बीच चुनाव नीतीश का ‘कोटा’ मंतर जबकि नौकरियाँ छू-मंतर!


आज की दुनिया में सामाजिक न्याय और परिवर्तन की सक्रियता साथ-साथ चलनी चाहिए। हम इक्कीसवीं सदी में हैं। डिजिटल जमाने में। जाति के पुराने ढाँचे को लेकर हम अब नहीं चल सकते। अंततः हमें इस जाति व्यवस्था को ख़त्म करना है। नई उत्पादन व्यवस्था, रोजगार और वैज्ञानिक समझ को केंद्र में रख कर एक आधुनिक समाज बन रहा है। आज जो सामाजिक न्याय का व्याकरण बनेगा उसका ढांचा कुछ अलग होगा। मंडल का दौर ख़त्म हो चुका है।


प्रेमकुमार मणि प्रेमकुमार मणि
ओप-एड Published On :


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर ‘कोटा-पॉलिटिक्स’ का राग अलाप किया है। हमारे मुल्क में इस कोटा-पॉलिटिक्स का नारा पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में जोर-शोर और अस्त-व्यस्त अंदाज़ से उठा था। ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा शायद बहुजन समाज पार्टी का था, जो मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू किए जाने के पहले से गूंजने लगा था। इतिहास की बात करें तो  इस देश में कोटा-पॉलिटिक्स का आरम्भ मद्रास राज्य में हुआ था, जिसकी एक लम्बी और दिलचस्प कहानी है। उसकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक होगी। आज़ादी के बाद हिंदी इलाके में राममनोहर लोहिया ने समाज के वंचित तबकों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत की वकालत की और उनकी पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) ने एक नारा दिया- ‘संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’। यानि पिछड़े वर्गों को साठ फीसद कोटा अथवा आरक्षण सुनिश्चित होना चाहिए। इस नारे के आकर्षण में पिछड़े तबकों का एक बड़ा हिस्सा समाजवादी आंदोलन से जुड़ा।

इसके पूर्व नेहरू सरकार ने 29 जनवरी 1953 को, यानी प्रथम आम चुनाव के तुरंत बाद स्वतंत्रता सेनानी और साहित्यकार काका कालेलकर की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग की घोषणा की, जिसने अपनी रिपोर्ट 1955 में दे दी। लेकिन वह रिपोर्ट अंतर्विरोधों और दुविधा से भरी थी। नतीजतन उस पर कोई काम आगे नहीं बढ़ सका। 1970 के बाद अनेक प्रांतीय सरकारों ने अनुसूचित जाति-जनजाति से पृथक  अन्य पिछड़े वर्गों के हाल जानने केलिए पिछड़ा वर्ग आयोग का अपने-अपने प्रांतों में गठन किया। 1971 में बिहार में दरोगाप्रसाद राय सरकार ने कांग्रेस के दलित नेता मुंगेरी लाल की अध्यक्षता में प्रांतीय पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की, जिसने अपनी रिपोर्ट 1976 में दी। 1977 के मध्य में बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने और 1978 में उन्होंने मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों, जिसमें मुख्य रूप से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में 26 फीसद कोटा सुनिश्चित करना था, को लागू करने की घोषणा कर दी। इसके साथ ही बिहार में एक सामाजिक कोहराम की शुरुआत हो गई और अंततः कर्पूरी सरकार को सरकार से जाना पड़ा।

कर्पूरी ठाकुर ऐसे साहसिक कार्यों के लिए ही जाने  जाते हैं। उन्होंने बिहार में नए कोटा-पॉलिटिक्स की शुरुआत कर दी, और बिहार इस राजनीति की प्रयोगशाला बन गया। इसकी धमक दिल्ली तक पंहुची। 1979 में बी पी मंडल की अध्यक्षता में राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना करनी पड़ी। इसी आयोग की रिपोर्ट के एक हिस्से को वी पी सिंह सरकार ने 7 अगस्त 1990 को लागू करने की घोषणा की। कर्पूरी ठाकुर की तरह वी पी सरकार को भी जाना पड़ा। इससे उपजे सामाजिक कोहराम और राजनीति पर इसके प्रभाव की चर्चा यहाँ करने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए मैं बिहार की राजनीति में इसके प्रभावों की ही किंचित चर्चा करूँगा, ताकि  नीतीश कुमार के मंतव्य को समझा जा सके।

जब कर्पूरी ठाकुर ने इस राजनीति का उत्तर भारत में आरम्भ किया, तब की स्थितियों का आकलन किया जाना चाहिए। उन्होंने एक साहस किया था। सरकारी नौकरियों में तब पिछड़े वर्गों की नगण्य भागीदारी थी। लोकतंत्र के तीन (मीडिया सहित चार) हिस्से होते हैं। विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। विधायिका, यानि धारा-सभाएं सरकार भी बनाती हैं। संविधान प्रदत्त ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के जरिए, अपनी बहुसंख्या के आधार पर दलित-पिछड़े तबकों की संख्या इन धारा सभाओं में बढ़ने लगी और ऐसा समय भी आया जब कर्पूरी ठाकुर जैसे लोग मुख्यमंत्री बनने लगे। लेकिन न्यायपालिका और कार्यपालिका में एक खास तबके का दबदबा बना हुआ था और यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था को विकलांग बना रहा था। मसलन कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री तो हो सकते थे, लेकिन उनके फैसले जिन अधिकारियों को लागू करने थे, वे इसकी मनमानी व्याख्या कर कुछ का कुछ कर देते थे। (न्यायपालिका में यह सब आज भी हो रहा है) इन सब के बीच यह मांग उठने लगी कि कार्यपालिका में भी सभी तबकों की भागीदारी दिखे।

इस कोटा सिस्टम को कुछ लोगों ने रोजगार से जोड़ कर देखा। दरअसल इस में रोजगार की बात नहीं थी, वस्तुतः इसका उद्देश्य वास्तविक लोकतंत्र स्थापित करना था। इसे नहीं समझे जाने के कारण ही क्रीमी लेयर की व्यवस्था की गई है, जो वस्तुतः इस पूरे कोटा-व्यवस्था का बधियाकरण है।

यह भी समझा जाना चाहिए कि पिछड़ा वर्ग केवल अद्विज अथवा अब्राह्मण जातियों का समुदाय नहीं है। यह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूहों का वर्ग है। यह अब्राह्मण जाति समुदायों का मोर्चा जैसा कुछ नहीं है। यह कुल मिला कर सरकारी इस्तेमाल के लिए बनाया गया एक संवर्ग है, जैसे भूमिहीनों या गृहविविहीनों का संवर्ग होता है। कई अब्राह्मण-अद्विज जातियाँ इस दायरे में नहीं हैं। जैसे कई राज्यों के जाट और गुजरात के पाटीदार (कुर्मी)। वहीँ कई ब्राह्मण-द्विज जाति के लोग पिछड़े वर्ग में हैं। जैसे भट्ट और गोस्वामी ब्राह्मण और गुजरात-कर्णाटक के राजपूत। यह पिछड़ा वर्ग समूह है, पिछड़ी -जाति समूह नहीं।

नीतीश कुमार इस व्यवस्था और अवधारणा को भली-भाँती  समझते हैं, इस पर मुझे संदेह है। हम ने साथ रह कर लम्बे समय तक काम भी किया है। अनेक अवसरों पर इन सामाजिक बिंदुओं पर उनसे बातचीत, बहसें हुई हैं। मैंने यही समझा है, इस मुद्दे पर उन्हें अपनी समझ विकसित करनी है। या यह भी हो सकता है कि वह जान कर भी अनजान बने रहना चाहते हैं। बीती बातों को रखना कोई अच्छी चीज नहीं है, लेकिन नई पीढ़ी के लोगों को यह तो जानना ही चाहिए कि जब कर्पूरी ठाकुर ने मुंगेरी लाल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया था, तब नीतीश कुमार ने उस पर कुछ सवाल उठाए थे। सवाल उठाना अच्छी बात है। लेकिन ये सवाल कर्पूरी ठाकुर के धुर-विरोधियों को पसंद आए थे। लेनिन की उक्ति है कि यदि शत्रु आपकी प्रशंसा करें, तो आपको स्वयं की समीक्षा करनी चाहिए। यह समीक्षा नीतीश जी ने मेरे जानते कभी नहीं की।

इस मुद्दे पर मंडल दौर में भी वह असमंजस में थे। उन्होंने आरम्भ में देवीलाल की राजनीति के साथ रहने का निश्चय किया था, जो राजनीतिक कारणों से उस वक़्त वी पी सिंह से खफा थे। उनके सहयोगियों ने मंडल मुद्दे पर विरोध के सिलसिले में दिल्ली को तबाह कर के रख दिया था। बिहार में चूकि दूसरी बयार थी, इसलिए नीतीश आधे-अधूरे मन से वी पी सिंह की राजनीति के साथ आए।

आरक्षण और कोटा-पॉलिटिक्स पर उनका एक रूप तब सामने आया, जब वह बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में दूसरी पारी में 2010 में आए। 1 फ़रवरी 2011 को उन्होंने सामान्य वर्ग के लिए सवर्ण आयोग बनाने की घोषणा थी। तब मैं जदयू में ही था और विधायक था। मैंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के इस पर सवाल उठाए। दरअसल वर्ण शब्द भारतीय संविधान की परिधि में नहीं आता है। यह हिन्दू संहिता मनुस्मृति का शब्द है। हमारा संविधान सेकुलर है। वहां अवर्ण-सवर्ण और अशराफ-अरजाल नहीं चल सकता। मेरे सवाल के बाद इसे उच्च जाति आयोग बनाया गया। यह भी गलत था। क्योंकि कोई जाति आगे-पीछे हो सकती है, ऊँची या नीची नहीं हो सकती। हम कौन होते हैं किसी को ऊँचा या नीचे मानने वाले। लेकिन सरकार तो सरकार होती है। जिद्द पर अड़ी थी। मैंने इस आयोग पर जो सवाल उठाए थे, वे सही निकले। बारह करोड़ रुपए खर्च करने के बाद इसकी सिफारिश आई कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले ऊँची जाति के लोगों को भी वजीफा मिल सकता है। यह हास्यास्पद था। खोदा पहाड़ निकली चुहिया।

मेरे जैसे लोग बार-बार कह रहे थे कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले सभी छात्रों को समान सुविधाएं दी जाएं। इसलिए कि इन स्कूलों में किसी भी जाति के गरीब लोग ही पढ़ते हैं। हमारी यह भी मांग थी कि सामान्य तबके, यानी तथाकथित अगड़ी अथवा उच्च कही जाने वाली जातियों के भूमिहीन लोगों का पृथक वर्गीकरण कर उन्हें पिछड़े तबकों को मिलने वाली तमाम सुविधाएं दी जाएं। सरकारी स्कूलों के सम्बन्ध में यह फरमान निकालना कि वहां ऊँची जाति के छात्रों को भी वजीफा दिया जाएगा, से बेहतर यह फरमान निकालना है कि सभी छात्रों को बिना किसी भेद-भाव के वजीफा और अन्य सुविधाएं दी जाएंगी। लेकिन उन्हें तथाकथित ऊँची जातियों को एक सन्देश देना था कि हम आपके हैं। इसके लिए सरकारी खजाने के बारह करोड़ लगे। यह सब करिश्मा और शाह-खर्ची  नीतीश कुमार ही कर सकते हैं।

अब वह जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी जैसी बात कर रहे हैं। यह बात उन्हें तब याद नहीं आई जब उनकी एनडीए सरकार EWS (इकनोमिक वीकर सेक्शन) शीर्षक से सामान्य तबके को कोटा सिस्टम के भीतर ला रही थी। मैं EWS का समर्थन करता हूँ। लेकिन मेरा प्रश्न OBC कोटे पर है। अनुसूचित जाति और जनजाति को तो आबादी के अनुसार कोटा मिला हुआ है। सामान्य तबका पूरी आबादी का लगभग पंद्रह फीसद है। उसे आबादी का दो तिहाई कोटा EWS के तहत मिला। यानी आबादी का दो तिहाई हिस्सा। ऐसे में OBC का कोटा उसकी कुल आबादी का केवल आधा है। क्या उसे अब अनुसूचित जाति-जनजाति की तरह उसकी आबादी के अनुसार क्या 54 फीसद नहीं किया जाना चाहिए? इसके लिए नीतीश जी क्या आवाज़ उठाएंगे ?

लेकिन इन सबसे अलग सवाल यह है कि उदार आर्थिक नीतियों ने सरकारी नौकरियों की संख्या को बहुत कम कर दिया है। कोटा हासिल कर ही नौजवान क्या करेंगे जब नौकरियां ही नदारद हैं।

आज की दुनिया में सामाजिक न्याय और परिवर्तन की सक्रियता साथ-साथ चलनी चाहिए। हम इक्कीसवीं सदी में हैं। डिजिटल जमाने में। जाति के पुराने ढाँचे को लेकर हम अब नहीं चल सकते। अंततः हमें इस जाति व्यवस्था को ख़त्म करना है। नई उत्पादन व्यवस्था, रोजगार और वैज्ञानिक समझ को केंद्र में रख कर एक आधुनिक समाज बन रहा है। आज जो सामाजिक न्याय का व्याकरण बनेगा उसका ढांचा कुछ अलग होगा। मंडल का दौर ख़त्म हो चुका है।


लेखक साहित्यकार और विचारक हैं। बिहार विधानपरिषद के सदस्य भी रहे हैं।