धर्म, मृत्युभय और चित्रकला : पीटर ब्रॉयगल का एक कालजयी चित्र


धर्म ने मनुष्य के मन में बार बार एक काल्पनिक ‘डर’ के संचार करने का प्रयास किया, और जिसे ज्यादा भयावह बनाने के लिए ‘सामूहिक मृत्यु’ यानी एक ही समय में-एक ही कारण से बड़ी संख्या में मृत्यु की कल्पना को, बार बार चित्रित किया गया। अकाल, युद्ध और महामारियों के दौरान जब मनुष्य ने सामूहिक मृत्यु के काल्पनिक रूप को एक भयावह यथार्थ के रूप में देखा, तब भी धर्म ने ऐसी त्रासदियों को अपने स्वार्थ में इस्तेमाल किया।


अशोक भौमिक अशोक भौमिक
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‘समय और चित्रकला ‘ शीर्षक से प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक की लेख शृंखला की यह  चौथी कड़ी पहली बार 10 मई 2020 को मीडिया विजिल में प्रकाशित हुई थी।  कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की  यह साप्ताहिक शृंखला लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। इस बार यह शृंखला लगातार दस दिन तक प्रकाशित होगी- संपादक।

मनुष्य का विकास का इतिहास उसकी कल्पनाशीलता के विकास का भी इतिहास रहा है। आदिम काल से ही उसने शैलाश्रयों की दीवारों पर अपने को चित्रों की नायाब ‘भाषा’ में अभिव्यक्त करने की कोशिश की। अपने विकास क्रम में मनुष्य को धर्म ने युद्ध, अकाल, महामारी के कारण से हुई आकस्मिक मृत्यु को स्वाभाविक मृत्यु से अलग करके देखना और डरना सिखाया। धर्म ने ही ‘क़यामत’ ( एपोकेलिप्स) की कल्पना को चित्रों के माध्यम से मूर्त करने की कोशिश की। क़यामत या महाविनाश की अवधारणा को लिपिबद्ध करने का प्रयास नवीं शताब्दी ईसा पूर्व में यहूदियों में हुआ, बाद में अन्य धर्मों में भी इसे अपने अपने ढंग से लिखा। हिन्दू धर्म में महाप्रलय को जल-प्लावन या बाढ़ के रूप में कल्पना करते हुए ‘मनु’ के आगमन की कथा कही गयी है। इस विषय पर एक दिलचस्प चित्र, गीता प्रेस ( गोरखपुर ) द्वारा पिछली सदी में प्रकाशित किया गया था (देखें चित्र-1)। इस चित्र में मत्स्यावतार द्वारा एक नाँव को खींचते हुए देखा जा सकता है जहाँ नाँव पर मनु के साथ-साथ,सात ऋषि (सप्तर्षि ) विराजमान हैं। ईसाई धर्म में भी महाप्लावन या ‘डेल्यूज’ की कल्पना है। चित्रकार गुस्ताव डोर द्वारा 1866 में, ‘पवित्र बाइबिल ‘ के लिए बनाये गए ऐसे डेल्यूज या महाप्लावन का चित्रण है ( देखें चित्र 2 ) है।

(चित्र -1)

(चित्र-2)

यहाँ स्पष्ट है, कि धर्म ने मनुष्य के मन में बार बार एक काल्पनिक ‘डर’ के संचार करने का प्रयास किया, और जिसे ज्यादा भयावह बनाने के लिए ‘सामूहिक मृत्यु’ यानी एक ही समय में-एक ही कारण से बड़ी संख्या में मृत्यु की कल्पना को, बार बार चित्रित किया गया। अकाल, युद्ध और महामारियों के दौरान जब मनुष्य ने सामूहिक मृत्यु के काल्पनिक रूप को एक भयावह यथार्थ के रूप में देखा, तब भी धर्म ने ऐसी त्रासदियों को अपने स्वार्थ में इस्तेमाल किया।

जैसा कि हम जानते है कि युगों से, विभिन्न धर्मों द्वारा किये गए ऐसे प्रयासों में चित्रकला ने एक बहुत ही प्रभावशाली भूमिका निभाई है। इसी सन्दर्भ में, यहाँ हम पीटर ब्रॉयगल (1525-1569) की एक कालजयी कृति को देख सकते हैं। पीटर ब्रॉयगल डच नवजागरण के एक बेहद महत्त्वपूर्ण चित्रकार थे जिन्होंने किसान समाज और किसानी पर अनेक चित्र बनाये थे। उनके चित्रों में हमें एक ख़ास किस्म का परिप्रेक्ष्य (पेर्स्पेक्टिव) नजर आता है जहाँ दूर की चीजें,आकार में छोटी होती दिखती हैं पर अस्पष्ट नहीं होतीं। पीटर ब्रॉयगल के चित्रों में गहराई (डेप्थ) और सपाटता (फ्लैटनेस) को हम एक साथ देख पाते हैं, जिसे उनके चित्रों की एक विशेषता के रुप में हम चिन्हित कर सकते हैं।

पीटर ब्रॉयगल के चित्रों की दूसरी ख़ासियत उनके सूक्ष्म विवरणों (डीटेल्स) में है। चित्रकला के इतिहास में ,अपने चित्रों में विशाल जन समूह को चित्रित करने के लिए उनकी विशेष ख्याति रही है। इन सब के अलावा पीटर ब्रोयगल एक ऐसे चित्रकार थे जो अपने चित्रों में भयानक त्रासद मुहूर्तों में भी एक सहज विनोद उपस्थित कर पाते हैं। उनके द्वारा बनाये गए चित्रों में 1562 में रचित ‘मृत्यु की विजय (ट्रायम्फ ऑफ़ डेथ)’ अन्यतम है। पीटर ब्रॉयगल का यह एक विचलित कर देने वाला चित्र (देखें लेख का मुख्य चित्र, सबसे ऊपर) हैं, जिसमें मृत्यु को एक बड़ी आबादी को नष्ट करते दिखाया गया है। चित्र में  जहाँ कंकाल रूपी मृत्यु आम जनों को विविध तरीकों से अपने गिरफ्त में ले रहा है वहीं चित्र में जगह जगह पर धार्मिक प्रतीकों को हम देख पाते हैं। चित्र के ऊपरी बायें कोने पर (देखें चित्र 4) हम ‘मृत्यु घंटे’ (डेथ नेल) को बजाते हुए कंकालों को देखते हैं, जो मृत्यु के साथ जुड़ा एक धार्मिक प्रतीक है और जहाँ दो सलीब भी दिख रहें हैं।

(चित्र-4)

इस चित्र में हम कुछ उपदेशात्मक कथाओं को भी देख पाते हैं। चित्रकार ने, चित्र के निचले बायें कोने पर एक राज पुरुष को मरते हुए दिखाया है ( देखें चित्र 5 ) जो मरते हुए भी मुकुट और राजभेष में ही है। इस वयक्ति की सोने चाँदी के सिक्कों के रूप में कमाई हुई सम्पदा, पास ही सड़क पर बिखरी पड़ी है। इस चित्र में, जहाँ सर्वत्र मृत्यु की उपस्थिति एक महाविनाश को दर्शाता है, वहीं चित्र के दाहिने नीचे कोने में एक प्रेमी जोड़ा इन सब से बेखबर,संगीत में डूबा हुआ है ( देखें चित्र 6 ) ।

(चित्र-5)

(चित्र-6)

ऐसे सामूहिक मृत्यु के दृश्यों और मृत्यु के प्रतीकों की कल्पना, चित्रकारों ने नहीं बल्कि मठों के पुजारियों ने धार्मिक पुस्तकों में की थी जिसे चित्रकारों ने चित्रित भर किया था। ऐसे धार्मिक प्रचारक, लिखित या वाचिक व्याख्याओं की सीमा को खूब जानते थे और इसीलिये हज़ारों वर्षो से, इस काम के लिए उन्होंने चित्रकला का बार बार उपयोग किया। इस बात को हम कुछ और प्रतीकों से समझने की कोशिश कर सकते हैं।

पश्चिम के धर्मों में क़यामत को चार घुड़सवारों के साथ कल्पना की जाती रही है। इसाई धर्म में ‘क़यामत के चार घुड़सवार’ जैसी कल्पना में चार घोड़ों में से पहले और सफ़ेद घोड़े पर सवार को विजय का प्रतीक माना जाता है और कई लोग इसे ईसा मसीह के रूप में देखते हैं।दूसरे घोड़े का रंग लाल मान गया है जो युद्ध और खून-ख़राबे का प्रतीक है। तीसरा घोडा काले रंग का है जो अकाल और भुखमरी का प्रतीक हैं। इन चार घोड़ों में चौथा घोड़ा पीले रंग का है जिसके माध्यम से महामारी को दिखाया जाता है।

एक लम्बे समय तक चित्रकला का विकास पूरी तरह से धर्म के गिरफ्त में रह कर होता रहा है। इस बात को विभिन्न कालों में बने चित्रों के बीच की समानताओं में हम आसानी से देख पाते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के एक धार्मिक पुस्तक में ‘ क़यामत के चार घुड़सवारों ‘ को निश्चित रंगों में देख सकते हैं ( देखें चित्र 7 )। चौदहवीं सदी (1377) के एक पट्ट चित्र (स्क्रॉल) में हम पीले घोड़े पर सवार चार घुड़सवारों में से उस विशेष घुड़सवार को देखते हैं ( देखें चित्र 8 ) जिसका सम्बन्ध महामारियों से बताया गया है।

(चित्र-7)

(चित्र-8)

पीटर ब्रॉयगल का चित्र ‘ मृत्य की विजय ‘ की परिकल्पना में चित्र के केंद्र में कमज़ोर घोड़े की उपस्थिति को हम उपरोक्त तथ्यों से बेहतर समझ सकते हैं। उसी तरह से, इस चित्र में दिखाए गए कंकालों की भीड़ को हम 1493 में बने न्यूरेम्बर्ग क्रॉनिकल में चित्रित डांस ऑफ़ डेथ या मृत्यु नृत्य से जोड़ सकते हैं ( देखें चित्र 9 ) ।

(चित्र-9)

जैसा कि हम जानते है कि ,पीटर ब्रॉयगल ने ‘मृत्यु की विजय’ चित्र 1562 में बनाया था। पर, जब हम इस चित्र को सौ वर्षों से भी पहले बनाये गए (1446) इटली के पालेरमो के ‘ डांस ऑफ़ डेथ ‘(देखें चित्र 10) के साथ रख कर देखते हैं, तो हमें इन दोनों चित्रों में अद्भुत समानता दिखती है।

(चित्र-10)

धार्मिक प्रतिष्ठानों द्वारा, मनुष्य के मन-मस्तिष्क में एक काल्पनिक भय को संचारित करने के उद्देश्य से, इन समानताओं या पुनरावृत्तियों को चित्रों में स्थापित किया गया। धर्म द्वारा चित्रकला को गुलाम बना कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने का यह एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण भी है जिससे कभी कभी चित्रकारों की मौलिकता पर प्रश्नचिन्ह भी लगते रहे हैं । लेकिन, इन सब के बावजूद पीटर ब्रोयगल का चित्र ‘मृत्यु की विजय’ अपने कला गुणों के लिए, चित्रकला इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कृति के रुप में प्रसिद्द है।

 



अशोक भौमिक हमारे दौर के विशिष्ट चित्रकार हैं। अपने समय की विडंबना को अपने ख़ास अंदाज़ के चित्रों के ज़रिये अभिव्यक्त करने के लिए देश-विदेश में पहचाने जाते हैं।
जनांदोलनों से गहरे जुड़े और चित्रकला के ऐतिहासिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर लगातार लेखन करने वाले अशोक दा ने इतिहास के तमाम कालखंडों में आई महामारियों के चित्रकला पर पड़े प्रभावों पर मीडिया विजिल के लिए एक शृंखला लिखना स्वीकार किया है। उनका स्तम्भ ‘समय और चित्रकला’, हर रविवार को प्रकाशित हो रहा है। यह चौथी कड़ी है। पिछली कड़ियाँ आप नीचे के लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

पहली कड़ी- धर्म, महामारी और चित्रकला !

दूसरी कड़ी- महामारियाँ और धार्मिक चित्रों में मौत का ख़ौफ़ !

तीसरी कड़ी- महामारी के दौर मे धर्मों और शासकों का हथियार बनी चित्रकला !