अब आरती के साथ चल रहा है ‘कारपोरेट शरणं गच्छामि’ का मंत्रोच्चार!


बहरहाल, अभी मुद्दा मोदी सरकार के वचनभंग का है। इसका कि प्रधानमंत्री के ‘मैं देश नहीं बिकने दूंगा, मैं देश नहीं झुकने दूंगा’ की डपोरशंखी घोषणा के बाद वह किस तरह उसका टेंडर निकाल रही और मोलभाव कर रही है। साथ ही निर्लज्जतापूर्वक बता रही है कि इस रास्ते से उसका छः लाख करोड़ रुपया अर्जित करने का मंसूबा {इसलिए कि इसे इरादा नहीं कहा जा सकता} है।


कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
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जाने माने आलोचक, कवि और ‘वागर्थ’ के सम्पादक शंभुनाथ ने इधर एक नई कविता रची है ‘कारपोरेट शरणं गच्छामि’। इस कविता की कुछ पंक्तियां हैं:

देश से कहीं और जा रहा था देश/कहते हुए-मुझे याद मत रखना।/इतिहास आतंकित था प्राचीन धरोहरों में/सौदागर कर रहे थे इनकी नाप-जोख/खिलाड़ी अभी-अभी लौटे थे ओलंपिक से/स्टेडियम में उनके लिए झांक रही थी/घास से मिट्टी आखिरी बार/आसमान के नीले रंग में मची थी उथल-पुथल/पता नहीं कहां निकल रहे थे टेंडर/पता नहीं कैसे हो रहा था मोलभाव/मूर्तियों से प्रस्थान कर रहे थे महापुरुष/कहते हुए-मुझे याद मत रखना।/अब ट्रेनों पर नहीं लिखा था-/यह जनता की संपत्ति है/हवाईपट्टियाँ जा चुकी थीं उनके पास/नदियां हो चुकी थीं नीलाम/उदास थीं मछलियां उदास थीं नावें/पेड़ों पर बैठने के लिए/अब चिड़ियों को लेना था कूपन…खुल रही थी सामने एक नई दुनिया/अब आरती के साथ चल रहा था मंत्रोच्चार-कारपोरेट शरणं गच्छामि!

हम इन्हें यहां उद्धृत करने का लोभ इसलिए संवरण नहीं कर पा रहे कि ये उम्मीद जगाती हैं कि नरेन्द्र मोदी सरकार देश की सड़कां, रेलों और हवाई अड़्डों से लेकर बिजली, ट्रांसमिशन व गैस पाइपलाइनों तक बुनियादी ढांचे से जुड़ी नाना सरकारी कम्पनियों, सम्पत्तियों, परिसम्पत्तियों, यहां तक कि स्टेडियमों को भी, कारपोरेट के हवाले करने के अपने कुटिल मन्सूबे को उनकी बिक्री के बजाय विनिवेश का नाम दे, लीज का या उससे भी ‘सुन्दर’ राष्ट्रीय मौद्रीकरण पाइपलाइन मिशन का और भले ही राहुल गांधी द्वारा ‘सत्तर साल में बनाई गई पूंजी की बिक्री’ बताने पर घुड़ककर कहने लग जाये कि इसकी प्रक्रिया तो उनकी पार्टी कांग्रेस के ही सत्ताकाल में शुरू हुई थी {जब भूमंडलीकरण की मनुष्यविरोधी नीतियों को ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ यानी अपरिहार्य बताकऱ देश पर थोप दिया गया था}, देश के जनपक्षधर चिन्तक व साहित्यकार नई गुलामी के इस खुल्लमखुल्ला अंगीकार का प्रतिरोध नहीं छोड़ने वाले। न ही वे यह स्वीकार करने वाले हैं कि यह देश अपने भविष्य चिंतन में कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी का इस कदर मोहताज हो चुका है कि उनसे इतर कुछ सोच ही न सके। इतना भी नहीं कि उनके इस तर्क का कि सरकार का काम व्यवसाय करना नहीं है, अर्थ यह नहीं हो सकता कि सरकार का काम देश को बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों का अभयारण्य बनाना और नागरिकों की छाती पर निवेशकों को सवार कराना है।

ठीक है कि आज देश कांग्रेस के फंदे से निकल कर भाजपा के फंदे में जा फंसा है, जो अपने स्वर्णकाल को उसका दुष्काल बनाने पर आमादा है। लेकिन इतिहास गवाह है कि इसके लिए ‘जनादेश’ हासिल करते हुए उसने मतदाताओं को कांग्रेसकाल के सारे खोटों को सर्वथा दूर करने का वचन दिया था। इसका नहीं कि अपनी बारी पर वह कांग्रेसकाल की मिसालें देकर उसके दिये कोढ़ में खाज पैदा करने के सिलसिले को अविराम कर डालेगी। देश का दुर्भाग्य कि आज वह यही कर रही है, जिससे यह प्रमाणित होने में कोई कसर नहीं बच रही कि इन दोनों मध्यवर्गीय पार्टियों में नीतियों के स्तर पर सिक्के के दो पहलुओं जितना फर्क भी नहीं बचा है और उन्हें इतना भर अभीष्ट है कि उनमें से एक बदनाम हो जाये तो दूसरी सत्ता में आ जाये, दूसरी बदनाम हो जाये तो पहली और तीसरे किसी विकल्प की राह अवरुद्ध की अवरुद्ध रह जाये।

बहरहाल, अभी मुद्दा मोदी सरकार के वचनभंग का है। इसका कि प्रधानमंत्री के ‘मैं देश नहीं बिकने दूंगा, मैं देश नहीं झुकने दूंगा’ की डपोरशंखी घोषणा के बाद वह किस तरह उसका टेंडर निकाल रही और मोलभाव कर रही है। साथ ही निर्लज्जतापूर्वक बता रही है कि इस रास्ते से उसका छः लाख करोड़ रुपया अर्जित करने का मंसूबा {इसलिए कि इसे इरादा नहीं कहा जा सकता} है।

उसका शातिराना देखिये, यह छिपाने के लिए कि वह जो बिकवाली करने जा रही है, विनिवेशीकरण के प्रति उसके सात साल पुराने अनुराग की ही कड़ी है, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कह रही हैं कि इस बिकवाली हेतु कोर सेक्टरों सहित विभिन्न क्षेत्रों की जिन परियोजनाओं की पहचान की गई है, उनकी जमीनों की बिक्री नहीं की जा रही और जो कुछ भी किया जा रहा है, वित्तवर्ष 2021-22 के प्रावधानों के अंतर्गत बुनियादी अधोरचना के टिकाऊ वित्तपोषण के लिए किया जा रहा है।
लेकिन इससे यह सच छिपता नहीं कि बार-बार ‘पिछले सत्तर वर्षों में कुछ नहीं हुआ’ की रट लगाने वाली यह सरकार अब वे सारी कंपनियां तथा संपत्तियां बेचने पर आमादा है, जो उन्हीं सत्तर सालों में अस्तित्व में आई थीं। जैसा कि पहले कह आये हैं इसके लिए उसने नैरेटिव गढ़ लिया है कि सरकार को व्यवसाय नहीं करना चाहिए। साथ ही भ्रम फैलाया है कि ये कम्पनियां सरकार और जनता पर बोझ हैं तथा इनके कर्मचारी निकम्मे व भ्रष्ट हैं, जबकि उनमें कई कंपनियां के लाभ के बल पर सरकारें बजट बनाती और कल्याणकारी योजनाएं चलाती रही हैं।

कई जानकार बताते हैं कि उनके विनिवेश के लिए सुनियोजित रूप से उनकी सुविधाएं कम कर, वित्तीय सहायता रोककर या नवीनीकरण, सुधार व आधुनिकीकरण बंदकर उन्हें पहले घाटे में लाया जाता, फिर बेचने की पृष्ठभूमि तैयार की जाती है, ताकि सत्ता के निकटवर्ती उद्योगपतियों व व्यवसायियों को अनैतिक लाभ पहुंचाया जा सके।

इस सिलसिले में सरकार यह कहती है तो भी अर्धसत्य से काम लेने की ही मिसाल बनाती है कि विनिवेश व निजीकरण की अवधारणा पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में नई आर्थिक नीति के दौरान विकसित हुई थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के कार्यकाल में उसका प्रणयन हुआ या कि उसके बाद आई अटल व मनमोहन सरकारों ने भी इसे अनुमोदित किया था। इसका पूरा सच यह है कि अटल व मनमोहन सरकारों ने विनिवेश के काम में देशहित व सतर्कता को कतई नहीं त्यागा था। न ही उसे मिशन बनाकर इस सरकार जैसे अबुद्धिमत्तापूर्ण, अंधाधुंध तथा अनियंत्रित तरीके से चलाया था। हां, उनके वक्त से अब तक होते आ रहे इस अपराध में उन सरकारों के हिस्से से भी इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन न्याय का स्वाभाविक सिद्धांत है कि एक अपराध दूसरे का औचित्य नहीं सिद्ध कर सकता, इसलिए मोदी सरकार उनकी आड़ नहीं ले सकती।

इस सिलसिले में दैनिक देशबंधु ने ठीक ही लिखा है कि यह बेहद दुखद है कि सरकार की मौद्रीकरण नामधारी विनिवेश नीति का कड़ा विरोध न तो विपक्ष कर पा रहा है और न ही आम जनता। आम लोगों में यह समझ भी विकसित नहीं हो पा रही कि इससे पूंजी का केन्द्रीकरण होगा, जिसका खामियाजा अंततः उन्हें ही भोगना पड़ेगा। कारण यह कि भूमंडलीकरण के प्रकोप से प्रायः सारी राजनीतिक पार्टियां एक जैसी हो गई हैं और सत्ता का नीतिगत विपक्ष बचा ही नहीं है।

देश की परिवर्तनकामना को क्षीण सी ही सही, जो उम्मीद दिखाई देती है-अपने चिंतकों और साहित्यकारों से ही दिखाई देती है। यह और बात है कि इनमें भी यशाकांक्षा के वशीभूत होकर पुरस्कारों व सम्मानों के प्रार्थी हो चले महानुभावों की जमात छोटी नहीं रह गई है। उनकी भी नहीं, जिनको इनके लिए सत्ता का क्रीतदास बनने और सत्ताधीशों का चंवर डुलाने से परहेज नहीं है। लेकिन देश की किस्तवार बिक्री के इस दौर में ‘दिनकर’ के शब्दों उनसे यही कहा जा सकता है कि आने वाला समय मोदी सरकार के अपराधों की गिनती करने बैठेगा तो उनकी जानबूझकर ओढ़ी गई तटस्थता के अपराध भी गिनेगा ही गिनेगा। हां, यह भी कि समर अभी शेष है और फैसला बाकी। उम्मीद भी।

 

कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार और अयोध्या से प्रकाशित होने वाले जनमोर्चा के संपादक हैं।

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