शाहू जी महाराज: वर्णव्यवस्था का दुश्चक्र तोड़ने खिंची एक ‘प्रत्यंचा’


शाहूजी महाराज का शासनकाल सामाजिक सुधारों के लिए हमेशा याद किया जाएगा। खासतौर पर ब्राह्म्णवादी वर्चस्व को जैसी चुनौती उन्होंने दी, वह उस दौर में बेहद क्रांतिकारी कदम था। आरक्षण के विरुद्ध सवर्णों में आज भी कितनी तीखी प्रतिक्रिया है, यह सहज ही देखा जा सकता है। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उनका प्रबल विरोध किया जब उन्होंने 26 जुलाई 1902 को कोल्हापुर राज्य की शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में दलितों-पिछड़ों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की शुरआत की। यह आधुनिक भारत में जाति आधारित आरक्षण की शुरुआत थी।


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26 जून, जन्म दिन पर विशेष:

शिवाजी महाराज के वंशज, कोल्हापुर के शासक शाहूजी ने सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जैसे प्रयोग किये, वैसा पराधीन भारत में किसी दूसरे शासक ने शायद ही किये हों। जब भारतीय मानस में शूद्रों के बारे में हर विचार मनुस्मृति की घृणित धारणाओं पर आधारित थी, तब उन्होंने अपनी रियासत में उनके लिए शिक्षा और नौकरियों में 50 फ़ीसदी आरक्षण लागू किया था। बीसवीं सदी के दूसरे साल यानी 1902 में किया गया उनका यह महान प्रयोग आज़ाद भारत के संविधान के तहत किये गये ज़रूरी उपायों में शामिल किया गया। जिसकी वजह से करोड़ों परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आया जो यूँ  ‘पूर्व जन्म के कर्मों का फल’ भोगने को अभिशप्त कहे जाते थे।

छत्रपति शाहू जी महाराज का जन्म 26 जून 1874 को हुआ था। उनके बचपन का नाम यशवंत राव था। तीन साल की उम्र में उन्होंने अपनी माता को खो दिया था। बाद में शिवाजी चतुर्थ की विधवा रानी आनंदी बाई ने 1884 में उन्हें गोद लिया और वे कोल्हापुर राज्य के उत्तराधिकारी घोषित हुए। 2 जुलाई 1894 को वे शासक बने और उनका शासन 28 साल उनके निधन तक चला।

शाहूजी महाराज का शासनकाल सामाजिक सुधारों के लिए हमेशा याद किया जाएगा। खासतौर पर ब्राह्म्णवादी वर्चस्व को जैसी चुनौती उन्होंने दी, वह उस दौर में बेहद क्रांतिकारी कदम था। आरक्षण के विरुद्ध सवर्णों में आज भी कितनी तीखी प्रतिक्रिया है, यह सहज ही देखा जा सकता है। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उनका प्रबल विरोध किया जब उन्होंने 26 जुलाई 1902 को कोल्हापुर राज्य की शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में दलितों-पिछड़ों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की शुरआत की। यह आधुनिक भारत में जाति आधारित आरक्षण की शुरुआत थी।

यही नहीं, उन्होंने 1917 में बलूतदारी प्रथा का भी अंत किया जिसके तहत शूद्रों को थोड़ी सी ज़मीन देकर बदले में उसके पूरे परिवार से गाँव के लिए मुफ्त सेवाएं ली जाती थीं। 1918 में वतनदारी प्रथा का अंत किया और भूमि सुधार लागू करके शूद्रों के भूस्वामी बनने का रास्ता साफ किया। ज्योतिबा फुले से गहरे प्रभावित शाहू जी महाराज ने डॉ.आंबेडकर के महत्व को समय रहते पहचान लिया था। 1920 में मनमाड की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- “मुझे लगता है कि डॉ.आंबेडकर के रूप में दलितों को उनका मुक्तिदाता मिल गया है।”

ऐसे शासक और भी हुए हैं जिन्होंने जनता के हित के लिए स्कूल, अस्पताल, सराय, सड़क आदि बनवाये, लेकिन शाहू जी महाराज जैसा कोई नहीं था जिसने वर्णव्यवस्था की चक्की में पिस रहे दलित-पिछड़े समाज को इस चक्की को नष्ट करने का आह्वान किया और इसके लिए उन्हें सशक्त भी किया।

कुछ समय पहले हिंदी के मशहूर कथाकार संजीव ने शाहू जी महाराज के जीवन पर आधारित प्रत्यंचा शीर्षक से उपन्यास लिखा था। वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने इस पर अपनी फ़ेसबुक दीवार पर क्या लिखा था, नीचे पढ़िये-

मित्रो,

अभी अभी वाणी प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित संजीव जी का नया उपन्यास ‘प्रत्यंचा’ पढ कर समाप्त किया है.गजब का पठनीय और ज़रूरी उपन्यास.कोल्हापुर के राजा छत्रपति शाहू जी महाराज की जीवनगाथा के बहाने बीसवीं सदी के शुरुआती बीस पचीस वर्षों की सामाजिक उथल पुथल का जीवंत और रोमांचक दस्तावेज़.जातिवाद,ब्राह्मणवाद ,अस्पृश्यता,अशि़क्षा आदि ज्वलंत मुद्दों पर एक क्रान्तिकारी विचारों वाले राजा,समाज और अन्य नेताओं का दृष्टिकोण और परस्पर भिडंत.इसमें फुले भी हैं तिलक भी,अम्बेडकर भी गाँधी भी,रवीन्द्रनाथ टैगोर भी विवेकानंद भी.शंकराचार्य भी और सन्तराम बी.ए. भी.

शाहू जी ने बीसवीं सदी के पहले दूसरे दशक में अपने राज्य में कानून बना कर अस्पृश्यता को दंडनीय बनाया.एक दलित को चाय की दुकान खुलवा कर खुद उसकी दुकान पर दरबारियों के साथ जाकर चाय पीते रहे.दलित छात्रावास में भोजन किया.दलित रसोइया रखा.इसके लिए अपनी प्रजा तथा ब्राह्मणों के साथ साथ अपनी माता तथा रानी का विरोध झेला.सन् 1871 में अंग्रेज़ों द्वारा अपराधी घोषित जनजाति ऐक्ट को अपने राज्य में समाप्त किया.सरदार विट्ठल भाई पटेल नें सितम्बर 1918 में केन्द्रीय विधिमंडल से अन्तर्जातीय विवाह कानून पास कराने का प्रयास किया था जब कि साहूजी ने इसे 1918 के प्रारंभ में ही अपनी कौंसिल से पास करा लिया था.उन्होंने उस ज़माने में अपने राज्य में दलितों पिछड़ों मुसलमानों के लिए 50%आरक्षण लागू कर दिया था.

कुस्ती के लिए,अन्तर्जातीय विवाह के लिए,अस्पृश्यता निवारण के लिए,शिक्षा के लिए,गीत संगीत के लिए,सिनेमा के लिए प्रोत्साहन और आर्थिक सहायता दी. जीवनगाथा से अधिक यह उपन्यास सामाजिक वैचारिकी का दस्तावेज़ है और इसी सन्दर्भ में यह हिन्दू धर्मग्रन्थों (पुराण,महाभारत,मनुस्मृति आदि) में उल्लिखित बुराइयों और ज़्यादतियों का प्रतिबिंब भी प्रस्तुत करता है.उदाहरणार्थ-

पेज 123 पर मत्स्यपुराण का प्रसंग:

दालभ्य ऋषि ने अब्राह्मण स्त्रियों से कहा-पापनाश और मोक्षप्राप्ति का एक मात्र उपाय है सभी विप्र देवताओं को रति सुख देकर प्रसन्न करो.

इसी पृष्ठ पर महाभारत के सुदर्शन क्षत्रिय का प्रसंग है.सुदर्शन अपनी पत्नी को अमरत्व का उपाय बताते हैं कि कोई भी ब्राह्मण यदि तुम्हें भोगना चाहे तो खुशी खुशी उसे वह सुख प्रदान करना.ऐसा करने से मुझे अमरत्व मिलेगा.

पूरे उपन्यास में इस प्रकार के उद्धरण दर्जनों हैं.

संजीव जी ने तेरह उपन्यास लिखे है.इनमें मुझे ’सावधान नीचे आग है’ ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’फाँस और ‘ सूत्रधार’ विशेष उल्लेखनीय लगते हैं.पर अब ‘प्रत्यंचा’ पढ़ने के बाद मैं इसे सबसे ऊपर रखना चाहूँगा.इसे लिख कर संजीव जी एक साथ अपने लेखकीय और सामाजिक दोनो ऋणों से उऋण हुए हैं.

यदि आप कुछ पढ़ने की योजना बना रहे हैं तो सबसे पहले ‘प्रत्यंचा’ पढ़िए.पढने का सुख भी मिलेगा और संतुष्टि भी.