वायरस के ‘जीने के अधिकार’ का मतलब….हमारा जीना भी दूभर और मरना भी!


भागवत ने इस लापरवाही में देश की जनता को भी लपेटा, लेकिन उसका अर्थ इतना ही है कि संकट के वक्त भी उनसे पूरा सच बोलने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह समझने की भी नहीं कि जनता को लापरवाही की मूल प्रेरणा उन प्रधानमंत्री ने ही दी, जो ‘ढिलाई नहीं’ रटते और ढिलाई बरतते रहे। यों, यहां भागवत से भी यह सवाल पूछना बनता है कि उनके ‘दुनिया के सबसे बड़े स्वयसेवी संगठन’ के लिए यह वक्त व्याख्यानों और उपदेशों का ही क्यों है, दुखियों की निःस्वार्थ सेवा का क्यों नहीं?


कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
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इन दिनों हम कोरोना के वायरस और सरकारों की काहिली की जैसी दोहरी-तिहरी त्रासदी से दो चार हैं, किसी भी देश के सामने वैसी विकट घड़ी उपस्थित होती है, तो उसके नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे अपनीजनता के साथ खड़े होंगे और बेबसी में उसकी तकलीफें कम करने के लिए और कुछ नहीं कर पायेंगे, तो भी निराश होकर मनोबल खोने से बचायेंगे और ढाढ़स बंधायेंगे। इतना भी नहीं बन पड़ेगा तो कम से कम जले पर नमक तो नहीं ही छिड़केंगे।

लेकिन अफसोस कि हमारे ज्यादातर नेता, खासकर सत्तापक्ष के, वे जिन्हें शक्ति देकर हम अपेक्षाकर रहे थे कि गाढ़े वक्त पर हमारे काम आयेंगे, इस उम्मीद के विलोम ही सिद्ध हो रहे हैं। उनके दिलो-दिमाग या कि हाथ-पैर हमारे दुःखदर्द हरने के लिए तो अपवादस्वरूप ही सक्रिय हो रहे हैं, लेकिन बड़बोलेपन की अभ्यस्त जबान कतारब्यौंत में कैंची को भी मात देती हुई न असंवेदनशीलता व अमानवीयता से परहेज बरत रही है, न अवैज्ञानिकता और न पोगापंथ से।

मिसाल के लिए, हाल में ही ‘भूतपूर्व’ हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को ऐसे वक्त में कोरोना वायरस के ‘जीवन के अधिकार’ की हिमायत अपना सबसे पवित्र कर्तव्य लग रही है, जब उसकी करतूतों का बोझ न सरकारें उठा पा रही हैं, न अस्पताल और न श्मशान व कब्रिस्तान। त्रिवेन्द्र सिंह रावत की ‘दार्शनिक’ दृष्टि, कौन जाने उन्हें बेदखल कर मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत की महिलाओं की फटी जींस देखने वाली ‘संस्कारी’ दृष्टि को मात देने के लिए, कोरोना वायरस को जीने के अधिकार से सम्पन्न एक ऐसे प्राणी के रूप में देखने लगी है, हम जिसके पीछे लगे हुए हैं और जो बचने के लिए अपना रूप बदल रहा यानी बहुरुपिया हो गया है। यानी आक्रामक हम हैं, वायरस नहीं और वह बेचारा बचने के लिए बहुरुपिया बनने को विवश है।

आश्चर्य नहीं कि उनके इस कथन ने देश के उन सारे हलकों में रोष व क्षोभ की लहर फैलाई है, जहां इस त्रासदी में भी मानवीय गुणों, मूल्यों और संवेदनाओं को इस तरह के अविवेक से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सका है। उसने इस सवाल को भी जन्म दिया है कि कोरोना एक प्राणी है, तो क्या उसका आधार कार्ड और राशन कार्ड भी है? इस सुझाव को भी कि ऐसा है तो क्यों नहीं इस वायरस जीव को सेंट्रल विस्टा में आश्रय दिया जाना चाहिए।

यों, इस सिलसिले में सबसे सीधा और जरूरी होने के बावजूद अब तक एक बार भी नहीं पूछा गया सवाल यह है कि क्या कोरोना वायरस के जीने के अधिकार का मतलब यह है कि उसकी रक्षा के लिए हमें ऐसे दर्दनाक हालात के हवाले कर दिया जाये कि हमारा जीना-मरना दोनों दूभर हो जायें? अगर नहीं तो ऐसा क्यों किया जा रहा है?

इस सवाल का जवाब बार-बार यह याद करने के बावजूद नहीं मिल रहा कि न त्रिवेन्द्र सिंह रावत के निकट ऐसी लफ्फाजी कोई नई बात है, न ही वे अपने खेमे के इकलौते मुंहजोर नेता हैं। वे दो साल पहले भी ऐसा दावा करके चर्चा में रह चुके हैं कि श्वसन क्रिया के वक्त गाय न केवल ऑक्सीजन लेती है, बल्कि आक्सीजन निकालती भी है। इतना ही नहीं, गाय पर हाथ सहलाने से सांस लेने की समस्या और उसके लगातार संपर्क में रहने से टीबी ठीक हो सकती है।

उनसे पहले केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा को पत्रकारों द्वारा याद दिलाया गया कि कर्नाटक हाईकोर्ट ने कोरोना टीकाकरण की रफ्तार को टीकाकरण के उद्देश्य को ही विफल कर देने वाली बताया है, तो कोई तर्कसंगत जवाब देने के बजाय वे आपा खो बैठे और चिढ़कर सवाल पूछने लगे। यह भूलकर कि वे मंत्री हैं और मंत्री के रूप में उनका काम पत्रकारों से सवाल पूछना नहीं, उनके सवालों के जवाब देना है। उन्होंने पूछ लिया कि क्या सरकार में बैठे लोगों को अदालत के आदेशों के अनुसार टीके के उत्पादन में नाकामी की वजह से खुद को फांसी पर लटका लेना चाहिए?

उनके इस सवाल पर सिर्फ और सिर्फ हंसा जा सकता है-बशर्ते उससे पहले यह सोचकर रुलाई न फूट पड़े कि आखिर हमने अपने लिए कैसे-कैसे सत्ताधीश चुन लिये हैं, जो इतना भी नहीं जानते कि वे अपने कर्तव्य न निभा सकें तो उनके पास खुद को फांसी पर लटका लेने का ही विकल्प नहीं है। देश में कानून का राज है और कानून कहता है कि वे अपनी मर्जी से न खुद को फांसी पर लटका सकते हैं, न किसी और को। ये दोनों ही कृत्य भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय हैं।

हां, कोई बात उनसे बनाये न बन रही हो या हालात संभाले न संभल रहे हों तो वे अपनी फोकट की कार से उतरने, सरकारी बंगले से फूटने और बाहर का दरवाजा देखने का विकल्प सुन सकते हैं-बशर्ते इतने नैतिक साहस से सम्पन्न हों। फिर न वे सरकार या कार्यपालिका का हिस्सा रह जायेंगे और न सवालों के सामने होंगे। लेकिन अभी तो मुश्किल यह है कि उनके यह महसूस कर लेने के बावजूद कि ‘व्यावहारिक रूप से कुछ चीजें जो हमारे नियंत्रण से परे हैं और हम पूरी ईमानदारी और निष्ठा के बावजूद उनका प्रबंधन नहीं कर सकते’, पस्तहिम्मत मीडिया उनसे यह सवाल पूछने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा कि क्या यह उनकी विफलता नहीं है? और है तो वे खुद को फांसी पर लटकाने के बजाय इस्तीफे का विकल्प क्यों नहीं आजमा रहे? भले ही भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि कह रहे हैं कि न्यायाधीश सब कुछ जानने वाले नहीं होते, संदानन्द गौड़ा जैसे मंत्री अपने आप इतना भी नहीं समझ पा रहे कि अदालतें तो होती ही दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए हैं और उनके कहे को लेकर किसी मंत्री का यों भड़कना भी जनता की छाती पर मूंग दलने जैसा ही गुनाह है।

केन्द्रीय मंत्रियों के ऐसे गैरजिम्मेदार बरतावों को संकट की घड़ी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के सोती पकड़ी जाने के साथ मिलाकर देखें तो समझ सकते हैं कि क्यों अब उनके पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक के लिए सरकार का बचाव मुश्किल हो रहा है? और क्यों गत शनिवार को उसके सरसंघचालक मोहन भागवत को अपनी ‘पॉजिटिविटी अनलिमिटेड’ व्याख्यान श्रृंखला में स्वीकारना पड़ा कि हम इन दिनों जो कुछ भोग रहे हैं, उसके पीछे सरकार और प्रशासन की लापरवाही भी है, जो डाक्टरों द्वारा दिये जा रहे दूसरी लहर के संकेतों के बावजूद बरती गई।

अलबत्ता, भागवत ने इस लापरवाही में देश की जनता को भी लपेटा, लेकिन उसका अर्थ इतना ही है कि संकट के वक्त भी उनसे पूरा सच बोलने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह समझने की भी नहीं कि जनता को लापरवाही की मूल प्रेरणा उन प्रधानमंत्री ने ही दी, जो ‘ढिलाई नहीं’ रटते और ढिलाई बरतते रहे। यों, यहां भागवत से भी यह सवाल पूछना बनता है कि उनके ‘दुनिया के सबसे बड़े स्वयसेवी संगठन’ के लिए यह वक्त व्याख्यानों और उपदेशों का ही क्यों है, दुखियों की निःस्वार्थ सेवा का क्यों नहीं?

विडम्बना देखिये, उनकी जमातों द्वारा तबलीगी जमात को कोरोना संक्रमण के प्रसार की खलनायक बनाने के अरसे बाद वे लोगों से तो कह रहे हैं कि अफवाहों पर ध्यान न दें, तन को निगेटिव व मन को पाजिटिव रखें और जब तक जीत न हासिल हो जाये, लड़ते रहें यानी हमेशा के लिए तनी हुई रस्सी पर चलते रहें, लेकिन अपने स्वयंसेवकों से भरी सरकारों से नहीं कह रहे कि इतनी अकर्मण्यता उनकी सेहत के लिए अच्छी नहीं है। ऐसे में ‘भेदभाव भूलकर और किसी पर उंगली उठाये बिना’ एकजुट रहने की उनकी अपील भी जले पर नमक से कम नहीं ही लगती।

वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह फ़ैज़ाबाद से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।

संपर्क- 5/18/35, बछड़ा सुल्तानपुर मुहल्ला, फैजाबाद {अयोध्या}-224001
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