क्या मोहन भागवत को सद्बुद्धि आ गई है?


अगर यह लिंचिग हिन्दुत्व के खिलाफ है तो क्या वे उसमें लिप्त लोगों को सजा दिलाने के प्रयत्नों में भागीदार होने अथवा उनका वहिष्कार करने के लिए तैयार हैं? क्यों वे अभी भी यही कहते हें कि लिंचिंग की ज्यादातर घटनाएं फर्जी होती हैं? क्यों सारे के सारे लिंचिग करने वाले खुद को संघ और मोदी का समर्थक ही बताते हैं और अक्सर अल्पसंख्यकों व दलितों को ही शिकार बनाते हैं? क्यों हम नरेन्द्र मोदी सरकार के मंत्री तक को लिंचिंग के आजीवन कारावास की सजा पाये और जमानत पर छूटे आरोपियों को माला पहनाते देखने को अभिशप्त हैं? क्यों कई भाजपा नेता मुसलमानों के देश प्रेम पर शक करते हुए उनको पाकिस्तान जाने की बिना मांगी और अपमानित करने वाली सलाह देते रहते हैं?


कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
ओप-एड Published On :


यह तथ्य अब पुराना पड़ चुका है कि खुद को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने स्वयंसेवकों की मार्फत न सिर्फ केंद्र व राज्यों समेत देश की ज्यादातर सरकारों के नेतृत्व बल्कि अधिकतर शीर्ष संवैधानिक पदों पर भी कब्जा कर लिया है। लेकिन दकियानूसी सोच से पैदा हुई उसकी आत्मदया व असुरक्षा की ग्रंथियां हैं कि उसे चैन नहीं लेने देतीं। यही कारण है कि वह अभी भी अपने वास्तविक स्वरूप की परदेदारी की नाना प्रकार की कवायदें करता रहता है। वैसे ही जैसे अपनी राजनीति को तरह-तरह के सांस्कृतिक खोलों में छिपाता फिरता है। करे भी क्या, बारह से ज्यादा सालों तक देश की सत्ता का सुख उठाने और जन्मशती से थोड़ा ही दूर रह जाने के बावजूद देश या दुनिया में अपनी कूढ़मगजी व कट्टरता के लिए ज्यादा जगह बना नहीं पाया है और जनस्वीकार्यता के लिए थोड़ा-बहुत उदार, प्रगतिशील व समभावी दिखने की मजबूरियों से बार-बार दो-चार होता रहता है।

यह और बात है कि पुनरुत्थानवादी नजरिये से आज के सवालों के समाधान तलाशने की उसकी ‘परम्परा’ उसकी दिखावे की प्रगतिशीलता के आड़े आने से भी परहेज नहीं कर पाती, जिसके चलते वह जैसा है नहीं, वैसा दिखने की कोशिशों में गलतफहमियों के अलावा कुछ नहीं पैदा कर पाता।

निस्संदेह, गत रविवार को गाजियाबाद में अपने आनुषंगिक संगठन राष्ट्रीय मुस्लिम मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम में ’हिन्दुस्तानी प्रथम, हिन्दुस्तान प्रथम’ विषय पर उसके सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा यह कहना भी वह जैसा है नहीं, उसे वैसा दिखाने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है, वे किसी भी धर्म के क्यों न हों और उनके बीच पूजा पद्धति के आधार पर अंतर नहीं किया जा सकता, क्योंकि सिद्ध हो चुका है कि हम 40 हजार साल से एक ही पूर्वज के वंशज हैं। इतना ही नहीं, आगे उन्होंने यह भी कहा कि देश के मुसलमान भय के इस चक्र में न फंसें कि भारत में इस्लाम खतरे में है और समझें कि हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का एकमात्र समाधान ’संवाद’ है, न कि ’विसंवाद’।

उन्होंने मुसलमानों से यह भी समझने को कहा कि एकता के बिना देश का विकास संभव नहीं है और एकता का आधार राष्ट्रवाद व पूर्वजों का गौरव ही हो सकता है। साथ ही, गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग में शामिल लोगों को हिन्दुत्व के खिलाफ बताते हुए कहा कि यदि कोई कहता है कि किसी मुसलमान को यहां नहीं रहना चाहिए तो वह हिंदू नहीं हो सकता। ‘हम एक लोकतंत्र में हैं और यहां हिंदुओं या मुसलमानों का नहीं, केवल भारतीयों का वर्चस्व हो सकता है।’

जैसे ही उनके मुह से ये फूल झड़े, प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई। किसी को ‘कथनी मीठी खांड़ सी, करनी विष की लोय’ जैसी पंक्तियां आईं तो किसी को ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ और ‘नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ जैसी कहावतें। किसी को संघ का वह करिश्मा याद आया जिसके तहत उसने 1975 की इमर्जेंसी के वक्त उसका समर्थन किया और बाद में उसे देश के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला दिन बताने लगा। फिर किसी ने 2014 के बाद से चली आ रही अघोषित इमर्जेंसी की ओर से आंखें मूंदे रखने को भी उसके ऐसे ही चमत्कार से जोड़ डाला।

लेकिन इन सारी प्रतिक्रियाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि भागवत को पहले से अपने कथनों को अविश्वसनीय करार दिये जाने का अंदेशा था, इसलिए उन्होंने शुरु में ही सफाई देना जरूरी समझा कि वह न तो कोई छवि बनाने के लिए उक्त कार्यक्रम में शामिल हुए हैं, न वोट बैंक की राजनीति के लिए। हालांकि उनकी यह सफाई भी, जैसा कि पहले कह आये हैं, अपनी राजनीति को संस्कृति के आवरण में छुपाने की थोथी कोशिश ही थी-अपनी साम्प्रदायिकता को संस्कृति के खोल में छिपाने के उनके पुराने अभ्यास की तरह।

सच पूछिये तो उन्होंने अपने सम्बोधन में तुर्शी से परहेज रखने और चिकनी-चुपड़ी भाषा का इस्तेमाल करने के बावजूद कोई ऐसी बात कही भी नहीं, जिससे उनकी साम्प्रदायिक दुर्भावनाओं के दोहन की रीति-नीति में किसी बड़े परिवर्तन का संकेत मिलता हो। सारे भारतीयों का डीएनए एक होने की उनकी बात को उनके द्वारा बार-बार कही जाने वाली इस बात से जोड़कर देखें कि सारे देशवासी, उनका धर्म और संस्कृति कुछ भी हो, हिन्दू ही हैं, तो बात पूरी तरह साफ हो जाती है। इस बार उन्होंने डीएनए एक होने के आधार पर हिन्दू मुस्लिम एकता की कोशिशों को ही खारिज कर दिया है तो उनका यह ‘आप्त वाक्य’ कौन भुला सकता है कि भारत में सिर्फ एक चीज नहीं बदली जा सकती-वह यह कि भारत हिन्दू राष्ट्र है।

क्या इसके बाद भी उन्हें साफ करने की जरूरत है कि उनके हिन्दू राष्ट्र में, जिसका लोकतांत्रिक भारत से पुराना वैर है, दूसरे मतों, धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों का उनकी हिन्दू पहचान के साथ ही स्वागत होगा और इसकी कसौटियां भी उनके जैसे हिन्दू राष्ट्रवादी ही बनायेंगे? पूछा जा सकता है कि यह उनकी दरियादिली है या अन्य पहचानों को मिटाने व नकारने का नया राजनीतिक हथकंडा?

उनके सम्बोधन की टाइमिंग पर जायें तो 2014 के बाद की अघोषित इमर्जेंसी की तरह उनकी अघोषित राजनीति की पोल खुलते भी देर नहीं लगती। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां एक ओर भाजपा की सत्ता यहां दांव पर है तो दूसरी ओर मोदी व योगी के महानायकत्व का बेहद जतन से रचा गया तिलिस्म टूटने को है। अलग-अलग कारणों से किसान-मजदूर और नौजवान-बेरोजगार उनसे क्षुब्ध हैं तो राम मंदिर ट्रस्ट में भ्रष्टाचार की खबरों से उनका भरोसा भी डिग रहा है, जिन्हें भाजपा ने धार्मिक आस्था के नाम पर अरसे से अपने साथ जोड़ रखा है। जिन्होंने कोरोनाकाल में सरकारी कुप्रबंध के चलते अस्पतालों में बेड, दवा, इंजेक्शन व आक्सीजन वगैरह के अभाव में अपनों को खोया है, उनके रोष का तो पारावार ही नहीं है। ऐसे में भाजपा के पितृसंगठन के मुखिया के तौर पर मोहन भागवत को कुछ भली-भली बातें कहकर उसकी जमीन तैयार करनी ही है। कौन नहीं जानता कि सोशल इंजीनियरिंग साधने में संघ हमेशा भाजपा की मदद करता रहा है? उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा में मची खींचतान के बीच संघ की मंथन बैठकें और उसके पदाधिकारियों की आवाजाहियां भी उसकी राजनीति का ही प्रमाण देती है।

यह भी राजनीति ही है कि भागवत सारे भारतीयों का डीएनए एक बताते हुए मॉब लिंचिंग की निंदा करते हैं तो भी कई असुविधाजनक सवालों से कन्नी काट जाते हैं। इनमें सबसे बड़ा यही कि अगर यह लिंचिग हिन्दुत्व के खिलाफ है तो क्या वे उसमें लिप्त लोगों को सजा दिलाने के प्रयत्नों में भागीदार होने अथवा उनका वहिष्कार करने के लिए तैयार हैं? क्यों वे अभी भी यही कहते हें कि लिंचिंग की ज्यादातर घटनाएं फर्जी होती हैं? क्यों सारे के सारे लिंचिग करने वाले खुद को संघ और मोदी का समर्थक ही बताते हैं और अक्सर अल्पसंख्यकों व दलितों को ही शिकार बनाते हैं? क्यों हम नरेन्द्र मोदी सरकार के मंत्री तक को लिंचिंग के आजीवन कारावास की सजा पाये और जमानत पर छूटे आरोपियों को माला पहनाते देखने को अभिशप्त हैं? क्यों कई भाजपा नेता मुसलमानों के देश प्रेम पर शक करते हुए उनको पाकिस्तान जाने की बिना मांगी और अपमानित करने वाली सलाह देते रहते हैं? अगर हिंदू-मुसलमान एक हैं तो अयोध्या के बाद काशी-मथुरा, लवजिहाद और धर्मांतरण जैसे विवाद भला क्यों खड़े किये जा रहे हैं? और इन सबसे बड़ा सवाल यह कि बिना इन सवालों के जवाब मिले कैसे मान लें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मोहन भागवत को सद्बुद्धि आ गई है?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अयोध्या से प्रकाशित जनमोर्चा अख़बार के संपादक हैं।