कारगिल युद्ध: सेना के शौर्य और ख़ुफ़िया विफलता की दास्तान!


सरकार ने कारगिल घुसपैठ के विभिन्न पहलुओं पर गौर करने के लिए के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में कारगिल रिव्यू कमेटी (KRV) गठित की थी. इस समिति के तीन अन्य सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) के.के. हजारी, बीजी वर्गीज और सतीश चंद्र, सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को बड़ी ही प्रमुखता से बल दिया कि-● देश की सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली में गंभीर कमियों के कारण कारगिल संकट पैदा हुआ।● रिपोर्ट ने खुफिया तंत्र और संसाधनों और समन्वय की कमी को जिम्मेदार ठहराया।● इसने पाकिस्तानी सेना के गतिविधियों का पता लगाने में विफल रहने के लिए रॉ RAW को दोषी ठहराया।


विजय शंकर सिंह विजय शंकर सिंह
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आज विजय दिवस है। आज ही के दिन वर्ष 1999 में हमारी सेनाओं ने पाकिस्तान की सेना जो घुसपैठियों के रूप में घुस कर कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर कब्ज़ा जमा चुकी थी, को अत्यंत कठिन युद्ध मे पराजित कर खदेड़ दिया था। उस युद्ध के समय थल सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक थे और प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी। यह युद्ध कई मामलों में भारत पाकिस्तान के बीच लड़े गए पिछले युद्धों से अलग था और उन सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण भी। इस युद्ध को युद्ध घोषित भी नहीं किया गया था, पर युद्ध मे दिए जाने वाले शौर्यता और वीरता के पदक हमारे जवानों को उनकी युद्ध मे वीरोचित भूमिका के लिये दिए गए।

इस युद्ध मे हमारी सेनाओं ने, लाइन ऑफ कंट्रोल एलओसी को पार नहीं किया। ऐसा सरकार की नीति के कारण था। भारत और पाक दोनो ही परमाणु शक्ति सम्पन्न देश बन चुके थे। एलओसी को पार करने से युद्ध का दायरा और बढ़ सकता था, और फिर दोनो देशों को अधिक नुकसान भी उठाना पड़ सकता। इसे देखते हुए, सरकार ने घुसपैठ कर चुके, पाकिस्तानी सेना और उनके उग्रवादी लड़को को ही अपनी सीमा से बाहर करने का निर्णय लिया। सैन्य जानकर यह बताते हैं कि, ऐसी स्थिति के कारण भारत को अधिक सैन्य नुकसान हुआ, जिसका कारण, पाकिस्तान की सेना का पहले से ही ऊंचाई पर आ कर अपना ठीहा बना लेना था। 1971 के बांग्लादेश के समय हुए भारत पाक युद्ध के बाद यह पहला प्रत्यक्ष युद्ध था, हालांकि पाकिस्तान के साथ एक प्रकार का छद्म युद्ध तो आज़ादी के बाद से ही चल रहा है।

इस युद्ध की शुरुआत तब हुयी, जब, पाकिस्तान की सेना और पाक समर्थक, अलगाववादी गुटों ने भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा को पार कर भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा करने के इरादे से एक बड़ी घुसपैठ की। घुसपैठ करने वालों में, पाकिस्तान की सेना थी और यह सब पाकिस्तान ने योजनाबद्ध तऱीके से किया था, लेकिन पाकिस्तान ने दुनिया के सामने यही दावा किया कि लड़ने वाले सभी कश्मीरी उग्रवादी हैं, और उसका इसमे कोई हांथ नहीं है। लेकिन पाकिस्तान का यह झूठ टिक न सका। युद्ध में बरामद हुए दस्तावेज़ों और पाकिस्तानी नेताओं के बयानों ने ही यह प्रमाणित कर दिया कि, पाकिस्तान की सेना प्रत्यक्ष रूप में इस युद्ध में शामिल थी। इस युद्ध मे, लगभग 30,000 भारतीय सैनिक और करीब 5000 घुसपैठिए शामिल थे। भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान के कब्ज़े वाली जगहों पर ज़ोरदार हमला किया और पाकिस्तान को सीमा पार वापिस जाने को मजबूर कर दिया। इस युद्ध मे पाकिस्तान की पराजय ने, उनकी आंतरिक राजनीति को भी प्रभावित किया। पाकिस्तान में इस युद्ध के कारण राजनैतिक और आर्थिक अस्थिरता बढ़ गई और इसका परिणाम नवाज़ शरीफ़ की सरकार की रुखसती से हुआ और इस योजना को अंजाम देने वाले, जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए।

लगभग, 18 हजार फीट की ऊँचाई पर लड़े गए इस युद्ध में देश ने लगभग 527 बहादुर जवानों को खोया वहीं 1300 से ज्यादा जवान घायल हुए। युद्ध में 2700 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और 250 पाकिस्तानी सैनिक पीठ दिखा कर भाग गए। पाकिस्तान ने तो इस युद्ध की शुरूआत 3 मई 1999 को ही कर दी थी जब उसने कारगिल की ऊँची पहाडि़यों पर 5,000 सैनिकों के साथ घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया था। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल इस युद्ध मे किया। इसके बाद जहाँ भी पाकिस्तान ने कब्जा किया था वहाँ बम गिराए गए। इसके अलावा मिग-29 की सहायता से पाकिस्तान के कई ठिकानों पर आर-77 मिसाइलों से हमला किया गया। इस युद्ध में बड़ी संख्या में रॉकेट और बमों का इस्तेमाल किया गया। इस दौरान करीब दो लाख पचास हजार गोले दागे गए। वहीं 5,000 बम फायर करने के लिए 300 से ज्यादा मोर्टार, तोपों और रॉकेटों का इस्तेमाल किया गया। युद्ध के 17 दिनों में हर रोज प्रति मिनट में एक राउंड फायर किया गया। बताया जाता है कि कम ही ऐसे युद्ध होंगे, जिसमें दुश्मन देश की सेना पर इतनी बड़ी संख्या में बमबारी की गई हो।

5 मई 1999 तक पाकिस्तान की सेना ने कारगिल की ऊंचाई पर अपना मोर्चा जमा लिया था और घुसपैठ तो उसके पहले से ही जारी थी, लेकिन तब तक, उस घुसपैठ की हमारी खुफिया एजेंसियों को कोई जानकारी नहीं हो पायी थी। एलओसी औऱ जम्मूकश्मीर जैसे संवेदनशील इलाके में जहां पर खुफिया एजेंसियों जो अत्यंत सतर्क रहना चाहिये, वहां यह विफलता बेहद हैरान करने वाली सूचना है। इस युद्ध के घटनाक्रम पर एक निगाह डालते हैं।
● 3 मई 1999 : एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचना दी।
● 5 मई : भारतीय सेना की पेट्रोलिंग टीम जानकारी लेने कारगिल पहुँची तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया और उनमें से 5 की हत्या कर दी।
● 9 मई : पाकिस्तानियों की गोलाबारी से भारतीय सेना का कारगिल में मौजूद गोला बारूद का स्टोर नष्ट हो गया।
● 10 मई : पहली बार लदाख का प्रवेश द्वार यानी द्रास, काकसार और मुश्कोह सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों को देखा गया।
● 26 मई : भारतीय वायुसेना को कार्यवाही के लिए आदेश दिया गया।
● 27 मई : कार्यवाही में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया।
● 26 जुलाई : कारगिल युद्ध आधिकारिक तौर पर समाप्त हो गया । भारतीय सेना ने पाकिस्तानी घुसपैठियों के पूर्ण निष्कासन की घोषणा की।

हर युद्घ के बाद, उसकी उपलब्धियों और अपनी नाकामियों की समीक्षा होती है। यह समीक्षा सरकार तो करती ही है, साथ ही उस युद्ध मे भाग लेने या युद्ध का नेतृत्व करने वाले बड़े फौजी अफसर भी करते हैं। यह एक परंपरा है। लगभग हर फौजी जनरल अपना संस्मरण लिखता है और उसमे अपनी भूमिका का उल्लेख भी करता है। कभी कभी यह संस्मरण आत्मश्लाघा से भरे भी हो सकते हैं तो कभी कभी वे युद्धों का सटीक विवरण भी देते हैं। हालांकि ऐसे संस्मरणों के बारे में, एक तंजिया वाक्य अक्सर कहा जाता है कि शिकार और युद्ध के संस्मरण अक्सर डींग हांकने की शैली में होते हैं, और उनमे अतिश्योक्ति का भाव अधिक होता है। पर युद्ध की वास्तविकता का इतिहास जानने के लिये इन संस्मरणों का अध्ययन आवश्यक भी होता है। ये सैन्य इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत भी होते हैं।

कारगिल युद्ध के समय देश के थलसेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक थे। जब यह घुसपैठ हुयी तो वे विदेश के दौरे पर थे। दो साल पहले जनरल मलिक ने, पत्रकार पीयूष बबेले को दिए गए अपने इंटरव्यू में बताया था कि जब वे विदेश से वापस लौटे तो उन्होंने इस घुसपैठ के बारे में पूरी जानकारी ली तो उन्हें बताया गया कि घुसपैठ हुयी है और हमारे जवान उनसे निपट लेंगे। इसके बाद ही कारगिल युद्ध की शुरुआत हुई। एलओसी पार न करने का निर्णय, सरकार का था, हालांकि सेना एलओसी को थोड़ा बहुत रणनीतिक रूप से पार करना चाहती थी। लेकिन,
” कैबिनेट ने फैसला लिया था कि हम लाइन ऑफ कंट्रोल पार नहीं करेंगे. एक तो उसकी वजह यह थी कि उस समय तक भारत और पाकिस्तान दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश बन गए थे।

दूसरी बात यह थी कि लोगों को तब तक सही स्थिति पता नहीं थी। इंटेलिजेंस रिपोर्ट सही नहीं थी कि यह लोग मुजाहिदीन हैं या यह पाकिस्तानी आर्मी के लोग हैं, क्योंकि हमारे रूल्स ऑफ एंगेजमेंट अलग-अलग होते हैं। अगर पाक फौज से लड़ना है तो अलग नियम हैं और अगर मिलिटेंट से लड़ना है तो दूसरी स्थिति है। इस वजह से उन्होंने इजाजत नहीं दी थी, हमें एलओसी पार करने की।”

जनरल मलिक खुफिया सूचनाओं की अस्पष्टता की बात कर रहे हैं, और इस दुविधा की भी चर्चा कर रहे हैं कि, उन्हें पाक सेना से लड़ना था या मिलिटेंट से। सेना किसी भी मिलिटेंट गुट की तुलना में अधिक समर्थ, प्रशिक्षित, अनुशासित और संसाधनों से समृद्ध होती है, जब कि मिलिटेंट गुट उग्रवादी लड़को का एक हथियबन्द समूह होता है जो युद्ध के लिये प्रशिक्षित नही होते हैं बल्कि वे अपराध के लिये मोटिवेटेड और प्रशिक्षित होते हैं। जनरल मलिक इसी को ही स्पष्ट कर रहे हैं।

एलओसी न पार करने के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सार्वजनिक बयानों पर भी जनरल मलिक ने अपनी बात कही है। इस विषय पर वे कहते हैं-

” लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब दो बार पब्लिकली यह बात कही कि उन्होंने फौजों से कहा है कि वे एलओसी पार न करें तब मैंने उनसे यह बात की कि सर, आपको यह बात पब्लिक में कहना ठीक नहीं है। हम कोशिश करेंगे कि हम लाइन ऑफ कंट्रोल पार न करें, लेकिन अगर हमको जरूरत पड़े और मुझे लगा कि एक जगह लड़ाई से काम नहीं चलेगा, तो हमारे पास छूट होनी चाहिए। ऐसे में उस वक्त आप क्या बोलेंगे। उन्होंने मेरी बात समझी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र ने उसी शाम एक चैनल के ऊपर इंटरव्यू दिया और कहा कि नियंत्रण रेखा पार न करने की बात आज के लिए ठीक है. लेकिन कल क्या होगा इसके बारे में अभी हम कुछ कह नहीं सकते। ”

युद्ध मे अपनी भूमिका को याद करते हुए जनरल मलिक कहते हैं-

” सबसे पहले तो मैं अपने सारे जवानों और ऑफिसर्स की प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल कायम की है कि, बहादुरी क्या होती है, देशभक्ति क्या होती है. और जिस लगन से उन्होंने काम किया वह वाकई प्रशंसा लायक चीज थी। मैं युद्ध के मोर्चो पर उनसे मिलने के लिए हर 6 दिन में एक बार जाता था। मैं यह भी कह सकता हूं कि उन्होंने मेरा हौसला भी बढ़ाया क्योंकि मैंने जब भी पूछा कि क्यों क्या हालात हैं, कैसा लग रहा है तो उन्होंने यही कहा कि आप फिक्र मत करो सर हम सब ठीक कर देंगे. आप फिक्र मत करो।”

वे आगे कहते हैं, ” 13 जून को प्रधानमंत्री के साथ मैं कारगिल गया था और वहां के हेलीपैड पर हम खड़े हुए थे। बृजेश मिश्रा भी थे और शायद जॉर्ज फर्नांडिस भी थे, तभी पाकिस्तानियों ने कारगिल कस्बे के ऊपर बमबारी शुरू कर दी। हम लोग हेलीपैड के ऊपर खड़े हुए थे, जहां से हम, यह सब देख रहे थे। सौभाग्य से वह हेलीपैड ऐसी जगह पर था, जहां मुझे यकीन था कि कोई गोला वहां तक नहीं आ सकता है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मेरी तरफ देखा। वह बहुत शांत रहे और मुस्कुराते रहे. मुझसे इशारा करके कहने लगे यह क्या हो रहा है. मैंने कहा हां, ऐसा तो, लड़ाई में होता ही रहता है सर।”

कारगिल के युद्ध के पीछे किसकी असली भूमिका थी, जनरल परवेज मुशर्रफ की या पाकिस्तान का राजनैतिक नेतृत्व की ? इस पर अपनी किताब ‘फ्रॉम सरप्राइस टू विक्ट्री’ में उन्होंने यह लिखा है, कि इसके पीछे नवाज शरीफ का भी हाथ था। इस बात की पुष्टि, पाकिस्तान में भी छपी एक किताब ‘फ्रॉम कारगिल टू कूप, में कहा गया है कि इस युद्ध के पीछे नवाज शरीफ का भी बराबर का हाथ था। इस विषय पर जनरल मलिक ने कहा कि, ” जब हमें यकीन हो गया कि इसके पीछे पाकिस्तान मुजाहिदीन नहीं हैं, यह पाकिस्तानी फौज है। इसके अलावा परवेज मुशर्रफ और उनके कमांडर के बीच जो बातचीत हमने इंटरसेप्ट किया था, से मुझे पता चला था कि इस बारे में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को कुछ न कुछ मालूम तो जरूर है। हो सकता है, उन्हें पूरी बात मालूम न हो, लेकिन कुछ न कुछ बताया तो उन्हें जरूर गया है। उसके बाद भी जो रिपोर्ट आती रही हैं, उससे यही अंदाजा लगा कि परवेज मुशर्रफ ने प्राइम मिनिस्टर से बातचीत की थी और उसको कुछ ब्रीफिंग भी दी है. नवाज शरीफ का यह कहना कि उन्हें कुछ मालूम नहीं था, यह बात सही नहीं है।”

कारगिल रिव्यू कमेटी ने भी पर्याप्त, सटीक और कार्यवाही योग्य खुफिया सूचनाओं के न होने की बात भी मानी है। इस पर जनरल मलिक का कहना था कि, ” अगर हमें पहले से अच्छी वार्निंग मिल जाती या यह खबर मिल जाती कि पाकिस्तान आर्मी वहां है और ऐसा हमला करने की तैयारी कर रही है तो निश्चित तौर पर हम वहां पहले से कुछ न कुछ तैयारी कर लेते। शायद बहुत ज्यादा कर लेते। हथियार भी वहां पर पहुंचा देते। क्योंकि उन हालात में हमने जल्दबाजी में जो रिएक्शन किया, इंटेलिजेंस सूचना होने पर वही काम हम पूरी तैयारी से आराम से करते। ऐसे हालात में हमारे कम सैनिक शहीद होते. लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि यह इंटेलिजेंस का फेल्योर था. हम यह नहीं कह पाए कि पाकिस्तान आर्मी वहां पर तैयारी कर रही है अटैक करने की।”

सरकार ने कारगिल घुसपैठ के विभिन्न पहलुओं पर गौर करने के लिए के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में कारगिल रिव्यू कमेटी (KRV) गठित की थी. इस समिति के तीन अन्य सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) के.के. हजारी, बीजी वर्गीज और सतीश चंद्र, सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को बड़ी ही प्रमुखता से बल दिया कि-

● देश की सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली में गंभीर कमियों के कारण कारगिल संकट पैदा हुआ।
● रिपोर्ट ने खुफिया तंत्र और संसाधनों और समन्वय की कमी को जिम्मेदार ठहराया।
● इसने पाकिस्तानी सेना के गतिविधियों का पता लगाने में विफल रहने के लिए रॉ RAW को दोषी ठहराया।

रिपोर्ट के पेश किए जाने के कुछ महीनों बाद राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंत्रियों का समूह (GoM) का गठन किया गया जिसने खुफिया तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता पर सहमति जतायी थी।अब स्थिति पहले से काफी बेहतर है। ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) कुशकल ठाकुर, जो 18 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर थे. साथ ही जो टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर कब्जा करने में शामिल थे, ने एक लेख में, कहा कि, ” कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ के पीछे खुफिया विफलता मुख्य कारण थी. लेकिन पिछले 20 वर्षों में, बहुत कुछ बदल गया है. हमारे पास अब बेहतर हथियार, टेक्नोलॉजी, खुफिया तंत्र हैं जिससे भविष्य में कारगिल-2 संभव नहीं है।”

वर्ष 1999 में कारगिल में एलओसी पर एक बटालियन थी. आज हमारे पास वहां, एक डिवीजन हैं।

आज हम सब कारगिल युद्ध को, विजय दिवस और शौर्य दिवस के रूप में मना रहे हैं और इस युद्घ में अपना सर्वोच्च बलिदान दे देने वाले अपने सैनिकों को याद कर रहे हैं। शौर्य, वीरता, शहादत यह सब बेहद पवित्र शब्द हैं पर यह एक दुःखद पल भी होता है। मृत्यु कितनी भी गौरवपूर्ण हो, वह रुलाती ही है और एक ऐसी रिक्तता छोड़ जाती है, जिसे कभी भरा नही जा सकता। हम गीता के उपदेशों औऱ अनेक दार्शनिक उद्धरणों से खुद को दिलासा देते हुए भी मृत्यु के इस दारुण कष्ट को भींगी आंखों से महसूस भी करते रहते है। महाभारत काल से ही, युद्ध, सदैव एक अंतिम विकल्प माना जाता रहा है। इसलिए दुनियाभर की सरकारें युद्ध रोकने की हर सम्भव कोशिश भी करती हैं, और यदि युद्ध अपरिहार्य हो भी जाता है तो, हर सेना की यह कोशिश होती है कि कम से कम सैनिकों की जीवन हानि हो। इसीलिए, खुफिया जानकारी, उन्नत अस्त्र शस्त्र की व्यवस्था सदैव समय के साथ साथ बनाये रखी जाती है। भारत की उत्तरी सीमा पर पाकिस्तान और चीन दोनों ही अविश्वसनीय पड़ोसी हैं जिनसे देश को सदैव सतर्क रहना है। कारगिल के बाद सरकार ने कारगिल रिव्यू कमेटी की कई सिफारिश मानी है और संसाधनगत अनेक सुधार भी हुए हैं पर यह ध्यान रखना युद्ध लड़ने से अधिक महत्वपूर्ण है कि दुश्मन की खूफिया जानकारी, हमारी सेना के पास नितन्तर हो जिससे युद्ध मे होने वाले जन धन हानि दोनो से बचा जा सके। कारगिल के शहीदों को वीरोचित नमन और उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

 

लेखक भारतीय पुलिस सेवा से अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं।