सरलता से समझें – क्या है पूजा स्थल का वो क़ानून, जो लगातार चर्चा में है?

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
ओप-एड Published On :


पिछले कुछ दिनों से देश में फिर से एक धर्मस्थल के बहाने विवाद पैदा कर के, सांप्रदायिकता की राजनैतिक खेती की तैयारी हो गई है। एक ऐसे वक़्त में जब लोग महंगाई, बेरोज़गारी और क्लाइमेट चेंज से बढ़ी गर्मी की मार झेल रहे हैं, काशी में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर हिंदू-मुस्लिम के बीच नफ़रत की एक और खाई खोदने और उस पर सिंहासन टिकाने का काम चल रहा है। टीवी पर ज्ञानवापी ही व्यापी है, महंगाई से लेकर सारे ज़रूरी मुद्दे हवा हैं…

इस बीच लगातार एक क़ानून या एक्ट का ज़िक्र हो रहा है, जिसे आम भाषा में पूजा स्थल एक्ट 1991 बताया जा रहा है। इस एक्ट का हवाला देने पर, उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक अल्पसंख्यक नेता के ख़िलाफ़ केवल भाजपा-आरएसएस ही नहीं, गोदी मीडिया के एंकरों ने भी मोर्चा खोल दिया। हालांकि वो बिल्कुल सही परिप्रेक्ष्य में ही इस एक्ट का हवाला दे रहे थे। इस एक्ट को समझने के लिए, ये भी समझना ज़रूरी है कि ये कब आया, क्यों आया और फिर ये समझना कि सरल भाषा में दरअसल इसका अर्थ क्या है।

कब और क्यों आया – उपासना स्थल (विशेष उपबंध) एक्ट

तो जैसा कि इस हेडिंग में लिखा है कि इसका पूरा क़ानूनी नाम है – उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991। ये 1991 में लाया गया 42वां एक्ट था और इसके पीछे का कारण दरअसल वही था, जहां हम आज खड़े हैं। 1989 में लाल कृष्ण आडवाणी एक धार्मिक रथ में सवार हुए, जिसकी मंज़िल राजनैतिक थी। 1984 में केवल 2 लोकसभा सीटें पाने वाली, भारतीय जनता पार्टी को इसका फ़ायदा भी मिला। 1989 के चुनावों में, उसे 85 लोकसभा सीटें मिली और वो सत्ता में अहम गठबंधन दल बनी। इसके बाद 1990 में रथयात्रा और फिर अयोध्या में कारसेवकों के हुजूम के इकट्ठा होने के बाद गोलियां चलने से देश का माहौल बिगड़ने लगा था। इस बीच वीपी सिंह की सरकार इसी रथयात्रा को रोकने और आडवाणी की गिरफ्तारी के कारण आकर, जा भी चुकी थी। 1991 में कांग्रेस की पीवी नरसिम्हाराव सरकार इसी माहौल को देखते हुए, बेहद दूरदर्शिता के साथ – ये एक्ट लाया गया कि भविष्य में किसी और धार्मिक स्थल को लेकर ऐसे तनाव और देश की एकता को ख़तरा पहुंचाने वाला माहौल न बनाया जा सके।

5 अगस्त, 1991 को राज्यसभा और फिर 6 अगस्त, 1991 को लोकसभा में ये पास हुआ और 9 अगस्त, 1991 को इस पर राष्ट्रपति ने भी अपने हस्ताक्षर कर दिए। इस तरह से ये एक क़ानून बन गया। इसका नाम था THE PLACES OF WORSHIP (SPECIAL PROVISIONS) ACT, 1991 यानी कि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991।

क्या कहता है ये अधिनियम?

हालांकि ये एक्ट भी वैसी ही तकनीकी क़ानूनी भाषा में लिखा गया है, जिस तरह से तमाम और क़ानून लिखे जाते हैं। लेकिन हम कोशिश कर रहे हैं कि इसको सबसे सरल शब्दों में आपके सामने रख सकें। इसका परिचय या कहें कि इसको परिभाषित करते हुए, एक्ट की शुरुआत में लिखा गया गया है;

‘किसी उपासना स्थल का संपिर्वतन प्रतिषिद्ध करने के लिए और 15 अगस्त, 1947 को यथाविद्यमान किसी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरूप को बनाए रखने तथा उससे संसक्त या उसके आनुषांगिक विषयों का उपबंध करने के लिए अधिनियम’

इसका अर्थ है कि ये एक्ट, किसी भी धर्म के पूजास्थलों के 15 अगस्त, 1947 को मौजूदा रूप की स्थिति में किसी भी प्रकार के परिवर्तन को रोकने-प्रतिबंधित करने और उसके अपवादों को तय करने के लिए बनाया गया था।

और सरल भाषा में समझें तो कुछ अपवादों को छोड़कर, ये क़ानून कहता है कि भारत में 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थान जिस स्वरूप-जिस स्थिति में था, वह उसी स्वरूप-उसी स्थिति में रहेगा, उसकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है।

धार्मिक उपासना स्थल एक्ट 1991 - पूरा एक्ट हिंदी में पढ़ें

 

जम्मू-कश्मीर था अपवाद

इस क़ानून में ये भी साफ लिखा है कि जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, ये पूरे देश में समान रूप से लागू होगा। इस अपवाद का कारण, धारा 370 के तहत जम्मू और कश्मीर को मिला विशेष दर्जा था। लेकिन बाकी पूरे देश में ये 11 अगस्त, 1991 से लागू है।

क्या है संपरिवर्तन?

ये क़ानून ‘संपरिवर्तन’ शब्द को भी परिभाषित करते हुए कहता है कि इसका अर्थ किसी भी तरह का परिवर्तन या तब्दीली है, जिसमें इस शब्द के सारे व्याकरणिक रूप शामिल हैं। यानी कि किसी भी बहाने से किसी तरह के परिवर्तन को निषिद्ध कर दिया है।

ये क़ानून, किसी भी धर्म के उपासना स्थल पर एकसमान लागू है

इसके साथ ही, इसमें धार्मिक स्थल को परिभाषित करते हुए, साफ लिखा गया है – “उपासना स्थल” से कोई मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर, मठ या किसी धार्मिक संप्रदाय या उसके अनुभाग का, चाहें वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, लोक धार्मिक उपासना का कोई अन्य स्थल अभिप्रेत है। यानी कि किसी भी धर्म के, किसी भी धर्म की किसी भी शाखा के या विचार या पंथ के, किसी भी तरह के धार्मिक स्थल पर ये लागू होगा।

इसका उपबंध 3 साफ कहता है, “कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग के किसी उपासना स्थल का उसी धार्मिक संप्रदाय के भिन्न अनुभाग के या किसी भिन्न धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग के उपासना स्थल में संपरिवर्तन नहीं करेगा।

THE PLACES OF WORSHIP (SPECIAL PROVISIONS) ACT, 1991 पूरा एक्ट अंग्रेज़ी में पढ़ें

 

न्यायिक विवादों के लिए क्या कहता है क़ानून?

ये क़ानून इसीलिए, इस समय चर्चा में है क्योंकि ये ऐसे विवादों के अदालती निपटारे को भी साफ खारिज करता है। ये क़ानून उपधारा 4(1) में स्पष्ट कहता है कि किसी भी धार्मिक उपासना स्थल की अंतिम स्थिति वो ही मानी जाएगी, जो कि 15 अगस्त, 1947 को अंतिम स्थिति थी।

इस बारे में किसी तरह का भ्रम न हो, इसलिए उपधारा 4(2) में ये एक्ट कहता है कि किसी भी अदालत में अगर 15 अगस्त, 1947 की इस स्थिति में परिवर्तन को को लेकर, कोई मामला किसी अदालत में लंबित है, तो इस एक्ट के आने के बाद तत्काल प्रभाव से वे मामले खारिज हो जाएंगे। 

लेकिन साथ ही ये क़ानून ये भी कहता है कि अगर 15 अगस्त, 1947 के बाद किसी प्रकार का परिवर्तन उस स्थिति में हुआ है और उसको लेकर, किसी तरह का विवाद न्यायलय में लंबित है, तो वह जारी रहेगा।

साथ ही ये क़ानून, कुछ अपवादों में छूट देता है। वे अपवाद हैं;

  1. ऐसा कोई मामला, जो प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 (1958 के 24) या ऐसे ही किसी क़ानून के तहत आते हैं। यानी कि पुरातात्विक धरोहर माने जाने वाले, प्राचीन ऐतेहासिक महत्व के धार्मिक स्थल या उपासना स्थल, जो कि एएसआई (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) से जुड़े क़ानूनों के अंतर्गत आते हैं – वे इस क़ानून के तहत नहीं आएंगे। वहां संपरिवर्तन, आवश्यकतानुसार किया जा सकता है और इसका फ़ैसला एएसआई ही कर सकती है।
  2. ऐसे धार्मिक उपासना स्थल, जिनके बारे में जारी विवाद का निपटारा, इस एक्ट के लागू होने के पहले ही, अदालतों द्वारा किया जा चुका है। 
  3. ऐसे विवाद, जहां दोनों ओर के पक्षकार, इस क़ानून के लागू होने के पहले ही आपसी समझौता या निपटारा कर चुके हों।
  4. ऐसा कोई संपरिवर्तन, जो कि इस क़ानून के आने के पहले, उपमति द्वारा किया जा चुका है। 
  5. ऐसा कोई विवाद, जो कि क़ानून या किसी एक्ट की सीमा में नहीं आता है और जो न्यायाधिकरण के अधीन नहीं है। 

अयोध्या का बाबरी मस्जिद परिसर भी माना गया अपवाद

इस एक्ट के तहत गिनाए गए 5 अपवादों के अलावा अयोध्या के बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि परिसर पर भी इस एक्ट को लागू नहीं माना गया। इसके बारे में एक्ट कहता है, “इस अधिनियम की कोई बात उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या में स्थित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के रूप में सामान्यतया ज्ञात स्थान या उपासना स्थल को और उक्त स्थान या उपासना स्थल से संबंधित किसी वाद, अपील या अन्य कायर्वाही को लागू नहीं होगी।”

इसका कारण ये बताया गया कि क्योंकि ये विवाद, 15 अगस्त, 1947 के पहले से ही अदालत में लंबित था – इसलिए ऐसा किया गया। लेकिन तमाम राजनैतिक विश्लेषक ये भी मानते रहे कि कांग्रेस की तत्कालीन सरकार भी अयोध्या के मामले में इस तरह से दखल नहीं देना चाहती थी कि उसको हिंदू वोटों का नुकसान हो या उसकी छवि हिंदू-विरोधी बने। हालांकि ये एक्ट बनाते समय, ये भी साफ था कि सरकार नहीं चाहती थी कि भविष्य में इस तरह से ही और धार्मिक उपासना स्थलों को बहाना बनाकर, देश का माहौल बिगाड़ा जा सके।

ये एक्ट होने के बाद भी अदालती विवाद कैसे?

ये एक सवाल, लगातार उठ रहा है कि आख़िर 1991 के इस एक्ट के बावजूद, लगातार अदालतें धार्मिक स्थलों के विवादों से जुड़े मामले कैसे स्वीकार कर रही हैं, जबकि ऐसे मामलों को स्वीकार करने को लेकर, इस क़ानून के तहत रोक है। ऐसे में हमको ज़रूरत है कि हम तमाम उन मामलों की अपीलों को पढ़ें, जो कि न्यायालयों में स्वीकार की गई हैं। इनमें से अधिकतर में बेहद चालाकी से, संपरिवर्तन की मांग उठाई ही नहीं गई है। इसलिए कई बार याचिकाकर्ता क़ानूनी तौर पर इस क़ानून की ज़द से बच रहा है। मिसाल के तौर पर ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में श्रृंगार गौरी की पूजा की अनुमति के बहाने ये विवाद खड़ा हुआ है और ऐसे ही मथुरा में किसी और तरीके से।

अदालतों की भूमिका पर भी सवाल तो उठ ही रहे हैं लेकिन ये समझना भी अहम है कि कोई याचिका कैसे लिखी गई है और उसमें अदालत से क्या अनुरोध किया गया है – वो अगर धार्मिक उपासना स्थल एक्ट, 1991 के तहत नहीं आता है, तो वह याचिका स्वीकार करना, न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता है। साथ ही, वह याचिका, इस एक्ट के तहत तुरंत खारिज नहीं की जा सकती है। इसी का फ़ायदा उठा कर, लगातार देश में एक के बाद एक, नया धार्मिक तनाव पैदा करने के लिए अदालती मुकदमों तक का सहारा लिया जा रहा है। कुछ हद तक ये गेंद अदालतों के पाले में भी है कि क्या वे अपने परिसरों को सांप्रदायिक उन्माद, तनाव फैलानों वालों को इस्तेमाल करने देंगी या नहीं…

(लेखक मयंक, मीडिया विजिल के एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं।)