सुख सामूहिकता में है जिसे धर्म और जाति विभेद नष्ट करता है!


अब तक हमने सुख हासिल करने के जो दो रास्ते खोजे, वो हमारी सामूहिकता को तोड़ते हैं। मसलन, धर्म को लीजिये, एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से नहीं जुड़ पाते, एक ही धर्म के भीतर एक स्कूल के लोग दूसरे स्कूल के लोगों से नहीं जुड़ते। इसी तरह जातीय विभाजन से कोई भी धर्म, समाज या देश बचा नहीं है। मूलतः ये जातीय नहीं बल्कि नस्लीय विभाजन है जो एक समूह के मानसिक रोग “श्रेष्ठता बोध” पर आधारित है।


सलमान अरशद सलमान अरशद
ओप-एड Published On :


हर इंसान आनंद, प्लेज़र या सुख चाहता है। पूरा जीवन इसी की तलाश में गुज़र जाता है। लेकिन ये तलाश दूर दूर तक पूरी होती नज़र नहीं आती। कमाल देखिये, सुख की अब तक की तलाश हमें दुख की ओर ले जाती रही है।

सुख के तलाश की मानुष्य की यात्रा को अगर ग़ौर से देखा जाए तो हमें मूलतः इस सफ़र की दो दिशाएं नज़र आती है। पहली जो जीवन को भौतिक रूप से समृद्ध करने पर बल देती है, दूसरी जो जीवन से पलायन कर मृत्योपरांत एक नए जीवन की बात करती है। इसे हम धर्म कहते हैं।

सुख के तलाश की ये दोनों धाराएं एक साथ चलती हुई नज़र आती हैं, लेकिन ये एक दूसरे पर हावी होती हुई भी नज़र आती हैं। एक धारा के मानने वाले दूसरी धारा के मानने वालों का क़त्ल भी करते हैं।

भौतिक सोच वाले धार्मिक सोच वालों को पिछड़ी सोच का मालिक समझते हैं तो धार्मिक सोच वाले भौतिक सोच वालों को नास्तिक, पापी। इन दोनों ही तरह के विचारों से सुख का सृजन तो नहीं हुआ लेकिन एक दूसरे की जान लेने, उन्हें नीचा दिखाने, उन्हें नुकसान पहुंचाने के उदाहरण सदियों से मिलते आ रहे हैं।

हलांकि धर्म आधारित सियासत अभी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है लेकिन पिछली कुछ सदियां धर्म और धर्म से उपजी हिंसा का गवाह रही हैं।

धर्म से सुख पाने की लालसा ही आधारहीन है क्योंकि ये जिस सुख की बात करती है उसे पाने के लिए मरना ज़रूरी है। बावजूद इसके धर्म की कोख से नैतिकता की जो अवधारणा निकली वो कल तो प्रासंगिक थी ही आज भी है और कल भी रहेगी। लेकिन यहीं फिर एक और बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि क्या नैतिक होने के लिए धार्मिक होना ज़रूरी है? इसका ज़वाब फिर से एक बहस खड़ी करता है, फिलहाल इसे यहीं छोड़ते हैं।

सुख के तलाश की भौतिक धारा ने जीवन को बहुत समृद्ध किया। आज हमारे पास, आसपास, दूर दराज़ जितनी भी सुविधाएं हैं, भविष्य में होंगी, सब इस धारा की सोच का नतीजा है। हमने मौसम की मार से खुद को बचाना सीखा। इसके लिए कपड़े, घर, गाडियाँ और भी बहुत से संसाधन बनाये। लेकिन फिर से वही मूल सवाल, क्या सुख की तलाश मुकम्मल हुई या किसी हद तक पूरी हुई ?

हमने भरपूर अनाज़ पैदा किये फिर भी लोग भूख से मर रहे हैं, हमने शिक्षा के बिल्कुल नए निजाम को पैदा किया लेकिन इस तक सबकी रसाई नहीं हैं। हमने अनेक भौतिक संसाधन विकसित किये लेकिन मुट्ठी भर लोग ही इसका उपभोग कर पा रहे हैं। हमने दवाइयाँ, अस्पताल और डॉक्टर्स पैदा किये लेकिन मामूली बीमारियों से लोगों की मौत हो रही है।

तो गड़बड़ कहाँ हैं ?

एक सवाल अपने आप से पूछिए कि आप कब और क्यों आनंदित हुए थे ?

जब ये सवाल में खुद से पूछता हूँ तो मुझे दो ज़वाब मिलते हैं। पहला जब हमने कुछ सृजित किया और इसे लोगों के साथ शेयर किया, दूसरा, जब हम अपने दोस्तों मित्रों, परिवार के सदस्यों के साथ थे और सामुहिक रूप से कुछ कर रहे थे, मसलन कोई काम, गाना बजाना, या बस प्रेम से एक साथ बैठने पर भी।

दोनों ही ज़वाबों का विश्लेषण किया जाए तो समझ में आता है कि हमारा सुख सामूहिक सृजन और सामूहिक उपभोग में निहित है।

अब तक हमने सुख हासिल करने के जो दो रास्ते खोजे, वो हमारी सामूहिकता को तोड़ते हैं। मसलन, धर्म को लीजिये, एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से नहीं जुड़ पाते, एक ही धर्म के भीतर एक स्कूल के लोग दूसरे स्कूल के लोगों से नहीं जुड़ते। इसी तरह जातीय विभाजन से कोई भी धर्म, समाज या देश बचा नहीं है। मूलतः ये जातीय नहीं बल्कि नस्लीय विभाजन है जो एक समूह के मानसिक रोग “श्रेष्ठता बोध” पर आधारित है। इस बीमारी को समझने के लिए स्टालिन की डॉक्यूमेंट्री ‘अनटचेबलिटी’  को देखना चाहिए, यूट्यूब पर मिल जाएगी।

दूसरी धारा पूँजीवाद की धारा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस व्यवस्था ने धरती को पूरी तरह बदल दिया, पिछले सिर्फ 100 साल के विकास को अगर देखें तो ये विकास की सदियों की यात्रा से भी शायद ज़्यादा है। लेकिन क्या सच में इससे हम समृद्ध हुए?

दवा जिसे मनुष्य के लिए वरदान साबित होना चाहिए था, वो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उद्योग बन गया है। मुनाफ़े का ज़रिया बन जाने के कारण आप वो दवाइयाँ भी खाते हैं जिसकी आपको ज़रूरत नहीं हैं, अस्पताल में आप वो दवाई भी खरीदते हैं जो आपके इस्तेमाल के बिना ही वापस स्टोर में चली जातीं हैं और वो भी जो भविष्य में आपको बीमार कर फिर से आपको अस्पताल बुलाने के लिए दी जाती हैं। ऐसा होने में दवा का कोई कुसूर नहीं हैं, बल्कि हर वो चीज़ जो मुनाफ़ा हासिल करने का ज़रिया बनेगी उसके साथ यही होगा। शिक्षा, सुरक्षा, रोज़गार सबके साथ यही हुआ है। हथियार की ज़रूरत इस धरती को नहीं है लेकिन हथियार बनाना और बेचना सबसे बड़ा उद्योग बन चुका है।

पूँजीवादी व्यवस्था ने मनुष्य के सामूहिकता की स्वाभाविक भावना को छिन्न भिन्न कर दिया है। परिवार टूट चुके हैं, गाँव से लेकर शहर तक सामूहिकता खत्म हो चुकी है, यहां तक कि पति पत्नी भी एक साथ रह पाएंगे, इस पर भी बड़ा सवाल है।

उदासी, अवसाद, तनाव, उच्चरक्तचाप, अनिद्रा, चिढ़चिढ़ापन, शुगर आदि बीमारियां पूँजीवादी विकास की बाई प्रोडक्ट हैं।

हमने देखा कि हमारा सुख सामूहिक सृजन और सृजित वस्तुओं के सामूहिक उपभोग में हैं, लेकिन अब तक सुखी जीवन के लिए हमारी जो यात्रा रही है, धार्मिक या भौतिक, वो हमें इससे दूर ले जाती है। ऐसे में ये बड़ा सवाल है कि क्या अब तक सभ्यता के विकास की हमारी जो यात्रा रही है, क्या वो व्यर्थ गई ? मेरे हिसाब से इसका जवाब है नहीं, मनुष्य ने अपनी विकास यात्रा में ईश्वर, उसके उपदेश, दोनों पर आधारित धर्म, धर्म पर आधारित नैतिकता और इनके ज़रिये एक बेहतर समाज को सृजित तो किया ही है। लेकिन इस यात्रा में मनुष्य अपनी सामूहिकता को धीरे धीरे खोता चला गया है।

पूँजीवाद धर्म और जाति और इसी तरह के दूसरे विभाजनकारी चीजों को आज टूल की तरह इस्तेमाल कर रहा है, लिहाज़ा हमें दोनों को छोड़ने की ज़रूरत है। अब एक ऐसे निजाम को बनाये जाने की ज़रूरत है जिसमें मनुष्य की सम्पूर्ण सर्जना का सामूहिक रूप से मनुष्य के ही व्यापक हितों में इस्तेमाल हो सके। यही नहीं अब तक मनुष्य ने जो भी सृजित किया है या भविष्य में करेगा, उस पर मानव समाज का सामूहिक अधिकार हो। इस प्रकार हम समूहिक उत्पादन के सामूहिक उपभोग को सुनिश्चित कर पाएंगे।

 

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।