गाय के नाम पर अंधविश्वासों का गोबर लीप रहा है आरएसएस!

कँंवल भारती कँंवल भारती
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प्रिय पाठको, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी।  दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी  बीसवीं कड़ी जो 29 सितंबर 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक


आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म

 

 

 

गोवंश, रक्षण, पालन तथा संवर्धन

 

           आरएसएस के राष्ट्र जागरण अभियान की छठी पुस्तिका का नाम ‘गोवंश, रक्षण, पालन तथा संवर्धन’ है और इसके लेखक डा. प्रेमचन्द जैन हैं. 11 पृष्ठों की इस पुस्तिका का आरम्भ इन पंक्तियों से होता है—

          ‘हिन्दू गाय को परम्परा से माता मानते आये हैं, परन्तु गौ केवल हिन्दुओं की माता ही नहीं है, अपितु ‘गावो विश्वस्य मातर:’—गौवें समस्त विश्व की माता हैं. गाय समान रूप से विश्व के मानवमात्र का पालन करने वाली माँ है. गौ के शरीर में तैतीस करोड़ देवता निवास करते हैं. एक गाय की पूजा करने से स्वयमेव करोड़ों देवताओं की पूजा हो जाती है. ‘माता: सर्वभूतानाम गाव: सर्वसुखप्रदा:’—गाय सब प्राणियों की माता है और प्राणियों को सब प्रकार के सुख प्रदान करती है.’ [पृष्ठ 2]

          गाय समस्त विश्व में किन देशों की माता है, यह नहीं पता; पर निस्संदेह वह हिन्दू भारत की माता जरूर है. 1921 की विधानसभा में हिन्दू नेता रायबहादुर पंडित जे. एल. भार्गव ने कहा था कि ‘इसे हमारी सनक कहें या अंधविश्वास, पर गाय हमारे लिए पूजनीय है.’ [Mother India, Kaitherine Mayo, pp. 224] कैथरीन मेव ने लिखा है कि एक बार ग्वालियर के महाराजा सिंधिया से अनजाने में गाय की हत्या का पाप हो गया था, जिसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने शुद्धि-अनुष्ठान कराया था और ब्राह्मणों को दान दिया था. [वही] हिन्दुओं में गाय के प्रति यह विश्वास आज भी मौजूद है. पर इसके साथ ही उनका दोहरा चरित्र यह भी है कि वे अपनी बूढ़ी और अनुपयोगी गोमाता को कसाई को बेचने में भी कोई संकोच नहीं करते हैं. उनकी गो-भक्ति का एक काला पक्ष यह भी है कि गोमाता की मृत्यु होने पर वे उसकी लाश को नहीं उठाते हैं, यहाँ तक कि उसे छूते भी नहीं हैं. ऐसा करने पर वे धर्म-भ्रष्ट हो जाते हैं. यह उनका धर्म है, जिसमें गोमता जीते-जी है, मरने पर वह अछूत हो जाती है. इसलिए उसे उठाकर ले जाने के लिए वे दलित बस्ती से उन लोगों को बुलाकर लाते हैं, जो मृतक पशुओं की खाल उतारने का काम करते हैं. यह भारत की अकेली पाखंडी कौम है, जो अपनी माता को सड़कों पर भूखों मरने के लिए छोड़ देती है, और मरने पर अपनी माँ को कन्धा भी नहीं देती है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, गुजरात के ऊना में मृतक गाय को ले जा रहे पांच दलितों को आरएसएस के गोभक्तों ने पीट-पीटकर मार डाला था, जिसके प्रतिरोध में दलितों ने गुजरात की सड़कों पर मरी गायों की लाशें फेंक दी थीं, और नारा दिया था— ‘हिन्दुओं, अपनी माताओं को उठाओ.’

          आरएसएस के अनुसार, ‘जब गौ के शरीर में तैतीस करोड़ देवता निवास करते हैं, और एक गाय की पूजा करने से स्वयमेव करोड़ों देवताओं की पूजा हो जाती है, तो इन करोड़ों देवताओं वाली गाय को पूजने वाला हिन्दू उसके मरने पर उसे उठाकर पुण्य कमाने का काम क्यों नहीं करता?

          आरएसएस के लेखक आगे लिखते हैं, ‘ऋग्वेद ने गाय को ‘अघन्या’ कहा है. यजुर्वेद कहता है, गौ अनुपमेय है. अथर्ववेद में गाय संपत्तियों का घर है. ब्रह्माण्ड पुराण में समस्त गौवें साक्षात विष्णुरूप हैं. पद्मपुराण का कथन है, गौ के मुख में चारों वेद रहते हैं.’ [गो.र.पा.त.सं, पृष्ठ 2]

          सवाल यह है कि जब गाय की इतनी महिमा है, तो गौमेध यज्ञ क्यों होता था, जिसमें गाय की बलि दी जाती थी? आरएसएस के पंडित इसका खंडन करते हैं. पर हिन्दूधर्म शास्त्र इसकी पुष्टि करते हैं. यह सच है कि ऋग्वेद में गाय को ‘अघन्या’ कहा गया है, जिसका अर्थ होता है ‘मारने योग्य नहीं.’ इसका मतलब है कि गाय को मारा जाता था, इसीलिए उसकी हत्या को रोकने के लिए उसे ‘अघन्या’ कहा गया था. यह असल में उसे मारने के विरुद्ध निषेधाज्ञा थी. इसका अर्थ यह नहीं है कि गाय की हत्या नहीं होती थी. आखिर ऋग्वेद में बैल [4/24], सांड, भेड़ [10/27-28] का मांस खाने और धेनु को अघन्या मानने के बावजूद बहिला गायें बलिपशु थीं. [2/7/5 व 10/61/14] इसकी पुष्टि राहुल सांकृत्यायन के ग्रन्थ ‘ऋग्वेदिक आर्य’ से भी होती है. [दे. पृष्ठ 160]

          ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य ब्राह्मण-ग्रंथ भी इस बात की गवाही देते हैं कि ब्राह्मण गोमांस खाते थे. स्थानाभाव के कारण हम उन प्रमाणों को यहाँ देना ठीक नहीं समझते हैं. समझने की बात यह है कि ब्राह्मणों ने किस काल में और किन परिस्थितियों में गोमांस खाना छोड़ा? इससे भी बड़ी हैरानी इस बात की है कि ब्राह्मण पूरी तरह शाकाहारी कैसे हो गए और अब्राह्मणों ने गोमांस खाना कब छोड़ा? इस सम्बन्ध में देशी-विदेशी अनेक विद्वानों ने अनुसन्धान किए हैं, पर मुझे डा. आंबेडकर का मत ज्यादा समीचीन लगता है. उनका मत है कि ब्राह्मणों का गोमांसाहार छोड़कर गोपूजक बनने के रहस्य का मूल बौद्धों और ब्राह्मणों के संघर्ष में मिलता है. वह विस्तार से बताते हैं—

‘एक समय था, जब अधिकांश भारतवासी बौद्ध थे. यह सैकड़ों वर्षों तक भारतीय जनता का धर्म रहा. इसने ब्राह्मणवाद पर ऐसे आक्रमण किए, जो उससे पहले किसी ने नहीं किए थे. ब्राह्मणवाद अवनति पर था और यदि  एकदम अवनति पर नहीं, तो भी उसे अपनी रक्षा की पड़ गई थी. बौद्धधर्म के विस्तार के कारण ब्राह्मणों का तेज न राजदरबार में रहा था और न जनता में. वे उस पराजय से पीड़ित थे, जो उन्हें बौद्धधर्म के हाथों मिली थी. इसलिए वे अपनी शक्ति और तेज को पुनः प्राप्त करने के लिए हर प्रकार से प्रयत्नशील थे. जनता के मन पर बौद्धधर्म का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ चुका था, और वह उसके इतना अधिक काबू में आ गई थी कि ब्राह्मणों के लिए और किसी भी तरह बौद्धधर्म का मुकाबला कर सकना एकदम असंभव था. उसका एक ही उपाय था कि वह बौद्धों के जीवन के रंगढंग को अपनावें और इस मामले में उनसे भी बढ़कर एकदम सिरे पर जा पहुंचें. बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्तियाँ तथा स्तूप बनाने आरंभ किए, ब्राह्मणों ने इसका अनुकरण किया. उन्होंने अपने मन्दिर बनाए और उनमें शिव, विष्णु, राम तथा कृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित कीं. उद्देश्य इतना ही था कि बुद्ध-मूर्ति की पूजा से प्रभावित जनता को किसी न किसी तरह अपनी ओर आकर्षित करें. इस प्रकार जिन मन्दिरों और मूर्तियों के लिए हिन्दूधर्म में कोई स्थान नहीं था, उनके लिए स्थान बना.  ‘इसी क्रम में ब्राह्मणों ने गोवध वाले यज्ञों को त्याग दिया था और वे बौद्ध भिक्षुओं से भी एक कदम बढ़कर पूरी तरह शाकाहारी हो गए थे.

‘जब बौद्ध भिक्षु मांस खाते थे, तो ब्राह्मणों को उसे छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी. फिर ब्राह्मण मांसाहार छोड़कर शाकाहारी क्यों बन गए? इसका कारण इतना ही था कि वे जनता की दृष्टि में बौद्ध भिक्षुओं के साथ समान तल पर नहीं खड़ा होना चाहते थे. ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि बौद्ध भिक्षुओं पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए वे वैदिक धर्म के अपने एक अंश से हाथ धोवें.’ [दे. अछूत कौन और कैसे?, अनुवादक : भदन्त आनंद कौसल्यायन, 1967, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ, पृष्ठ 128-160]

          इस लम्बे उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मण कब और क्यों गोमांसाहार छोड़कर शाकाहारी हुए? इसके पश्चात् ही गाय को पवित्र और पूज्य मानने के लिए ग्रन्थ लिखे गए. इसी काल में गाय के शरीर में तैतीस करोड़ देवताओं का वास कराया गया और  जनता में उसकी पूजा करने का आस्था-भाव पैदा किया गया. जबकि, वैदिक काल में गाय में न तैतीस करोड़ देवताओं का वास था और न वह पूजनीय थी.

          गोभक्त आरएसएस के लेखक ने गाय के 14 वैज्ञानिक महत्व बताए हैं, जिनमें से कुछ पर यहाँ चर्चा करना जरूरी है—

  1. [3] ’जिन घरों में गाय के गोबर से लिपाई-पुताई होती है, वे घर रेडियो-विकिरणों से सुरक्षित रहते हैं.’

पता नहीं, नागपुर के आरएसएस-भवन की लिपाई-पुताई रोज ही गाय के गोबर से होती है या नहीं. लेकिन यह पता है कि गरीबों के कच्चे घरों में सदियों से गोबर में पीली मिटटी मिलाकर गुबरी होती रही है, हमारे घर भी कच्चे थे, और हमारी माँ भी पूरे घर में गोबर-मिटटी की गुबरी करती थी. संभवत: आज भी गरीबों के कच्चे घरों में यह होता हो. पर उस वक्त भी जब गरीबों के घरों में गुबरी होती थी, ब्राह्मण गोबर को हाथ नहीं लगाते थे, और जब सीमेंट भारत में आया, तो सबसे पहले सक्षम ब्राह्मणों ने ही गोबर से अपना पिंड छुड़ाया था. उल्लेखनीय यह है कि गोबर से लिपे-पुते घरों में ही सबसे ज्यादा रोगाणु पैदा होते थे, और उनमें रहने वाले लोग हमेशा बीमार रहते थे. गोभक्त हिन्दू तब भी मस्त और स्वस्थ रहते थे. घरों में गोबर की लिपाई-पुताई समाज के पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है. गतिशील समाज तरक्की किया करता है, पीछे की ओर गमन नहीं करता है. लेकिन आरएसएस हिन्दू समाज को पीछे की ओर ले जाने की शिक्षा दे रहा है, इसलिए अतीतग्रस्त दिमाग में यह बात नहीं आ सकती कि घड़ी की सूई उलटी दिशा में नहीं चलती है. हालाँकि न आरएसएस का कोई नेता, यहाँ तक कि मोहन भागवत भी, और न भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने आवास में गोबर की लिपाई-पुताई कराते होंगे. पर, गाय के नाम पर उनका ढोंग जारी है.

  1. [7] गाय के घी को अग्नि में डालकर धुआं करने अथवा इससे हवन करने से वातावरण एटामिक रेडिएशन से बचता है.

एटामिक रेडिएशन से बचने का कितना मंहगा और सर्वनाशी तरीका है. आरएसएस के इन महाशय को गाय के घी की कीमत ही नहीं मालूम, वरना ऐसे पागलपन का विचार उनके कचरा-भरे दिमाग में आता ही नहीं. लोगों को घी खाने को नहीं मिल रहा है, और ये महाशय एटामिक रेडिएशन से बचने के लिए घी को आग में डलवा रहे हैं. क्या हाल होगा, अगर लोग इस पागलपन के विचार को मानकर घर-घर में आग में घी डालकर हवन करने लगें, तो एटामिक रेडिएशन का तो पता नहीं, पर घर-घर में तपेदिक और दमा के मरीज जरूर पैदा हो जायेंगे. और जो लोग रोज-रोज आग में घी डालकर हवन करेंगे, वे कंगाल हो जायेंगे. गाय का घी खाकर आदमी स्वस्थ होता है, यह बात तो कुछ हद तक समझी जा सकती है, पर गाय के घी को आग में झोंकने की कुशिक्षा तो आरएसएस ही दे सकता है.

  1. [8] गाय एवं उसकी संतान के रंभाने की आवाज से मनुष्य की अनेक मानसिक विकृतियाँ एवं रोग स्वयमेव दूर हो जाते हैं.

इसका मतलब है कि मनुष्य की मानसिक विकृतियों और रोगों को दूर करने के लिए, गौओं और उनकी संतान—बछड़ों-बछियों को दिन भर रंभाने दिया जाए. क्योंकि वे तभी रंभाते हैं, जब वे भूखे होते हैं, इसलिए उनको भूखा रखा जाए, ताकि वे दिनभर रंभाते रहें. आश्चर्य है कि आरएसएस के दिमाग में इस तरह का इल्हाम आता किस लोक से है? आरएसएस अपने इस कारगर उपाय को देश के मानसिक रोग चिकित्सालयों में लागू क्यों नहीं करवा देता? वहां मानसिक रोगी गाय और उसकी संतान के रंभाने की आवाज से एक ही दिन में ठीक हो जायेंगे.

  1. [10] क्षय रोगियों को गाय के बाड़े या गोशाला में रखने से गोबर और गोमूत्र की गंध से क्षय रोग के कीटाणु मर जाते हैं.

क्षय रोग का क्या गजब का इलाज है आरएसएस के पास! अफ़सोस कि अभी तक भारत के चिकित्सा संस्थानों ने इस गजब के इलाज को नहीं अपनाया ! अच्छा होता, अगर आरएसएस गोबर और गोमूत्र की गंध से ठीक होने वाले क्षय रोगियों का विवरण भी यहाँ देता. गाय का महिमा-मण्डन करने में, लगता है, आरएसएस ने अपनी बुद्धि भी बेच खाई है.

  1. [11] एक तोला गाय के घी से यज्ञ करने पर एक टन आक्सीजन बनती है.

आरएसएस के पास इतनी महान ‘दिव्य खोज’ होने के बाद भी अगर आक्सीजन की कमी से अस्पतालों में बच्चे अकाल मौत मर रहे हैं, तब तो यह सचमुच शर्म की बात है. आरएसएस को तुरंत भाजपा-राज्यों में अपने मुख्यमंत्रियों को आदेश देना चाहिए कि वे सभी अस्पतालों में आक्सीजन के उत्पादन के लिए गाय के घी से यज्ञ करवाना आरम्भ करें. और यह है भी कितना सस्ता– केवल एक तोला घी, यानी कुल दस ग्राम घी, और एक टन आक्सीजन का उत्पादन! वाह रे, आरएसएस ! क्या अद्भुत दिमाग है !! ऐसा करो, पूरे देश को ही यज्ञशाला बना दो. सारी बीमारियाँ दूर हो जाएँगी.

  1. [12] ‘रूस में प्रकाशित शोध जानकारी के अनुसार कत्लखानों से भूकम्प की संभावनाएं बढ़ती हैं.’

यह तो वास्तव में कमाल हो गया. आरएसएस ने कार्य-कारण के विज्ञान को ही बदल दिया. सारी दिव्य खोजें तो उसने खुद की हैं, भूकम्प की खोज के लिए रूस पहुँच गए. अगर कत्लखानों के कारण भूकम्प आते हैं, तो मुस्लिम देशों में तो रोज भूकम्प आने चाहिए, क्योंकि सबसे अधिक कत्लखाने इन्हीं देशों में हैं. फिर, रूस में ही क्यों, चीन में भी रोज भूकम्प आने चाहिए. कहीं  आरएसएस का हिन्दू दिमाग यह बताना तो नहीं चाह रहा है कि पृथ्वी गाय के सींग पर टिकी हुई है, और उसे कत्ल करने पर पृथ्वी हिल जाती है, और भूकम्प आता है? मगर रूस आरएसएस की तरह जाहिल दिमाग वाला नहीं है, जो इस तरह की अवैज्ञानिक खोज करे. अत: यह धारणा भी आरएसएस के उन झूठों में शामिल है, जो उसके द्वारा गढ़े जाते रहे हैं.

  1. [13] ‘गाय की रीढ़ में सूर्यकेतु नाड़ी होती है, जो सूर्य के प्रकाश में जागृत होती है. नाड़ी के जागृत होने पर वह पीले रंग का पदार्थ छोड़ती है. अत: गाय का दूध पीले रंग का होता है. यह केरोटिन तत्व सर्व रोग नाशक, सर्व विष विनाशक होता है.’

अब इस तथ्य की सत्यता का पता तो तभी चलेगा, जब किसी सांप काटे या जहर खाने वाले प्राणी को गाय का दूध पिलाकर परीक्षण किया जाए और देखा जाए कि वह विष-मुक्त होता है या नहीं? लेकिन शायद ही कोई इस अवैज्ञानिक इलाज को अपनाकर पीड़ित को मौत के मुंह में डालना चाहेगा.

[14] ‘गाय के घी को चावल के साथ मिलाकर जलाने पर अत्यंत महत्वपूर्ण गैसें, इथिलीन आक्साइड, प्रोपीलीन आक्साइड आदि बनती है. इथिलीन आक्साइड गैस जीवाणुरोधी होने के कारण आपरेशन थिएटर से लेकर जीवनरक्षक औषधि बनाने के काम में आती है. वैज्ञानिक प्रोपोलीन आक्साइड गैस को कृत्रिम वर्षा का आधार मानते हैं.’ [गो.र.पा.त.सं., पृष्ठ 4]

गाय के वैज्ञानिक महत्व की इस तरह की और भी स्थापनाएं पुस्तिका लेखक ने प्रस्तुत की हैं, जिनके बारे में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि आरएसएस ने देश की किस प्रयोगशाला में ऐसे प्रयोग करके ये निष्कर्ष निकाले हैं. लेकिन यहाँ यह सवाल तो उठता ही है कि जब गाय का इतना विशाल वैज्ञानिक महत्व है, तो भारत में गो-भक्तों की गोशालाओं में गायों की दुर्दशा क्यों हो रही है? भूख-प्यास से बेहाल गायें सूखकर पिंजर क्यों हो रही हैं? . क्यों नहीं आरएसएस इन गोशालाओं में आक्सीजन एवं इथिलीन आक्साइड और प्रोपीलीन आक्साइड गैसों के उत्पादन का प्लांट लगा देता? इससे कम से कम गायों को खाने को तो मिलेगा. वे भूखों तो नहीं मरेंगी.

पर, हकीकत में आरएसएस का गाय-प्रेम केवल एक ढोंग है. अभी गत दिनों अनेक गोशालाओं में सैकड़ों की संख्या में गायों के मरने के समाचार से भी आरएसएस का कोई नेता गोहत्या के पाप से शर्मसार नहीं हुआ था. गो-प्रेम का उसका असली एजेंडा हिन्दू-मुस्लिम-संघर्ष का है. आगे प्रेमचन्द जैन इस एजेंडे को स्पष्ट ही कर देते हैं—

          ‘भारत में गोवध मुसलमानों के आने के बाद और विशेषकर अंग्रेजों की हुकूमत होने पर प्रारम्भ हुआ. पहले गोवध नाम को भी नहीं था. मुसलमानों ने भी गोवध न के बराबर किया. मुगल बादशाहों ने गोवध कानूनन अपराध बनाया था. अंग्रेज के आने के बाद, विशेषकर अपने राज्य की नींव पक्की करने के लिए, जब उन्होंने ‘बांटो और राज्य करो’ की नीति अपनाई, तब से मुसलमानों और हिन्दुओं को लड़ाने और उनमें वैरभाव उत्पन्न करने के लिए हिन्दुओं द्वारा माता मानी जाने वाली गौ का वध करने के लिए मुसलमानों को अधिकाधिक उकसाया. इससे हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध बढ़ता गया.’ [वही, पृष्ठ 7]

          आगे उन्होंने गोहत्यारों को मारने के लिए भी आरएसएस के एजेंडे को स्पष्ट कर दिया है—

          ‘गोरक्षा कार्य के तीन प्रमुख पहलू हैं—गौओं की रक्षा करना, उनको कत्लखानों में जाने से रोकना तथा मांस निर्यात बंद करना. विश्व हिन्दू परिषद के गोरक्षा विभाग ने 20 मार्च 1996 [वर्ष प्रतिपदा से सम्वत 2053] को गोरक्षा वर्ष के तौर पर मनाया. राज्यों की सीमाओं पर बजरंग दल और गोरक्षा कार्यकर्ताओं ने चौकियां बनाकर अवैध गो-निकास को रोका. डेढ़ लाख से अधिक गोवंश की इस प्रकार रक्षा करके उनको चलती गोशालाओं में रखा गया और उसी वर्ष सौ के लगभग नए गोसदनों की स्थापना भी की गई. उसके बाद से नई गोशालाओं की स्थापना तथा अवैध निकासी रोकने का कार्य बजरंग दल, और हिन्दू समाज के अन्य लोगों द्वारा हो रहा है.’ [वही]

इससे कथन से हाल के दिनों में तथाकथित गोरक्षा कार्यकर्ताओं के द्वारा गोरक्षा के नाम पर की गयीं निर्दोष मुसलमानों और दलितों की हत्याओं के पीछे आरएसएस के मजबूत हाथ को समझा जा सकता है.

वास्तव में गायें, भैंसें और बकरियां भारत में दूध के लिए पाले जाने वाले पशु हैं. उनका धर्म से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है. लेकिन आरएसएस जिस आक्रामकता के साथ गाय को हिंदुत्व से जोड़ रहा है, वह हिन्दू-मुसलमान के बीच स्थाई शत्रुता बनाये रखने के षडयंत्र के सिवा कुछ नहीं है. ऐसा षडयंत्रकारी हिंसक हिंदुत्व न हिन्दुओं का भला कर सकता है, न समाज का और न देश का. गाय की तथाकथित पवित्रता पर खड़ा यह हिंदुत्व भारत में मनुष्यों का खून तो बहा सकता है, पर राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकता.

[जारी…]

 

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