प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल: कोरोना-काल में एक वैश्विक पहलकदमी !

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कुमार सम्भव

 

कोरोना महामारी के बीच विश्व स्तर पर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पहल हुई। कोरोना के बाद के विश्व पर चर्चा अभी गरमा ही रही थी कि 11 मई, 2020 के दिन ´प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल´ की स्थापना हो गयी. 11 मई की घोषणा में कहा गया, ” कोविड-19 संकट हर जगह गहरा रहा है. दुनिया के गरीबों पर इसकी सबसे कठिन मार पड़ रही है. इस बीच, आपदा पूंजीवाद बढ़ रहा है क्योंकि वित्तीय सट्टेबाजों और अंतरराष्ट्रीय निगमों को महामारी से लाभ की तलाश है. उनके पीछे धुर दक्षिणपंथी ताकतें खड़ी हैं, जो संकट का फायदा उठाने के लिए कट्टरता और ज़ेनोफोबिया के एजेंडे को आगे बढ़ा रही हैं. महामारी ने हाइपर-ग्लोबलाइजेशन की घातक खामियों को बेनकाब कर दिया है: ऐन वक्त पर होनेवाले तुरंता उत्पादन व्यवस्था का ढहना, घटती राज्य क्षमता और आधी सदी से चल रहे सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण ने इस अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट के सामने स्थानीय क्षमताओं को निरुपाय कर दिया है.

फिर भी राष्ट्र-राज्य की व्यापक वापसी न तो महामारी को खत्म करेगी और न ही इसके राजनीतिक नतीजों को धुर दक्षिणपंथ के हाथ मजबूत करने से रोकेगी. आखिरकार, दुनिया भर के अधिकांश देशों में न केवल बुनियादी चिकित्सा उपकरणों की कमी है; उनके पास इसे हासिल करने के लिए मुद्रा का भी अभाव है. अंतर्राष्ट्रीयता, मानवता के विशाल बहुमत के लिए, एक विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि एक बुनियादी आवश्यकता है. माइक डेविस के अनुसार “सबसे खतरनाक भ्रम, राष्ट्रवाद है: कि एक वैश्विक मंदी को स्वतंत्र और असंबद्ध राष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं की  कुल जोड़गांठ  से दबाया जा सकता है.” 

डेढ़ साल पहले ´डेमोक्रेसी इन यूरोप मूवमेंट (डाइम) और ´सैंडर्स इंस्टिट्यूट´ नाम की संस्थाओं ने  आह्वान किया कि ‘यह समय है जब दुनिया के सारे प्रगतिशीलों को एकजुट हो जाना चाहिए.’ इस नारे में स्पष्ट ही एक बहुत पुराने नारे की गूँज है.  यह नारा था कम्युनिस्ट घोषणापत्र का- ‘दुनिया के मजदूरों एक हो.’ ‘प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल’ पूंजीवादी विश्व व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष के अंतर्राष्ट्रीय मंचों की लम्बी परम्परा की एक कड़ी है. आज से डेढ़ सौ साल पहले 1864 में ‘इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसिएशन’ की स्थापना के साथ इस परंपरा की शुरुआत हुई थी. 

मेहनतकश अवाम के संघर्षों के वैश्विक मंचों का उदय 

कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र जारी करके पूंजीवाद के बुनियादी चरित्र की व्याख्या और उसके विकल्प के तौर पर कम्युनिज़्म का स्वप्न सूत्रबद्ध किया. उन्होंने अपने समय में पूंजीवाद के खिलाफ तमाम तरह के समाजवादी विचारों और आन्दोलनों की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद की धारणा प्रस्तुत की. उस समय की बहुत सी पूंजीवाद विरोधी ताकतें भले ही मार्क्स के क्रांतिकारी रास्ते और कम्युनिस्ट स्वप्न को पूरी तौर पर न मानती रही हों, लेकिन एक बात सभी तरह के पूंजी-विरोधी मानते थे कि पूंजीवाद अपने जन्म से ही एक विश्व-व्यवस्था है, उसके खिलाफ संघर्ष तथा उसके विकल्प में जो न्याय और भाईचारे पर आधारित समतामूलक समाज लाया जाना है, उसका स्वरूप भी वैश्विक ही होना चाहिए. साथ ही यह भी कि ऐसे समाज के निर्माण की अगुवाई मेहनतकश तबके को करनी होगी.

इसी साझा समझदारी के चलते भांति -भांति के समाजवादी, कम्युनिस्ट और अराजकतावादी इस प्रथम इंटरनेशनल के मंच पर एकत्र हुए थे. स्वयं मार्क्स ने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई थी. अपने चरम उत्कर्ष के समय इस मंच की सदस्य्ता 80 लाख थी. आगे चलकर इस मंच में कम्युनिस्टों और अराजकतावादियों का अंतर्विरोध गहराया और 1876 में इसका विघटन हो गया. लेकिन एक दशक बीतते न बीतते फिर से एक अंतर्राष्ट्रीय मंच खड़ा करने के प्रयास रंग लाया और 1889 में द्वितीय इंटरनेशनल की स्थापना हुई. इसी मंच से 1 मई को मजदूर  दिवस और 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाने की घोषणा हुई जो आज तक पूरी दुनिया में मनाया जाता है. काम के घंटे 8 हों, इसके लिए इस मंच ने पूरी दुनिया में अभियान चलाया. 

1916 तक आते आते यह मंच निष्प्रभावी हो चला क्योंकि प्रथम विश्व-युद्ध के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर वर्ग की युद्ध-विरोधी एकजुटता को यह मंच स्थापित नहीं कर पाया. राष्ट्रीय स्तर की अलग अलग मजदूर वर्ग की पार्टियों ने (जो इस मंच की सदस्य थीं) अपने-अपने देशों के युद्ध अभियानों का समर्थन किया. विश्व-युद्ध पूंजीवादी शक्तियों की आपसी स्पर्धा का परिणाम था और इसमें मजदूर वर्ग को ही सबसे बड़ा नुकसान होना था, लेकिन तमाम पार्टियां अपने अपने देशों के शासक जमातों के युद्ध अभियानों के खिलाफ या तो अपना रुख नहीं तय कर पाईं या फिर उन्होंने उनका समर्थन कर दिया. 1919 में तीसरे इंटरनेशनल की स्थापना के पीछे का प्रमुख आवेग था- रूसी क्रान्ति, जिसे विश्व-क्रान्ति में बदलने की इच्छा ने इस मंच को जन्म दिया था. कम्युनिस्ट वर्चस्व के कारण इसे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल या कोमिन्टर्न भी कहते हैं.

विश्व क्रान्ति को समर्पित यह मंच लगभग समूचे यूरोप, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और बाद में एशिया से चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों और क्रांतिकारी तत्वों का विराट मंच था. जहां यह मंच विकसित देशों में सर्वाहारा नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति का पक्षधर था वहीं उपनिवेशों में उसने मजदूर वर्ग, किसान और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के संयुक्त मोर्चे की अगुवाई में राष्ट्रीय मुक्ति को समर्थन दिया. उपनिवेशों की कम्युनिस्ट पार्टी का काम इन देशों में इसी मोर्चे का साथ देना बताया गया. जैसा की मशहूर है कि यह प्रस्ताव लेनिन का था और कोमिन्टर्न की दूसरी कांग्रेस (1920) में मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि की हैसियत से भाग ले रहे मानवेंद्र नाथ राय ने उक्त मोर्चे के ज़रिए राष्ट्रीय मुक्ति के लक्ष्य का विरोध करते हुए उपनिवेशों में भी कम्युनिस्ट नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति की वकालत की.

बहरहाल, 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद उत्तरोत्तर स्टालिन की अगुवाई में एक देश (सोवियत संघ) में क्रान्ति की रक्षा करना ही इस अंतर्राष्ट्रीय मंच का प्राथमिक लक्ष्य बनता गया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अंततः सोवियत संघ को अमेरिका और ब्रिटेन के साथ दुनिया को ´प्रभाव-क्षेत्रों (स्फीयर ऑफ़ इन्फ्लुएंस) में बांटने पर राजी होना पड़ा और विश्व-क्रान्ति का स्वप्न पूरी तरह पृष्ठभूमि में चला गया. 1943 में स्टालिन ने इसे भंग कर दिया. अमरीका-ब्रिटेन के प्रभाव क्षेत्रों में पड़ने वाले देशों के कम्युनिस्ट अकेले पड़ गए. ग्रीस और इंडोनेशिया जैसे देशों में कम्युनिस्टों का भीषण दमन हुआ लेकिन उनके साथ अंतर्राष्ट्र्रीय स्तर पर साथ देनेवाल कोई मंच नहीं था. अपने ही प्रभाव क्षेत्र से बंधे सोवियत संघ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली। दुनिया दो ध्रुवों में बंट  चुकी थी और अगली आधी शताब्दी उसे इन दो ध्रुवों के बीच शीतयुद्ध की छाया में ही रहना पड़ा. 1938 में ट्रोट्स्की के सोवियत संघ से निकाले जाने के बाद उनके रास्ते (यानि ´एक देश में क्रान्ति´ को  बचाने के सिद्धांत की जगह विश्व सर्वहारा के नेतृत्व में सतत (विश्व) क्रान्ति ) को मानने वालों ने चौथे इंटरनेशनल की स्थापना की लेकिन शीत युद्ध की द्विध्रुवीय राजनीति में इस मंच का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा. 

सोशलिस्ट इंटरनेशनल 

मुख्यतःगैर-कम्युनिस्ट समाजवादी-लोकतांत्रिक पार्टियों ने सोशलिस्ट इंटरनेशनल नाम से एक अंतर्राष्ट्रीय मंच बनाया जो अमेरिका और सोवियत संघ के दो ध्रुवों के बीच का रास्ता अपनाते हुए विश्व-शान्ति, निशस्त्रीकरण, लोकतंत्र जैसे मुद्दों पर दोनों के साथ तालमेल या मोलभाव का काम करता रहा है. लैटिन अमरीका को काफी दिनों तक अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र के भीतर मानने के चलते वहां लोकतांत्रिक ताकतों के तख्ता-पलट या अमेरिका द्वारा सीधे हमले पर भी सोशलिस्ट इंटरनेशनल ने कोई अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं किया. 1973 में चुनी हुई चिली की सरकार का अमेरिकी शह पर तख्ता पलट वह पहला मौका था जब सोशलिस्ट इंटरनेशनल ने लैटिन अमरीका की लोकतांत्रिक आवाज़ों के साथ अपना सुर मिलाया. 

भूमण्डलीकरण और उसके विरोध का स्वरूप 

1990 में सोवियत विघटन के साथ दुनिया एक ध्रुवीय हुई. अमेरिकी वर्चस्व में एक नयी विश्व व्यवस्था की नींव डाली जाने लगी. पूरी दुनिया की कम्युनिस्ट जमातों को करारा झटका लगा. गैर-कम्युनिस्ट समाजवादी लोकतान्त्रिक ताकतों की भी मोलतोल की जगह बुरी तरह घट गई. बड़ी पूंजी के मुनाफे के रास्ते में दुनिया भर के देशों ने सुरक्षा-कवच या आत्मनिर्भरता  के नाम पर आयात शुल्क, सीमा शुल्क और जो दूसरे अवरोध खड़े किए थे, उन्हें ढहा देना भूमंडलीकरण कहलाया. दबाव डालकर, कर्जे में फंसाकर, हर देश की पूंजीपरस्त राजनीतिक ताकतों को प्रत्यक्ष और परोक्ष मदद करके और अनेक बार सीधे शस्त्र के बल पर भूमंडलीकरण की नयी विश्व-व्यवस्था का निर्माण हुआ.

हर देश की सरकार से कहा गया कि आर्थिक उत्पादन और वितरण के सार्वजनिक क्षेत्रों को वे निजी हाथों में सौंप दें. इसे निजीकरण कहा जाता है. मजदूर हितों के कानूनों को खत्म करना, किसानों को लागत पर सब्सिडी और लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को ख़त्म करना तथा देश के उद्योग धंधों की हिफाज़त के लिए तमाम तरह के निषेधों और प्रतिबंधों को ख़त्म किया जाना, बौद्धिक सम्पदा के सीधे विश्वपूंजी द्वारा दोहन को तमाम पेटेंट कानूनों में बदलाव लाकर सुरक्षित किया जाना ही  उदारीकरण कहलाया.  विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बैंक जैसे पुराने युद्धोत्तर संगठनों की दशा-दिशा बदलकर और विश्व व्यापार संगठन जैसे नए संगठनों को खड़ाकर बड़ी पूंजी की ताकतों ने भूमण्डलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नयी विश्व व्यवस्था को स्थापित किया.   

सोवियत विघटन, एकध्रुवीय शक्ति के रूप में अमेरिका का वर्चस्व और भूमण्डलीकरण के संयुक्त आघात से किसानो मजदूरों की संगठित पार्टियों और आन्दोलनों को भारी अवरोध का सामना करना पड़ा. कई देशो में तो कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपना नाम तक बदल लिया. लेकिन इसी दौर में स्थानीय, गैर-पार्टी, मुद्दा-आधारित, वैचारिक रूप से अस्पष्ट किन्तु अपने मूल्यों में प्रगतिशील आन्दोलनों का जन्म हुआ. जल, जंगल, जमीन तथा प्राकृतिक, मानवीय और बौद्धिक संसाधनों की कारपोरेट लूट जिसे दुनिया के अधिकाँश देशों में भूमंडलीकरण ने संभव बनाया, उनके खिलाफ अनेक छोटे बड़े आन्दोलन पैदा हुए. इसी दौर में विस्थापन, बड़े बाँध, असुरक्षित नाभिकीय संयंत्रों और जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध पर्यावरण के आंदोलन सामने आए. अनेक युरोपीय देशों में ´ग्रीन पार्टी´जैसी राजनीतिक पार्टियां सामने आई. मानवाधिकारों का दमन, राज्य-दमन, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता-विरोधी आंदोलन, रोजी, रोजगार और सामाजिक सम्मान के आंदोलन भी व्यापक पैमाने पर दिखाई दिए.

ज़रुरत थी इन सतरंगी आन्दोलनों के सैकड़ों रूपों में एक तालमेल पैदा करके उन्हें वैश्विक बदलाव के काम में लगाना. अब तक जितने वैश्विक मंच बने थे, वे सब संगठित पार्टियों या ट्रेड यूनियनों की बड़ी संख्या में साथ आने पर अस्तित्व में आए थे. 1990 का दशक आते आते ये सभी संगठित शक्तियां बिखराव और कमज़ोरी का शिकार हो चुकी थीं. पहले ही हम बता आए हैं कि अब तक के अंतर्राष्ट्रीय मंचों के उदय और विघटन कब कब और क्यों हुए. लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर में समस्या यह थी कि पुरानी कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों का कोई वैसा ही वैश्विक मंच खड़ा होने की संभावना नहीं थी. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने रूस की पार्टी की तरह दुनिया भर की मजदूर-किसान पार्टियों और संगठनों के वैश्विक मंच की अगुवाई करने का कोई मंसूबा पहले भी कभी नहीं बांधा था. भूमंडलीकरण के दौर में बनी नयी  विश्व-व्यवस्था को बदलने की राजनीतिक अगुवाई करने की जगह उसने 1990 के दशक से ही भूमंडलीकरण के अंतर्विरोधों का इस्तेमाल चीन की कल्पनातीत आर्थिक उन्नति में किया.

 वर्ल्ड सोशल फोरम 

बहरहाल, इस दौर के हजारहां बहुरंगे वैविध्यपूर्ण आन्दोलनों के बीच रिश्ता और तालमेल बनाते हुए एक वैकल्पिक दुनिया के निर्माण के लिए साझा मंच बनाने का काम किसी को तो करना ही था. यह काम सिविल सोसायटी के संगठनों द्वारा किया गया. ये ऐसे संगठन और आंदोलन थे जो मोटे तौर पर संगठित राजनीतिक पार्टियों और राजसत्ता के संगठनों से भिन्न स्तर पर नागरिक समाज या उसके किसी हिस्से के किन्हीं हितों और मूल्यों की हिमायत करते हैं. इनके कामकाज राजनीति को प्रभावित तो करते हैं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ही. इनमें NGO , स्वैच्छिक संस्थाएं , स्वायत्त मजदूर संगठन, एडवोकेसी ग्रुप, अनेक किस्म के क्लब जैसे रोटरी या जेसीस, मीडिया और धार्मिक संगठन, मानवाधिकार समूह, डाक्टरों और दूसरे पेशों के अपने संगठन आदि आते हैं जिन्हें बहुधा तमाम तरह की एजेंसियों से अनुदान मिला करते हैं. इस तरह की संस्थाओं ने भूमंडलीकरण के विरुद्ध तमाम तरह के छोटे बड़े आन्दोलनों का नेटवर्क स्थापित किया. आमतौर पर इनके कार्यकर्ता सामाजिक कार्यकर्ता कहलाते हैं, राजनीतिक नहीं।

कई बार इनके अराजनीतिक और अवैचारिक होने की आलोचना भी संगठित वाम पार्टियों द्वारा होती रही है. बहरहाल, 21 वीं  सदी में विश्व सोशल फोरम की स्थापना (2001) में इन्हीं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. विश्व सोशल फोरम ने अपने सैद्धांतिक घोषणापत्र में ही लिखा कि वह सिर्फ नागरिक समाज की संस्थाओं और आन्दोलनों को जोड़ने का मंच है. फिर भी यह तथ्य है कि जनवरी 2001 में  पोर्टो अलेग्रे , ब्राज़ील में हुए प्रथम सम्मेलन को ब्राज़ील की ब्राज़ीलियन लेबर पार्टी का समर्थन और सहयोग मिला. विश्व सोशल फोरम की शुरुआत मुख्यतः लैटिन अमरीकी देशों के भूमण्डलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण विरोधी समूहों की पहल पर हुई जबकि अब तक के सभी वैश्विक मंचों की उद्गम भूमि युरौप रहा था. इस संस्था ने भूमंडलीकरण की नयी विश्व व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं हो सकता, इस कारपोरेट और दक्षिणपंथी प्रचार पर कड़ा प्रहार करते हुए ´एक अन्य दुनिया संभव है´( Another world is possible) के नारे के साथ अपनी शुरुआत की थी. 

2001 से अब तक विश्व सोशल फोरम अपना सालाना अधिवेशन प्रायः उसी समय करता है जब कि भूमंडलीकरण की हिमायती संस्था विश्व इकनोमिक फोरम अपना सम्मलेन करती है. इसकी मार्फ़त वे विश्व आर्थिक समस्याओं के अपने वैकल्पिक समाधानों की तस्वीर सामने रखता है. लैटिन अमेरिका में अनेक देशों में 1990 के दशक और 21वीं सदी के पहले दशक में वामपंथी सरकारों को बहुमत हासिल हुआ. विश्व सोशल फोरम भले ही संगठित राजनीति के दलों से परहेज़ करता हो, लेकिन शावेज़ (वेनेज़ुएला), लूला दी सिल्वा (ब्राज़ील), इवो मोरेल्स (बोलीविया) आदि शक्तिशाली नेताओं की पहलकदमी से लैटिन अमेरिका के बहुतेरे देशों में इस दौर में वामपंथी शक्तियां सत्तारूढ़ हुईं जिसने उस राजनीतिक पृष्ठभूमि का निर्माण किया जिसमें विश्व सोशल फोरम जैसे वैश्विक मंच को काम करने का माहौल मिल सका. उसके अब तक हुए 17 अधिवेशनों में से 9 अकेले ब्राज़ील में हुए जो उसका हेडक़्वार्टर भी है.  एक-एक बार वेनेज़ुएला, मालदीव, भारत, पाकिस्तान, केन्या और सेनेगल में इसका आयोजन हुआ.  दो बार ट्यूनीशिया ने मेज़बानी की. युरोप में सिर्फ एक बार पिछले वर्ष ये सम्मलेन स्पेन में हुआ और 2016 में उत्तरी अमेरिका में उसका इकलौता अधिवेशन कनाडा में हुआ.

विश्व सोशल फोरम के क्षेत्रीय प्रारूप (युरोपियन सोशल फोरम, एशियाई सोशल फोरम आदि) और भारत, अमेरिका, इटली आदि देशों में राष्ट्रीय प्रारूप भी काम करते रहे हैं. विश्व सोशल फोरम के अनेक अभियानों में से सर्वाधिक विश्वस्तरीय भागीदारी 2003-2004 में अमेरिका द्वारा ईराक पर हमले के खिलाफ युद्ध-विरोधी अभियान में हुई. लेकिन देखने में ये आया कि क्रमशः यह संगठन प्रत्यक्ष राजनीतिक कार्रवाइयों से बचने लगा और विरोध या तो सांकेतिक रह गए या फिर वह बहस मुबाहसे का मंच अधिक बन गया. इस संस्था में NGO वर्चस्व के चलते ज़मीनी आन्दोलनों के कार्यकर्ताओं ने अलगाव महसूस किया. यही नहीं बल्कि इसके आयोजन में लगे NGO आदि के वित्तीय स्रोतों पर भी आपत्ति उठी. जिस कॉर्पोरेट वर्चस्व के विरुद्ध ´एक और दुनिया संभव है’ के नारे के साथ यह संस्था बनी थी, उन्ही कॉर्पोरेट-पोषित संस्थाओं से वित्तीय संसाधन जुटाने पर भी आपत्ति की गयी.   

प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल की ज़रुरत और उसकी विशेषता 

विश्व सोशल फोरम के निस्तेज पड़ जाने के कारण और 2010 के बाद से लैटिन अमेरिका, उतरी अमेरिका और युरोप के तमाम देशों में दक्षिपन्थी उभार ने एक बार फिर एक सक्रिय जनपक्षधर  वैश्विक मंच की ज़रुरत को रेखांकित किया. ´प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल´ इसी स्थिति की उपज है. 

प्रगतिशील इंटरनेशल की घोषणाओं में अनेक मामलों में विश्व सोशल फोरम की कमज़ोरियों से खुद को मुक्त रखने का प्रयास दीखता है. सबसे पहली बात जो उसके नाम से ही ज़ाहिर है कि वह खुद को कहीं न कहीं पिछले मजदूरवर्गीय इंटरनॅशनलों की विरासत से जोड़ता है.  नाम में ´प्रगतिशील´शब्द जोड़ना एक वैचारिक भंगिमा लिए हुए है. ´प्रगतिशील´शब्द संस्कृति की दुनिया में वामपक्षधरता का ही दूसरा नाम सदा से रहा है. इसके संस्थापकों ने इस शब्द को नाम में जोड़कर ´विश्व सोशल फोरम´ जैसी वैचारिक अनिश्चितता से भी खुद को अलग किया है. “प्रगतिशील” से क्या आशय है, उसके पीछे क्या परिकल्पना है, उसे उन्होंने अपनी वेबसाइट पर इन शब्दों में व्यक्त किया है- ‘एक विश्व जो लोकतांत्रिक, उप निवेशवाद से मुक्त, न्यायपूर्ण, समतावादी, मुक्त, परस्पर एकजुटता और स्थायी और संवहनीय विकास पर आधारित, पारिस्थितिकीय दायित्व से युक्त, शांतिपूर्ण, उत्तर-पूंजीवादी और समृद्ध हो तथा विविधता को शक्ति के रूप में देखता हो.’ 

प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल ने समाजवादी तो नहीं, लेकिन ‘उत्तर पूंजीवादी’ समाज बनाने का लक्ष्य रखा है, जिसका सीधा अर्थ यह है कि उसे उदार और मानवीय मुखौटे वाला पूंजीवाद भी नहीं चाहिए. यह स्पष्टता भी विश्व सोशल फोरम से  कहीं अधिक है. 

अपने संसाधनों के बारे में उसने कहा है, “प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल विशेष रूप से चंदे और सदस्यों के योगदान द्वारा वित्तपोषित है। हम लॉबीस्टों, या जीवाश्म ईंधन कंपनियों, स्वास्थ्य बीमा और दवा कंपनियों, बड़ी तकनीकी कंपनियों, बड़े बैंकों, निजी इक्विटी फर्मों, हेज फंड्स और एग्रीबिजनेस के अधिकारियों से धन स्वीकार नहीं करते हैं।” विश्व सोशल फोरम से अपनी भिन्नता और अतीत के इंटरनेशनलों से अपने सम्बन्ध को अप्रत्यक्ष रूप से इंगित करते हुए  घोषणा में कहा गया, ”पिछले फोरमों से भिन्न हमारी स्पष्ट धारणा है कि नेटवर्किंग पर्याप्त नहीं है, जिस तरह अतीत के इंटरनेश्नलों ने छोटे कार्य-सप्ताह और बाल श्रम की समाप्ति की मांग को आगे बढ़ाया था, उसी तरह प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल (वैश्विक) संस्थाओं के रूपान्तरण की व्यावहारिक नीति को विकसित करने का उद्देश्य लेकर चलता है.”   

फिलहाल प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल के 40 सदस्यों वाले परामर्शदाता मंडल में दुनिया के अनेक नामचीन पूंजी-विरोधी शख्सियतें शामिल हैं, मसलन कैटरीन जैकबस्दोतिर (आइसलैंड की प्रधानमंत्री और ग्रीन लेफ्ट पार्टी की नेता), फर्नांडो हद्दाद (ब्राज़ील की वर्कर्स पार्टी के नेता), अरुंधति  रॉय (लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी चिंतक) नोम चोम्स्की (विख्यात भाषाविद और साम्राज्यवाद-विरोधी चिंतक), वेनेसा नकाते (यूगांडा की पर्यावरण एक्टिविस्ट), कैरोला रैकिट (एक जर्मन जहाज कप्तान जो जर्मन समुद्री बचाव संगठन सी-वॉच के लिए काम करती रही हैं जिन्हें  2019 के जून में, इटली के लम्पेदुसा बंदरगाह में अनुमति के बिना एक प्रवासी बचाव जहाज को डॉक करने के लिए गिरफ्तार किया गया), यानिस वरौफकिस (वामपंथी सिरिज़ा सरकार में ग्रीस के पूर्व वित्त मंत्री ), एलिजाबेथ गोमेज़ अलकोर्टा( अर्जटीना की महिला, जेंडर और विविधता मंत्रालय की मंत्री), पियरे सने (एमनेस्टी इंटरनेशनल के पूर्व निदेशक और मानवाधिकारवादी ), नाओमी क्लेन (विख्यात नारीवादी लेखिका), रैफ़ेल कोरिया( इक्वाडोर की वामपंथी पूर्व राष्ट्रपति) और कई अन्य।

सितम्बर महीने में आइसलैंड की राजधानी रेक्याविक में प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल का पहला अधिवेशन प्रस्तावित है जिसकी मेज़बानी आइसलैंड की प्रधानमंत्री और लेफ्ट ग्रीन पार्टी की नेता जैकबस्दोतिर करेंगीं. दुनिया की सभी लोकपक्षधर और परिवर्तनकारी ताकतों को इसका इंतज़ार रहेगा.

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।



      


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