कभी देखा ही नहीं…वह बहुत अच्छा गाती थी, लेकिन किसी ने उसे सुना नहीं था…वह बहुत अच्छा लिखती थी, लेकिन उसे किसी ने पढ़ा नहीं था…वह बहुत अच्छा सोचती थी, लेकिन उसने अर्से से कुछ न तो सोचा था…और न ही किसी से बताया था कि वह क्या सोचती थी…इसलिए उसको न किसी से डर था और न ही किसी को उससे कोई मुरव्वत थी…
एक दोपहर जब सूरज आसमान के सिर पर सवार था और गौरैयों की आखिरी नस्ल, उसके वजू के हौज पर उतर आई थी…एक साया लड़खड़ाता हुआ, हौज के पास पहुंचा…उसने दो रोज़ पहले आखिरी खाना खाया था और एक रोज़ पहले आखिरी पानी की बूंद पी थी…इत्तेफाक से, यह मुहर्रम की आखिरी दोपहर थी और इमाम हुसैन की प्यास को याद करने वाले लोगों में से किसी ने उसको पानी नहीं पिलाया था…वुजू के उस पानी में चिड़ियों के दाने गिरे हुए थे और वह मोती से चमकते थे…वह वहीं आकर बैठ गया और हथेलियों को पानी में डाल कर तेज़ी से पानी पीने लगा…पानी था कि या ख़ुदा, शबनम का दरया उसके जिस्म में उतर रहा था…वह नींद के आगोश में गया तो उसे पता ही न चला कि कब ख्वाबों की दुनिया में उसकी आमद हो गई…उस मस्जिद की सीढ़ियों पर बरसों बाद कोई बैठा था…वुजू के पानी में बरसों बाद किसी के हाथ गए थे…उस लड़की को दोपहर में बरसों बाद कोई खटका हुआ था…पुराने दरवाज़ों पर हवा ऐसी लड़ी कि बरसों बाद अम्मी को लगा कि दरवाज़े पर कोई है…

5.

मैं राष्ट्रगान के नशे में चूर
सिर को गर्व से आसमान की ओर उठाता हूं
और चल देता हूं वो महान झंडा ढूंढने
जो फहराने के भी काम आता है
और लाशों को ढंकने के भी

उसकी आंख खुली तो जैसे जिस्म का हर हिस्सा दुख रहा था, ऐसे लग रहा था कि वो अभी किसी मैदान ए जंग से लौटा है। जबकि वो लिखने के बारे में सोचता हुआ सो गया था। उसने देखने की कोशिश की कि वो कहां है, जबकि वो रात अपने कमरे में ही ढुलक गया था। चारों ओर घुप्प अंधेरा था और अंधेरे के ठीक बीच में लिखा था आसमान…आसमान वाले अंधेरे के एक कोने में लिखा हुआ था कि ये ठीक दोपहर है और सूरज अपने शबाब पर है…दूसरे कोने में लिखा था कि लिखा हुआ झूठ भी हो सकता है, लेकिन आंखें जो देखती हैं, उसके भी सच होने का दौर जा चुका है। वो उठना चाहता था और उसकी रीढ़ की हड्डी गायब थी…उसने हाथ से आसपास टटोला और पानी की दीवार का सहारा लेकर खड़ा हुआ…उसने देखा कि दूर से रोशनी आ रही है…वो रोशनी की ओर बढ़ने ही वाला था कि रोशनी की दिशा से भागते हुए कुछ लोग आए और अंधेरे के स्रोत की ओर गुम हो गए…वो न तो उनकी शक्लें देख सका, न उनके भाव…उनमें से एक गिर पड़ा और उसने टटोला तो उसके चेहरे पर न आंख थी, न होंठ और मुंह…बस एक नाक थी, जो हांफ रही थी…उसने टटोल कर अंदाज़ा लगाया कि वो एक फिरन पहने था और उससे गन पाउडर की गंध आ रही थी…अचानक अंधेरे के सबसे अंधेरे कोने में 3 गिनतियां लिख कर सामने आ गई…1947, 1948, 370 और उसके बाद लोगों के नाम आसमान से टूट कर गिरने लगे…वो शख्स उठ कर अपने साथियों के पीछे भाग गया…उसने फ़र्श पर हाथ फिराया तो एक टोपी, एक शॉल और एक अंगीठी वो छोड़ गया था…और अचानक रोशनी की ओर से एक झंडा उड़ता हुआ आया, जिससे ख़ून चू रहा था…वो झंडे को धो देना चाहता था पर झंडे के हर सिरे पर त्रिशूल टंगे थे…उसी वक़्त रोशनी की ओर से हवा में टंगे फ़ौजी बूट निकले और बूटों के ऊपर गांधी टोपी, बिना बांह की सदरियां थी…सदरियों पर रोशनी से जगमगाता लोकतंत्र लिखा था…धीरे-धीरे सदरियों का आकार बढ़ रहा था और लोकतंत्र की ज़रदोज़ी छोटी होती जा रही थी…उसने एक सदरी छूने की कोशिश की और बूट ने उसके गाल पर छाप छोड़ दी…उसने गाल पर हाथ फिराया तो वहां संस्कृत में ‘अधिनायक’ छपा था…अचानक राष्ट्रगान की धुन बजने लगी और उसने दूर से आती धुन में अंदाज़ा लगाया कि इसमें शुरुआत के 3 शब्द गायब हैं और बस चौथा ही गाया जा रहा है…धुन इतनी दूर से आ रही थी फिर भी वो सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया…उसके कानों से ख़ून बह रहा था, लेकिन जितनी भी बार वो कान पर हाथ रख कर, ख़ून रोकने की कोशिश करता – राष्ट्रगान दोबारा बजना चालू हो जाता…वो बेहोश हो कर नीचे गिरने लगा और फ़र्श पर दोबारा टकराने से पहले उसने एक जुमला सुना,,,,
‘हाय हुसैन…’ और फिर कहीं से कोई औरत गा रही थी…

सुगरा मदीना लुट गया
चिल्लाई ज़ैनब पीट सर
सुगरा मदीना लुट गया

मदीना दिल्ली था…मदीना लाहौर था…मदीना हिंदुस्तान था…मदीना पाकिस्तान था – और मदीना लुट रहा था…

उसने कहने की कोशिश की कि ये तो राही मासूम रज़ा के नॉवेल आधा गांव का हिस्सा है…और उसी समय ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ आने लगी…मदीना श्रीनगर था…मदीना कुपवाड़ा था…मदीना अनंतनाग था…मदीना बलूचिस्तान था…मदीना सीरिया था…मदीना मोसुल था…मदीना मिर्चपुर था…मदीना श्रीलंका था…मदीना जाफ़ना था…मदीना रोहिंग्या थे…मदीना कश्मीरी थे…मदीना सब तरफ था…मदीना लुट गया…

और फिर उसकी आंखों में बहुत तेज़ रोशनी हुई, इतनी कि वो बेहोश हो कर लुढ़क गया…उसकी नाक ज़मीन पर टोपी की सीवन को छू रही थी और उसके नीचे फ़िरन किसी चादर सा बिछ गया था…आसमान में अब रोशनी थी और पानी की दीवार पर, एक हाथ में काला झंडा लिए, एक हाथ से एक बच्चा लिख रहा था, ये रोशनी ही अंधेरा है, जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं…बच्चे की आंखों में डीटीएच की छतरियां थी, चेहरे पर पैलेट के निशान और वो मुस्कुरा रहा था…इतना कि आप उसे देख कर, कई सदी तक रो सकें…उधर किसी और दुनिया के लखनऊ में मीर अनीस रोते हुए कह रहे थे…

आख़िर सर-ए-इमाम-ए-उमम तन से कट गया

चिल्ला के फ़ातिमा ने ये ज़ैनब को दी सदा

मैदाँ से जल्द ले के सकीना को घर में जा

बे-जुर्म कट गया तिरे माँ जाए का गला

मारा ब-ज़ुल्म शिम्र ने प्यासे को जान से

मैं लुट गई हुसैन सिधारे जहान से

मुख़्तार ख़ान की पुलित्ज़र विजेता तस्वीर – AP

6.

मेरे पास एक बस्ता था, जिसमें एक कलम था और कोई नोटबुक या डायरी नहीं…एक खाली काग़ज़ नहीं…दो किताबें, जिनमें से एक मैं पढ़ चुका था और दूसरी कभी पढ़ना नहीं चाहता था…पहली किताब मैं सिर्फ इसलिए साथ लेकर घूमता था कि उसका एक-एक पन्ना मुझे याद था तो पढ़ने में मशक्कत नहीं होती थी…और दूसरी किताब इसलिए साथ रख कर ले आया था कि मैं नहीं चाहता था कि कोई और भी उसे पढ़े…
बस्ते में एक चाकू था बिना धार का और उसका हत्था घिसकर बेहद धारदार हो चुका था…इतना धारदार कि उसको थाम को किसी को डराने में भी अपने हाथ ख़ून से रंग जाते थे…बस्ते के आगे की तरफ एक छोटी ज़ेब थी और एक बड़ी…छोटी ज़ेब में कुछ कंचे थे, जो आवाज़ करते रहते थे कि अकेले चलते, डर न लगे और बड़ी ज़ेब में आंखों में बूंद-बूंद कर के डालने के लिए एक तेज़ाब की बोतल, एक रोशनाई, जिसका रंग घुप्प था…और वो कलम में डाली जा सकती थी, बशर्ते मेरे पास कोई नोटबुक या डायरी होती…बस्ते में एक ज़ेब किनारे थी, जिसमें यक़ीन था…कलम, रोशनाई, नोटबुक और चाकू के फल और हत्थे के लिए यक़ीन…धार सबको चाहिए थी, हत्थे के सिवा…
मेरी कमीज़ में एक ज़ेब थी, जिसमें तमगे थे, जिनको मैंने राजधानी के कबाड़ के ढेर से चुराया था…पतलून की आगे की दोनों ज़ेब फटी थी और उसमें मैंने सिक्के भर रखे थे…पीछे की ज़ेब में नींद थी…और दो जोड़ी आंखें, मैंने रूमाल में बांध कर कमर में खोंस ली थी…
मैं चल रहा था और मेरे नीचे ज़मीन करवट बदलने की तैयारी में थी, बिना ये सोचे कि राहगीर लड़खड़ा कर गिर सकता है…राहगीर की ज़ेब में नींद है और बस्ते में यक़ीन…दोनों मिल नहीं सकते हैं, दोनों में से कोई एक ही एक जगह हो सकता है…
मुझे कई सालों से दूर एक पेड़ दिख रहा था, जो पूरे आकार का था लेकिन फिर भी उसका तना हरा था और उसके इर्द-गिर्द लगातार बारिश होती थी…कुछ औरतें उसे घेर कर ढोलक बजा रही थी…ज़्यादातर लोगों ने बताया था कि वहां बारिश होती है…कान में आकर कुछ लोग कह गए थे कि वो दरअसल रोती थी…पर बारिश तो होती ही थी…तुम जो चाहों मान सकते हो…वो तुम्हारी सुविधा के लिए ही रो रही हैं…मैंने आसमान की ओर देख कर अंदाज़ा लगाया कि मुझे चलते हुए दो ज़िंदगियां और आधा जन्म गुज़रा है…मैं सोच ही रहा था कि कुछ देर रुक सुस्ता लिया जाए कि तभी एक औरत गुज़री, जो भीड़ लिखी एक गाड़ी के पीछे भाग रही थी और गाड़ी पर ज़िंदगी लिखा हुआ एक साइलेंसर था…जिसमें से मारो-मारो की आवाज़ आ रही थी…औरत ने मुझे देख कर पूछा, “क्या तुमने मेरे बेटे को देखा है? मेरे शौहर को…मेरे भाई को…” मैंने न में सिर हिलाया और मैं और तेज़ चलने लगा…रुकने के पहले मैं उसे आवाज़ देना चाहता था कि वहां सड़क किनारे एक मोबाइल है और उसका सिम निकालने लौैट आएंगे तुम्हारे घर के सारे मर्द…लेकिन वो गाड़ी बहुत शोर कर रही थी और तेज़ रफ्तार भी थी…मैं रुकने से पहले फिर चलना चाहता हूं क्योंकि जब भी कम्पास देखता हूं, तो ये बताता है कि वहीं खड़ा हूं, जहां से चलना शुरु किया था…
इस जगह का नाम क्या है मैं पूछता हूं…एक घुटी सी आवाज़ आती है…मुलुक…एक और घुटी आवाज़ आती है…वतन…एक घुटी आवाज़ आती है…देस…और फिर आसमान गूंजता है…राष्ट्र, राष्ट्र, राष्ट्र…..

भीड़ देखती रहती है लोग सड़क पर तड़पते मर जाते हैं
भीड़ मार देती है लोगों को तड़पा कर
देश से राष्ट्र बनने तक
भीड़ ही तो है संविधान और धर्म के बीच का फासला
जो कम होती है तो क़ानून का राज है
बढ़ जाती है तो धर्म
और बनी रहती है तो हो जाती है संविधान


मयंक सक्सेना, मीडिया विजिल की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं। पूर्व टीवी पत्रकार हैं, वर्तमान में मुंबई में फिल्म लेखन करते हैं। मीडिया विजिल के वीडियो सेक्शन के संपादक मयंक के वीडियोज़ आप हमारे फेसबुक पेज पर देख सकते हैं।

 


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