ये हमने कैसा समाज रच डाला है: दामाने ख़्याले यार छूटा जाये है मुझसे!


आपको डर नहीं लगता ?… “पहले लगता था जब पत्रकार था”, पटेल ने जवाब देते हुए कहा, “लेकिन जब से एक्टिविस्ट हुआ हूँ तबसे नहीं लगता… जब अपने अंदर आप जानते हों कि मैं सही हूँ तब बहुत हौसला मिलता है… मैं जेल जाने से नहीं डरता… मुझे कितने कोड़े मारेंगे, मैं बड़ी जाति का हूँ, पाटीदार हूँ… मुझे ज़्यादा कोड़े नहीं मारेंगे, मुझ पर बहुत सारे आरोप नहीं लगायेंगे, क्योंकि मैं मुसलमान और औरत नहीं हूँ… देखिये देश तो वहाँ पहुँचने वाला है जहाँ ये इसे ले जाना चाहते हैं… लेकिन जो हो रहा है उसके ख़िलाफ़ बोलना चाहिए, विशेषकर हिन्दुओं को, सवर्णों को आवाज़ उठानी चाहिए।”


मनोहर नायक मनोहर नायक
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पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद तो दिल बैठ गया … दिल- दिमाग़ में पस्ती की घुसपैठ है | बेबस करती और अंधेरा झोंकती यह लहर ज़बरदस्त थी और उसने उस दुनिया को जैसे ध्वस्त कर दिया जो बड़ी हसरत से इन चुनावों से उम्मीद बांधे हुए थी। इधर जीवन में फिर कुछ जीवन लौटा है… मिलना- जुलना शुरू हुआ है, गोकि बेसाख़्तगी नदारद है और भेंटों में औपचारिकता भर चुकी है। … बहुत दोस्त, जानकार मिले, पत्रकार मिले… पराजित, श्लथ, अवसन्न। उम्मीद हारे हुए, बुझे हुए।  बातचीत में राजनीति की बातें कमतर हो गयीं हैं… अगर कोई गरमाया मुद्दा हो तो उस पर ज़रूर कुछ टीका- टिप्पणी नहीं तो बातों में राजनीति अब उतनी ही है जितनी अभी थोड़े दिन पहले राजनीतिक बहसों में दूसरी बातें हुआ करती थीं।

ऐसा लगता है जैसे इन नतीजों ने एकबारगी ही बुलडोजरी निज़ाम के ख़िलाफ़ सारे वाज़िब तर्कों को तबाह कर दिया। अपना पक्ष जैसे ढह कर अपने ही ऊपर भरभरा गया हो। एक लम्बी चुप्पी छायी है।  कमोबेश यही आलम है।  कवि, लेखक अशोक वाजपेयी ने लिखा कि इन परिणामों से उन्हें गहरा सांस्कृतिक धक्का लगा है | चुनावी माहौल बहुत ‘सही’ लग रहा था पर पिछले आठ सालों से सब सही धड़ल्ले से ग़लत साबित हो रहा या कर दिया जा रहा है… इस बार भी जो माना, बताया और विश्लेषित किया जा रहा था वह इस तरह धराशायी हुआ कि लगा यह सब ख़्वाब में ख़याल को मामला जैसा कुछ था… नतीजों से ज़मीन ही खिसक गयी।  चतुर और अनुभवी एंकरों ने एग्जिट पोल से ख़तरा भांप कर आनन- फानन डैमेज कंट्रोल शुरु कर दिया, लेकिन उनके पत्रकारों- विश्लेषकों को जैसे ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सदमा लगा।  शायद कुछ चीज़ें आंखों से ओझल रही हों… सरकारी नीतियों और उपेक्षा ने करोड़ों निरीह-निर्दोष नागरिकों को भिखारी की हैसियत में ला दिया… याचक बनाकर अयाचक करने का सरकार का यह रामराज्यी फ़ार्मूला शायद कारगर रहा पर हुआ यह भी कि चुनावी पंडितों के जाति आदि के फलां- फलां फ़ीसदी वाले आंकड़े अंततः साम्प्रदायिक कीच में विगलित हो गये।

देश के मध्य भूभाग में धर्मान्धता और कट्टर राष्ट्वाद संघसेना के अमोघ अस्त्र हैं, ऊपर से इनकी अमर्यादित आचार संहिता… किसी नियम – विधान से इन्हें मतलब नहीं, इसलिए वे कभी इनके आड़े आते नहीं …. यह बात इन सालों में इनकी कारगुजारियों से समझ में आनी चाहिए… अपवाद हैं और रहेंगे पर नियम इनके हैं और बड़ा मैदान इनके क़ब्ज़े में है।  इन्होंने चीजों , स्थितियों , घटनाओं की तार्किकता को नष्ट कर दिया है… आशंकित और अप्रत्याशित अब सहज प्रत्याशित है। इन पाँच चुनावों और ख़ासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों पर उम्मीद इतनी मुनहसर थी कि जो परिणाम मिले उन्होंने उम्मीद ही छीन ली… एक गहन मुक्तिकामना को गहरी ठेस लगी क्योंकि चौबीस के आमचुनाव भी इसी आहत पड़ी उम्मीद से जुड़े थे… और अभी एकदम तो ,कोई उम्मीद बर नहीं आती … यह नाउम्मीदी दीदनी है कि उम्मीद के ख़याल का पल्लू भी छूटा जा रहा है।

यह निराशा उस छटपटाहट से उपजी है जो उस क्रूर, अधम और आपराधिक राजनीति से त्राण चाहती है जिसके बारे में अशोक वाजपेयी कहते हैं कि इन चुनावों ने फिर उस राजनीति को सत्ता सौंप दी जो हमारी संस्कृति की अभूतपूर्व विकृति है। मायूसी इसलिए है कि महामारी का कुप्रबंधन, सामाजिक- आर्थिक बदहाली, सरकार पोषित हिंसा, साम्प्रदायिकता, असहमति के प्रति प्रतिहिंसा ये सब बेअसर रहे…. अशोक वाजपेयी के इस निष्कर्ष से भला क्यों इंकार होगा कि व्यापक हिंदू समाज को लोकतंत्र, स्वाधीनता, समता और न्याय के मूल्यों से कोई लगाव नहीं रह गया है… उदारता, उदात्तता की उसे रत्ती भर परवाह नहीं | इसलिए ‘विकृति’ के फिर फिर जीतने पर बहुत बड़ी संख्या में लोग विक्षुब्ध और हताश हैं और इनमें यूट्यूब चैनलों के वे पत्रकार, विश्लेषक और टिप्पणीकार भी हैं जिनके अनुमान सही नहीं बैठे… पर ये सब विचारवान, सही भावना से काम करने वाले देश और समाज के लिए बेचैन और सजग लोग हैं। … हालात संगीन हैं… सिर्फ़ चुनाव के बाद से अभी तक के घटनाक्रम को देख लें, मंज़र नाउम्मीदी बढ़ाने वाला है…. गोया हम ग़ालिब वाले अंधेरे ही अंधेरे से भरे घर ( ज़ुल्मतकदे) में हों… मुक्तिबोध की काव्य पंक्ति में कहें तो, ‘रात के जहाँपनाह का शासन है’ , और रात तो अँधेरा ही अँधेरा दे सकती है। इस समय देश में जो राजनीतिक – सामाजिक माहौल है वह निराशावादी है।

लोकतंत्र में हार- जीत को सामान्य बताने वाले दल भूल जाते हैं कि यह वह बीच का समय है जिसमें आपके राजनीतिक कर्म जीत या हार को तय करते हैं… काँग्रेस वातानुकूलित कक्षों में जा चुकी है … मध्य प्रदेश में उसने जवाबी रणनीति ज़रूर बनायी …. रामनवमी पर हनुमान चालीसा का पाठ. ‘ बेगि हरो हनुमान महाप्रभु, जो कछु संकट होय हमारो।’  केजरीवाल तिकड़मों के अटल विश्वासी हैं … बाक़ी सब भी स्वार्थी और अहमन्य हैं,.. देश और जनता से परे राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले। अखिलेश को मुसलमानों ने थोक में वोट दिये पर मुसलमानों पर इस समय क्या बीत रही है इससे अब उन्हें कोई मतलब नहीं। वैसे उनसे यानि मुसलमानों से किसी को कोई मतलब नहीं।  किसी बड़ी घटना के दस, बीस, पच्चीस, चालीस, पचास, सौ साल होने का मीडिया में बड़ा महत्व होता है… ऐसे हर मौक़े पर परिशिष्ट निकलते हैं… आपातकाल और चौरासी के दंगों पर हमेशा वे निकलते हैं और ठीक ही निकलते हैं … इन पाँच चुनावों के ऐन बीच २००२ के गुजरात नरसंहार का क्रूरतम सप्ताह आया, अपने कुत्सित कारनामे के दो दशक पूरे करता हुआ, पर ‘ इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक रिपोर्ट और एक लेख के सिवा कहीं कुछ न छपा और न दिखा | सपा, काँग्रेस , बसपा, वाम , आप, तृणमूल किसी ने इसको लेकर चूँ भी नहीं की… अब बाबरी ध्वंस के तीस साल होंगे तो उनका भी यही हश्र होना है | राजनीतिक दलों को जनता की आवाज़ माना जाता हैं पर हर ज़रूरी चीज़ पर वे चुप हैं… समाज में व्याप्त चुप्पी उन्हीं की महाचुप्पी ने पैदा की है।

अच्छा ,सीताराम येचुरी फिर माकपा के महासचिव बन गए, इससे कोई राजनीतिक- वैचारिक स्फुरण हुआ क्या! पाँच चुनावों के दौरान कहीं नाम भी नहीं सुनाई दिया। सब के सब जनता से कटे हुए हैं।  राजनीतिक दल हों, नागरिक- सामाजिक संगठन हों , जनता मे सबके सोते सूख चले हैं सब मुरझाये, निस्तेज हैं… विचारोत्तेजक, बहसों वाली जगहें ख़त्म हो गयीं हैं … खाने- पीने , गपशप , मनोरंजन के अड्डे दिन दूने बढ़ रहे हैं… राजनीति, साहित्य, पत्रकारिता ने जनता की गलियों में जाना छोड़ दिया है…. कवि जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’ की एक कविता की पंक्तियां याद आती हैं : ‘ भाई हम लिखते पढ़ते हैं / हम जबलपुर के जड़िया हैं / जनता की गलियों में जाकर / टूटी तस्वीरें मढ़ते हैं / भाई हम पढ़ते लिखते हैं।

इतने साल सत्ता में सुखासीन रहती आयीं पार्टियाँ और दूसरे जनता के तमाम अलमबरदार अपनी छोटी- छोटी सत्ताओं में मुग्ध, मदहोश रहे और ‘वे’ लोग जनंता में पैठते गये… विष बोते, उसे उभारते गए। आज उनके पास सत्ता है और उस पर उनकी सख़्त पकड़ है।  वे सब कुछ बदलने तहस- नहस करने पर आमादा हैं.. खान-पान- परिधान सब।  आपकी कोई आवाज़ नहीं, कोई विरोध नहीं। अभी महीने भर में देख लीजिए क्या नहीं हुआ… हिजाब, हलाल के मुद्दे लाये गए, मुसलमानों पर पाबंदियाँ लगायीं, नवरात्र पर माँसाहार की बिक्री पर रोक, न मानें तो एक संसद पुत्र द्वारा दुकान लूटने का उकसावा, उनसे व्यवसाय छीनने के षड्यंत्र, एक भगवाधारी ने उनके नरसंहार का आह्वान किया तो दूसरे ने खुलेआम उनकी औरतों को अगवा कर उनसे बलात्कार करने की ललकार लगायी।  हिंदुओं से अधिक संतानोत्पत्ति की अपील है … ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ फ़िल्म को लेकर साम्प्रदायिक कटुता गहरी करने की कोशिश और उसके लिए सरकारी शह और मदद। और अभी रामनवमी पर भगवा ब्रिगेड के लम्पटों ने जो जगह- जगह आतंककारी जुलूस निकाले, मस्जिदों पर भगवा ध्वज लगाए, अभद्र और उत्तेजक नारेबाज़ी की … गुजरात में मस्जिदों पर हमला हुआ और खरगौन में तो हद हो गयी.. दंगा हुआ, अशिव सरकार ने एकतरफ़ा कार्रवाई करते हुए मुसलमानों को गिरफ़्तार किया, दंगों का दोषी कर उनमें से कई के घर कुछ ही घंटों में बुलडोजर से ढहा दिये… क्या पहले आप किसी सरकार से ऐसी करतूत की कल्पना कर सकते थे… कल्पनातीत अब अति सम्भावित हो गया है। संघी सरकारें अदालतों को बेमानी साबित करने पर तुली हैं…. अदालत भी चुप और उदासीन है।  यह सब दिल को दहलाता है। बर्बरता बेखटके लम्बे डग भरती घूम रही है…. साहिर के शब्दों में कहें तो गाँव – गाँव वहशत, शहर- शहर जंगल फैलाये जा रहे हैं… पर मीडिया में एक खरगोन भर है, गुजरात उत्तरप्रदेश, बंगाल, और अन्य जगहों कथित राम भक्तों की अराजकता की चर्चा नहीं है… शर्मनाक यह है कि सरकारें ख़मोश हैं, विपक्ष को जैसे कुछ ख़बर ही नहीं… क्या यह मिलीभगत की राजनीति की रामलीला है!

संसद से लेकर विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं को अपाहिज और कातर करने को हम मुहावरे में चीरहरण कहते रहे हैं… सीधी में जो पत्रकारों के साथ किया गया वह पत्रकारिता का साक्षात् चीरहरण था… इस पर कवि असद ज़ैदी ने दुरुस्त कहा कि, ‘यह आने वाले दिनों की साधारण झांकी है । इस देश का रोज़मर्रा ऐसा ही होने जा रहा है।’  इन सब संस्थाओं के प्रति इस सरकार की हिकारत कोई छिपी चीज़ नहीं है… इतना सब कुछ होने पर भी सरकार और पार्टी के लबों पर जुंबिश तक नहीं आयी… इन सब कृत्यों पर मौन से स्वीकृति के साथ वे सबक, चेतावनी और समर्पण के संदेश देते हैं।  जहाँ तक पत्रकारिता का सवाल है वे ऐसे सम्पादकों को ठीक मानते हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि, सम्पादक का काम है गेहूँ से भूसा अलग करना और यह सुनिश्चित करना कि भूसा ही छपे। … इस सरकार का ‘ भौंकने और सैकड़ों कलाओं से पूँछ हिलाने वाला ‘ मीडिया पसंदीदा है और वह उसे प्रचुर उपलब्ध है। प्रेस की ताक़त दिखाने के लिए एक शेर पहले बहुत प्रचलित था… खेंचों न कमानों को न तलवार निकालो / जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो… ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ अख़बार निकालने में म्यान से तलवार निकालने की बात में ताव-तेवर है… लेकिन आज म्यानों से गुलाब की कलमें निकल रही हैं। यहाँ नोम चोम्स्की की बातें याद आती हैं।  हिन्दू समाचार पत्र समूह के निमंत्रण पर वे १९९३ में भारत आये थे और अनेक शहरों में उनके व्याख्यान हुए थे।  उन्होंने कहा था कि पूँजी, बाज़ार और राजनीति का जितना हमला आज जीवन पर है वह पहले नहीं था। मीडिया इनका औजार, उपकरण है।  एडम स्मिथ ने सरकारों के लिए कहा ही था कि कि ग़रीबों को दबाने के लिए धनवानों के साथ सरकारों का गठजोड़ होता है। नीतियाँ सौदागरों और माल बनाने वालों द्वारा बनाई जाती हैं।  मुद्रित और अन्य माध्यमों की सामग्री में बदलाव आ गया है… मनोरंजन, उत्तेजना और चुने हुए कांडों का भंडाफोड़।  उस पत्रकारिता के दर्शन अब नहीं होते जो समसामयिक वास्तविकताओं अथवा लोगों के जीवन का अभिलेखन करती थी।  अब उसमें समाचार का तत्व गिरता जा रहा है और संकीर्णता बढ़ती जा रही है। अधिकृत पाबंदी के बिना भी अनचाहे विचारों को चुप करा दिया जाता है।

प्रजातंत्र उन कुछ शब्दों में है जिसका हाल के वर्षों में सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ। अभिव्यक्ति, उपासना, माँग और भय से आज़ादी की बात तो की जाती है पर एक आज़ादी जो ज़ाहिर नहीं की जाती वह है वह लूटने और शोषण की आज़ादी… एडम स्मिथ ने इसे ‘ मालिकों का कमीना सिद्धांत ‘ कहा था। ऐसा हमेशा होता रहा है कि भीषण स्थितियों में भी अनेक अपने- अपने मोर्चों पर अन्याय, अत्याचार , अधिनायकवादी मंसूबों के ख़िलाफ़ लड़ते रहे हैं… आज भी साहित्य, पत्रकारिता, सामाजिक और राजनीतिक दायरों में लोग दिलेरी से डटे हैं।  ऐसे सभी के प्रति ह्रदय कृतज्ञता से भरा है। लेखक, पत्रकार एक्टिविस्ट आकार पटेल काम सहज ही ज़ेहन में उभरता है… वे अभी ख़बरों में इस कारण थे कि उन्हें अमेरिका जाने से रोक दिया गया, जहाँ उन्हें कुछ जगहों पर व्याख्यान देना थे। पटेल एमनेस्टी इंटरनेशनल के भारत में अध्यक्ष हैं.. सरकार 2017 से उनके और एमनेस्टी के पीछे पड़ी है…ईडी, इनकम टैक्स सीबीआई ये सारे के सारे छापामार लगातार तैनात हैं। ताज़ा पाबंदी उस पुस्तक ‘ प्राइस ऑफ़ मोदी ईयर्स ‘ की खुन्नस में लगायी गयी है… यह बेमिसाल है जो बेहद पैनी नज़र से मोदी-काल की सामाजिक- आर्थिक- राजनीतिक पड़ताल करती है और हमारे सामने एक खोखला तंत्र और ताँत्रिक उजागर होता है | इस पाबंदी को लेकर उनका मामला अदालत में है।

एक हिंदी यूट्यूब चैनल से उन्होंने जो कहा वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनसे पूछा गया कि अमेरिका जाकर वे यहाँ के विरोध में बोलेंगे… उन्होंने कहा “ज़रूर बोलूँगा.. मैं सारी मानवता को एक मानता हूँ, वे सब भाई हैं… मैं यहाँ के बारे में बताऊँगा, कि यहाँ मुसलमानों के साथ क्या हो रहा है।”… सवाल था कि इससे देश की छवि ख़राब होगी?  इस पर उनका जवाब इतिहासकार कार्लो गिन्सबर्ग का वह कथन याद दिलाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारा देश दरअसल वह है जिस पर हमें शर्मिंदगी महसूस होती है… प्यार से कहीं ज़्यादा शर्म का रिश्ता हमें अपने देश से बाँधता है। आकार पटेल ने कहा “इन बातों से छवि नहीं बिगड़ती… झंडा लेकर नारे लगाने वाले नहीं बल्कि वे लोग राष्ट्रप्रेमी हैं जो चाहते हैं उनका देश सुधर जाये।” … आपको डर नहीं लगता ?… “पहले लगता था जब पत्रकार था”, पटेल ने जवाब देते हुए कहा, “लेकिन जब से एक्टिविस्ट हुआ हूँ तबसे नहीं लगता… जब अपने अंदर आप जानते हों कि मैं सही हूँ तब बहुत हौसला मिलता है… मैं जेल जाने से नहीं डरता… मुझे कितने कोड़े मारेंगे, मैं बड़ी जाति का हूँ, पाटीदार हूँ… मुझे ज़्यादा कोड़े नहीं मारेंगे, मुझ पर बहुत सारे आरोप नहीं लगायेंगे, क्योंकि मैं मुसलमान और औरत नहीं हूँ… देखिये देश तो वहाँ पहुँचने वाला है जहाँ ये इसे ले जाना चाहते हैं… लेकिन जो हो रहा है उसके ख़िलाफ़ बोलना चाहिए, विशेषकर हिन्दुओं को, सवर्णों को आवाज़ उठानी चाहिए।”

आकार की ये बातें थोड़ा निराश करती हैं पर वे हिम्मत भी देती हैं… एक हल्की उम्मीद – सी झिलमिलाती है… देश के ज़ुल्मतकदे में टिमटिमाती सी यह शम’आ, कहीं भटक गयी सहर की दलील तो है।

मनोहर नायक वरिष्ठ पत्रकार हैं। 


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