शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के नाम- ‘अदने’ से एक्टर इरफ़ान का ख़त

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उर्दू के आला अदीब, पद्मश्री शम्सुर्रहमान फारूक़ी का दिल्ली के फोर्टिस से इलाज करवा कर, इलाहाबाद लौटने के हफ्ते भर बाद ही इंतक़ाल हो गया। शम्सुर्रहमान को उर्दू साहित्य का टीएस इलियट कहा जाता था। वे केवल शायर नहीं थे, आला लेखक और आलोचक भी थे। अपनी पीढ़ी के आख़िरी अदीब, शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी ने दास्तानगोई की, अवध पुरानी उर्दू कहानी कहने की शैली को पुनर्जीवित भी किया। उनका नॉवेल ‘कई चांद थे, सरे आसमां’ उर्दू नहीं, हिंदी के भी सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है। मशहूर दिवंगत अभिनेता इरफ़ान ने, उनके इस उपन्यास पर एक फिल्म बनाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर करते हुए-उनको एक पत्र लिखा था, जिसे हम हिंदी में साझा करने की कोशिश कर रहे हैं;

प्रिय शम्स-उर-रहमान साहब 

आदाब,

सबसे पहले मुझे, मेरे लेखन कौशल के लिए मुआफ़ करें क्योंकि मैं लिखे गए अल्फ़ाज़ में अपने ख़्यालों को ज़ाहिर करने में बेहद सीमित हूं। लेकिन मैं पूरी क़ोशिश करूंगा।

ये मेरी खुशनसीबी थी कि मैं आपसे बात कर सका, जैसी कि मैं काफ़ी वक़्त से क़ोशिश कर रहा था कि आपसे राब्ता क़ायम कर सकूं और आख़िरकार ये हो सका।

पिछले कई सालों से मेरा सिनेमा में रहते हुए, कहानियों से एक करीबी रिश्ता रहा है।

मेरे लिए ये कहानियां, दर्शकों से अपने आप को साझा करने का सबसे बड़ा मंच रही हैं…कहानियां जो मेरा ही हिस्सा बन गई हैं…मेरे साथ रहती हैं, मुझसे महीनों और सालों तक बात करती रहती हैं…कहानियां, जो ज़िंदगी के नए मायने बताती रहती हैं, कहानियां जिनसे मैं बेहतर होता हूं और जो मेरी कहानी कहती हैं।मैं ये सब ज़ेहन में रख कर ही कहानियों का चुनाव करता हूं, जिसमें कई बार मैं क़ामयाब होता हूं और कई बार नाक़ामयाब भी। और संयोगवश मेरी कुछ फिल्में, जिसमें मैं बेहद खुश रहा हूं-उनमें से एक शेक्सपियर के मैकबेथ का ‘मक़बूल’ में रुपांतरण थी, जिसे विशाल भारद्वाज ने बनाया…एक और फिल्म थी ‘द नेमसेक’ जो झुंपा लाहिरी के पुलित्ज़र विजेता उपन्यास पर आधारित और मीरा नायर द्वारा निर्देशित थी और हालिया, ऑस्कर जीतने वाली ‘द लाइफ़ ऑफ पाई’ येन मार्टेल के लिखे उपन्यास पर आधारित थी, जो एक व्यक्ति की, कई महीनों तक, समुद्र में एक बाघ के साथ यात्रा का आनंददायी अफ़साना थी, वो सह-अस्तित्व और आस्था की तलाश पर एक दार्शनिक चिंतन थी…जैसा कि एक कहावत है कि ‘आप क़िताबों को नहीं ढूंढते, क़िताबें आपको ढूंढ लेती हैं..’ 

मुझे लगता है कि आपकी क़िताब ने, मुझे ढूंढ लिया है…

मैंने हाल ही में आपकी क़िताब पढ़ी और मंत्रमुग्ध रह गया..आपका जादुई कथानक, एक चमकते और डूबते दौर की अंदरूनी और बाहरी दुनिया की ऐसी अंतर्कथा ने मुझे निःशब्द छोड़ दिया…वो गरिमा, वो शान, वो करुणा, सुंदरता, रोमांस, जुनून, आकर्षण, रहस्य, भ्रम, समय की क्रूर सच्चाई और जांविदां और अपनापे की ख़ूबसूरती..

आपकी क़िताब के लिए मेरे शब्द कभी भी, उससे इंसाफ़ नहीं कर पाएंगे.

ऐसा लगता है कि क़िताब बनने से पहले, ये आपको अंदर दशक-दर-दशक धीमी आंच पर पकती रही है…

जबसे मैंने ये क़िताब पढ़ी है, इसने मेरे अंदर से निकलने से इनकार कर दिया है। मैं किसी जादू में बंध गया हूं.

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं, इसे सिनेमा और टीवी के दर्शकों से भी, इसकी ख़ूबसूरती और रूह का बरक़रार रखते हुए साझा करूं.

मैं विनम्रता से, इसके लिए आपकी इजाज़त चाहूंगा।

मेरे लिए, जो भी हुक़्म हो – फ़रमाइएगा, मुंतज़िर रहूंगा.

एक अदना सा एक्टर, इरफ़ान

2020 में इरफ़ान और शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी, दोनों ही दुनिया को अलविदा कह गए। ये छोटा सा ख़त, न तो इरफ़ान के सिनेमा में किए काम की कोई बानगी है और न ही शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के साहित्य में किए गए काम की। ये बस एक ज़रिया है, ये समझने का कि दरअसल लेखक, अपने समय और अपने समय की हर कला से न केवल कितना आगे होता है, बल्कि अपने समय की हर कला पर अपने निशान छोड़ता है। इरफ़ान का ये ख़त, हमको समझाता है कि कलाकार होने और अच्छा कलाकार होने के बीच का फ़र्क, ये विनम्रता और लेखक के प्रति सम्मान का होना है। लेखक होना, अपने को दुनिया भर की तक़लीफ़ों के समंदर में डुबो देना है…शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी होकर, आप सिर्फ हाल के नहीं, माज़ी के दुखों में भी ख़ुद को डुबोते हैं…

शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के शब्दों में, वो ‘शब्दों के घर’ बनाते थे…हमको घर देने का शुक्रिया फ़ारुक़ी साहब…अलविदा…