बंगाल को मत छेड़िये प्रधानमंत्री जी !


जानता हूँ कि इस बार नारायणन साहब की तरह के राष्ट्रपति नहीं हैं और न प्रधानमंत्री ही वाजपेयी जी जैसे हैं। लेकिन मैं यह जरूर अनुरोध करूँगा कि प्रधानमंत्री इतिहास की घटनाओं से सबक लें। बंगाल मामले को वह जरुरत से अधिक तूल दे रहे हैं। वहाँ की जनता ने फैसला दिया है ,उसका मजाक बनाने की कोशिश हमें नहीं करनी चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि केवल वही बहुमत में नहीं हैं ; ममता भी बहुमत में हैं।


प्रेमकुमार मणि प्रेमकुमार मणि
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लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की हार -जीत लगी रहती है । इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री रहते खुद का चुनाव (1977 ) हार गई थीं । जाने कितने मुख्यमंत्रियों को सत्ता में रहते हुए चुनावी हार का सामना करना पड़ा । अभी हाल में झाड़खंड के भाजपाई मुख्यमंत्री अपनी सीट नहीं बचा सके; पार्टी तो हारी ही थी । लेकिन ,लोकतंत्र का यही तो सौंदर्य है । जनता निर्णायक होती है,और जनतांत्रिक तकाजा है कि जनता के निर्णय को स्वीकार किया जाय।

लेकिन हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारे मन के आधारभूत अवयव आज भी सामंतवादी हैं ; इसलिए हार -जीत को हम जीवन -मरण का प्रश्न बना लेते हैं। हम जीत को इस तरह नहीं ग्रहण करते कि हम पर एक महती जिम्मेदारी आ गई है। हार को भी हम एक अवकाश की तरह नहीं ग्रहण करते । दुनिया के उन देशों में जहाँ लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं, चुनावी फैसलों को लोग उदारता के साथ ग्रहण करते हैं । यही चाहिए भी।

पिछले महीने बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की उल्लेखनीय जीत हुई और भाजपा की वैसी ही हार। हालांकि इस चुनाव में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी स्वयं चुनाव हार गईं । उन्होंने इसे सहज रूप से लिया। संवैधानिक व्यवस्था है कि वह मुख्यमंत्री बन सकती हैं। एक तय समय में उन्हें सदन का सदस्य होना होगा। चूँकि बंगाल में लेजिस्लेटिव कौंसिल का अस्तित्व नहीं है, इसलिए ममता जी को विधानसभा की ही सदस्यता लेनी होगी। इसका एकमात्र रास्ता चुनाव ही है । वह इसकी व्यवस्था कर रही होंगी

लेकिन, भाजपा शिखर-दरबार और उसके नेताओं से बंगाल के चुनावी फैसले स्वीकार नहीं हो पा रहे हैं । चुनाव में भाजपा और उसके इशारे पर चुनाव आयोग ने लोकतान्त्रिक मर्यादाओं की भरसक धज्जी उड़ाई  महामारी के जानलेवा वातावरण में आठ चरणों में चुनाव हुए। न वहाँ कोई प्राकृतिक आपदा थी और न ही सामाजिक अव्यवस्था । बार-बार मांग होती रही कि अधिकतम तीन चरण में चुनाव संपन्न करा लिए जाएं लेकिन यह नहीं किया गया। महामारी के आतंक के बीच जनता ने लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लिया और भारी मतदान किया। नतीजा सब के सामने है।

कायदे से भाजपा को कम से कम वर्ष भर तक चुप रहना था लेकिन, वह एक दिन भी चुप नहीं रह सकी। दिल्ली के बूते उसने ममता और तृणमूल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। छिटपुट हिंसा हुई; और तब गवर्नर धनखड़ अपने फलसफे गढ़ने लगे। अभी नयी सरकार के बने डेढ़ महीने भी नहीं हुए हैं,चर्चा है गवर्नर उसे बर्खास्त करने की सोच रहे हैं। मैं नहीं जानता सच्चाई क्या है लेकिन उनकी सक्रियता इसी बात का संकेत देती है। यदि यह सच है तो दुर्भाग्यपूर्ण है। न केवल बंगाल के लिए बल्कि पूरी लोकतान्त्रिक परंपरा के लिए भी। इस तरफ सुबुद्ध नागरिकों का ध्यान जाना ही चाहिए।

मैं बिहार से हूँ। स्वाभाविक है, यहाँ की घटनाएं जेहन में अधिक रहती हैं। चाहता हूँ कि बंगाल के वर्तमान राज्यपाल धनखड़ साहब और प्रधानमंत्री मोदी जी बिहार की राजनीति के तेईस साल पुराने वाकये से कुछ सीख लें। याद कर सकता हूँ कि कोई तेईस साल पहले कुछ ऐसी ही स्थिति बिहार में हुई थी। वहाँ आज धनखड़ जी हैं; यहाँ उन दिनों सुन्दर सिंह भंडारी गवर्नर थे। वह आरएसएस की पृष्ठभूमि के अक्खड़ व्यक्ति थे । 1998 के मध्यावधि चुनाव के बाद केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी, जिसमें समता पार्टी के दो मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में शामिल थे। अटल सरकार ने 19 मार्च को शपथ ली थी। अगले ही महीने भंडारी बिहार के नए गवर्नर हुए। तब बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की सरकार थी और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। उन्हें 325 सदस्यों वाले सदन में 185 का समर्थन प्राप्त था। बिहार आने के छह महीने के भीतर ही राज्यपाल भंडारी ने केंद्रीय सरकार को एक रिपोर्ट भेजी कि बिहार की स्थिति बहुत नाजुक है। यहाँ की सरकार बर्खास्त की जाये, विधानसभा भंग की जाय और राष्ट्रपति शासन लगाया जाय। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने 5,327 लोगों की म, 2472 के अपहरण, 342 लोगों की फिरौती और दस हजार व्यापारियों के बिहार छोड़ जाने की बात दर्ज की थी। केंद्रीय सरकार पर समता पार्टी का दबाव था कि इसे स्वीकृत कर राष्ट्रपति को अविलम्ब भेजा जाय। ऐसा ही हुआ भी। 5 अक्टूबर 1998 को कैबिनेट ने इसे स्वीकृति दी और इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया।

ऐसी बात नहीं थी कि बिहार में सबकुछ ठीक था; लेकिन प्रथमदृष्टया राज्यपाल की यह रिपोर्ट अविश्सनीय प्रतीत होती थी। उस वक़्त के.आर नारायणन राष्ट्रपति थे। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी से इस बावत बात की। राष्ट्रपति का कहना था कि किसी चुनी हुई सरकार को इस तरह बर्खास्त करना और विधानसभा भंग करना सही नहीं होगा। वाजपेयी ने उनकी अनसुनी कर दी। उनका विश्वास था कि राष्ट्रपति इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य होंगे। लेकिन नारायणन के पास अपना दिमाग होता था। वह फखरुद्दीन अली अहमद और अब्दुल कलाम की तरह पालतू मिजाज के नहीं थे कि ऐसे मामलों में बिना सोचे -समझे दस्तखत कर दें। उन्होंने कानूनविदों से राय ली और केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सिफारिश को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया। यह शायद आजाद भारत के इतिहास की पहली ऐसी घटना थी।

तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी बिफर उठ । उनका कहना था कि धारा 356 कोई नंबर- खेल नहीं है, अर्थात बहुमत का कोई मतलब नहीं है। आडवाणी यह भूल रहे थे कि उनकी केंद्रीय सरकार भी उसी नंबर गेम के बूते अस्तित्व में थी। बहुमत की ही सरकार होती है। आडवाणी, नीतीश और जॉर्ज की इच्छा थी कि इसे पुनः राष्ट्रपति को भेजा जाय। लेकिन अटल जी को लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का थोड़ा ख्याल था। वह अपने साथियों पर ही बरस पड़े। बात आई-गई हो गई।

लेकिन नीतीश और आडवाणी कब हार मानने वाले थे। अगले साल 1999 के फरवरी में ही , जहानाबाद जिले के नारायणपुर गाँव में ग्यारह दलितों की हत्या हो गई थी। कहा जाता है यह काण्ड केवल सरकार को अस्थिर करने के लिए जान -बूझ कर किया गया था। अब भी भंडारी ही राज्यपाल थे। छह महीने के भीतर ही उन्होंने फिर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की। वाजपेयी जी जमैका में थे, जी -15 के शिखर-सम्मेलन में। उनके लौटने का भी इंतजार नहीं किया गया। उनकी अनुपस्थिति में आडवाणी जी ने कैबिनेट आहूत की और इसे स्वीकृत कर राष्ट्रपति को भेजा। इस बार राष्ट्रपति ने इसे स्वीकार तो लिया लेकिन पखवारे भर के भीतर दोनों सदनों से पास कराने की शर्त भी रख दी। उस वक़्त की सरकार को राज्यसभा में बहुमत नहीं था। प्रस्ताव लोकसभा में तो पास हो गया ,लेकिन राज्यसभा में गिर गया। इस बीच 12 फरवरी से 9 मार्च 1999 तक, कुल पचीस दिनों केलिए बिहार में राष्ट्रपति शासन रहा। फिर राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। वाजपेयी सरकार की चौतरफा थू-थू हुई; राज्यपाल की तो हुई ही। सप्ताह भर के भीतर भंडारी को ही बिहार से हटा लिया गया। अगले महीने वाजपेयी सरकार भी गिर गई ।

मैं जानता हूँ कि इस बार नारायणन साहब की तरह के राष्ट्रपति नहीं हैं और न प्रधानमंत्री ही वाजपेयी जी जैसे हैं। लेकिन मैं यह जरूर अनुरोध करूँगा कि प्रधानमंत्री इतिहास की घटनाओं से सबक लें। बंगाल मामले को वह जरुरत से अधिक तूल दे रहे हैं। वहाँ की जनता ने फैसला दिया है ,उसका मजाक बनाने की कोशिश हमें नहीं करनी चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि केवल वही बहुमत में नहीं हैं ; ममता भी बहुमत में हैं। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि पंजाब और बंगाल इस देश के सबसे संवेदनशील हिस्से हैं । अंग्रेज इसे समझते थे। पंजाब और बंगाल उनकी आँखों की किरकिरी थे। जाते -जाते उन्होंने हिंदुस्तान का बंटवारा नहीं किया था ; बंटवारा किया था पंजाब और बंगाल का। इंदिरा जी ने पंजाब को छेड़ा और उस आग में खुद समाप्त हो गईं। बंगाल को अब अधिक छेड़ा गया तो हम देश के सामने एक नई मुश्किल खड़ा करेंगे । हमें अपने अतीत से सबक लेकर अपने कदम बढ़ाने चाहिए।

 

प्रेम कुमार मणि हिंदी के चर्चित लेखक और स्तम्भकार हैं। बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य भी हैं।


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