दीनदयाल के लिए राष्‍ट्र की पहचान से लेकर स्‍वतंत्रता तक सब कुछ का मतलब एक था- गाय!

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प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्‍म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय पर बहुत अध्‍ययन कर के एक पुस्‍तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्‍तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। लेखक की सहर्ष सहमति से मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इस पुस्‍तक के अध्‍यायों की एक श्रृंखला चला रहा है। इस कड़ी में प्रस्‍तुत है पुस्‍तक की नौवीं किस्‍त। (संपादक)


अध्‍याय 9
डॉ. मुखर्जी के बाद जनसंघ की यात्रा: स्वयंसेवकों के ‘‘स्वैच्छिक सहयोग’’ का सिलसिला 

 

दिल्ली के मौलीचन्द्र शर्मा, नए बने संगठन ‘भारतीय जनसंघ’ के दो महासचिवों में से एक थे – दूसरे व्यक्ति थे भाई महावीर। मुखर्जी की मौत के बाद उन्हें ही जनसंघ के अध्यक्ष पद का कार्यभार सौंपा गया। एक सनातनी संस्‍कृत विद्वान पंडित दीनदयाल शर्मा के बेटे मौलीचन्द्र शर्मा बीस के दशक में हिन्‍दू महासभा से जुड़े थे और जनसंघ से जुड़ने के पहले ही अपने आप में एक कद्दावर राजनीतिज्ञ थे। मुखर्जी ने जब भारतीय जनसंघ का आगाज़ किया तब उन्होंने जनसंघ की पंजाब-दिल्ली शाखा के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभायी थी।

आज़ादी के दिनों में वह भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस से भी सम्बद्ध रहे थे। राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दिल्ली इकाई के साथ भी उनके गहरे ताल्लुकात थे और जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर पाबन्दी लगी, तो इस पाबन्दी को हटाने के लिए उन्होंने ‘‘जनाधिकार समिति’’ नाम से नागरिक अधिकार समूह की भी स्थापना की थी। उन्हें अपनी सक्रियताओं के लिए पब्लिक सेफटी एक्ट के तहत गिरफतार किया गया था। .( Choudhary, Valimi, ed. (1988). Dr. Rajendra Prasad: Correspondence and Select Documents, Volume 10. Delhi: Allied Publishers. pp. 150–151) बाद में उन्होंने गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल और संघ सुप्रीमो गोलवलकर के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभायी ताकि संघ का अपना संविधान बनाने पर सहमति हो सके। (Page 11, Andersen, Walter K.; Damle, Shridhar D. (1987) The Brotherhood in Saffron: The Rashtriya Swayamsevak Sangh and Hindu Revivalism. Delhi: Vistaar Publications)

इस हक़ीकत के प्रति अनभिज्ञ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनसंघ के कामकाज को नियंत्रित करता है, उन्हें अपने पद से बाद में इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि पार्टी बनाने की उनकी स्वतंत्र पहलकदमियां अग्रणी सदस्यों को रास नहीं आयीं – जिनका बहुलांश संघ की शाखाओं से निकला था। बलराज मधोक, जो जनसंघ की कार्यकारी कमेटी के संघ समूह/फैक्शन के सदस्य थे, उन्होंने संघ की पत्रिका आर्गनायजर में बाकायदा चेतावनी दी थी कि भारतीय जनसंघ का जो भी अगला अध्यक्ष बनेगा उसे पार्टी के संघ स्वयंसेवकों से ‘‘स्वैच्छिक सहयोग’’   हासिल करना होगा।  (Page 11, Andersen, Walter K.; Damle, Shridhar D. (1987) The Brotherhood in Saffron: The Rashtriya Swayamsevak Sangh and Hindu Revivalism. Delhi: Vistaar Publications) रेखांकित करनेवाली बात है कि पार्टी की  सेन्‍ट्रल जनरल कौन्सिल के इंदौर में आयोजित सत्र में अपने अध्‍यक्षीय भाषण में शर्मा ने पार्टी संविधान में लिखित सिद्धांतों पर- धर्मनिरपेक्ष राष्टवाद और जनतंत्र पर ”अटूट आस्था’’ पर जोर दिया था।

एक क्षेपक के तौर पर यहां नोट किया जा सकता है कि बकौल ए.जी. नूरानी, बाद के दिनों में भी, जनसंघ और उसकी वारिस भारतीय जनता पार्टी ने दो अन्य चुने हुए अध्यक्षों को – 1973 में बलराज मधोक को और 2005 में लालक्रष्ण आडवाणी को – संघ के कहने पर अपने पद से चलता किया। ( A. G. Noorani (3 December 2005). “The BJP: A crisis of identity”. Frontline. Retrieved 2014-11-06.)

मौलीचन्द्र शर्मा की बिदाई के बाद हम पार्टी के अन्दर के सत्ता सम्बन्धों में ध्यान में आनेलायक बदलाव को देखते हैं। पार्टी के महासचिव का पद अध्यक्ष पद से अधिक महत्वपूर्ण हो गया और महासचिव होने के नाते दीनदयाल उपाध्याय संगठन के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बने – जिनसे न केवल यह अपेक्षा की जाती थी कि वह नीति को विकसित करेंगे बल्कि संगठन निर्माण को भी आगे बढ़ाएंगे। संघ के कार्यकर्ताओं का नेटवर्क अब पार्टी में पूरी तरह जड़मूल था और आपसी सन्देश और निर्देश अब बिना किसी रूकावट के पूरावक्ती सांगठनिक सचिवों के मार्फत मिलते थे, जो उसी आत्मानुशासन के साथ काम करते थे जिस तरह संघ में सक्रिय पूरावक्ती कार्यकर्ता करते थे।

जहां तक जनसंघ के गठन और विकास का सवाल है, विश्लेषकों का मानना है कि दीनदयाल उपाध्याय ‘‘एक अचूक और सक्षम प्रशासक साबित हुए’’ जिन्होंने ‘‘नीति और पार्टी सिद्धांत की चर्चा में अधिकाधिक रूचि दिखायी और जिन्होंने इस दौरान भारत में बड़े पैमाने पर भ्रमण किया।’’ और वही कुल मिला कर पार्टी के प्रधान प्रवक्ता बने, यह एक ऐसी भूमिका थी जो इसके पहले मुखर्जी और बाद में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर मौलीचन्द्र शर्मा निभाते रहे। उनकी सहायता के लिए उन्हें दो सहायक सचिव दिए गए: पार्टी की उत्तर की इकाइयों के लिए और दक्षिण की इकाइयों के लिए जगन्नाथराव जोशी। जनसंघ की अहम नीतियां उनकी अगुआई में ही आकार ग्रहण कीं। गोहत्या पर पाबन्दी की मांग हमेशा पार्टी घोषणापत्र का हिस्सा रही, जिसका मतलब था कि वह आर्थिक और धार्मिक हितों की पूर्ति करेगी। मिसाल के तौर पर 1954 के घोषणापत्र में कहा गया है:

गाय हमारे सम्मान का बिन्दु है और हमारी संस्‍कृति का अमर प्रतीक। प्राचीन समयों से उसकी रक्षा की जा रही है और उसे पूजा जा रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था भी गाय पर आधारित है। गोरक्षा, इस वजह से, महज हमारा पवित्र कर्तव्य नहीं है बल्कि एक अनिवार्य जरूरत भी है। मवेशियों की रक्षा करना और उनमें सुधार करना तब तक सम्भव नहीं है जब तक उनका कत्ल जारी रहे। मवेशियों की तेजी से घटती संख्या तभी रोकी जा सकती है जब तक उनके कत्ल को पूरी तरह से न रोका जाए। जनसंघ गोहत्या पर पूरी तरह से पाबन्दी लगा देगा और जनता तथा प्रशासन के सहयोग से उसकी गुणवत्ता को सुधार देगा।

(1954 Manifesto, BJS Documents, I, p. 68. See also Bharatiya Jana Sangh, Manifesto (1951), p. 5; 1958 Manifesto, BJS Documents, I, p. 119; Bharatiya Jana Sangh, Election Manifesto 1957, pp. 21-2; Election Manifesto 1962, pp. 16-17; Principles and Policy [New Delhi, 1965], p. 35 Page 149)

खुद दीनदयाल उपाध्याय ने ‘आर्गनायजर’ में लिखे अपने लेख में गोहत्या पर पाबन्दी की मांग करते हुए लिखा था कि ‘गाय राष्‍ट्र की पहचान है’:

गोहत्या निरोधी समिति / वह साझा मोर्चा जो विभिन्न धार्मिक एवं हिन्दूवादी संगठनों ने बनाया था – लेखक/ हमेशा यह मानती रही है कि गाय का मुद्दा हमारे लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि भारतीयों के लिए मौलिक अधिकार का। इस मौलिक अधिकार की स्वीकृति या अस्वीकृति ही भारतीय स्वतंत्रता की प्रकृति को नियत करेगी। वे जो यह मानते हैं कि स्वराज का आशय केवल शासन के हस्तांतरण से है, तो वे स्वराज और परराज के बीच अंतर और असंतुलन को समझने में विफल हैं। हमारे लिए स्वराज्य की संकल्पना हमारे मूल्यों का पुनर्जन्म और सम्मान के प्रतीकों का अभ्युदय है। और गाय हमारे सम्मान के सभी प्रतीकों का केन्द्र है। इसलिए जब भी विेदेशी आक्रांताओं ने हमारे देश पर आक्रमण किया, सबसे पहले उन्होंने गायों पर विशेषकर प्रहार किया। स्वतंत्रता की हमारी चाहत हमेशा से गायों के संरक्षण के साथ जुड़ी रही है।‘....

गोसंरक्षण का यह हमारा नारा न सिर्फ लंबे समय से दमित हमारी इच्छाओं की पूर्ति में सहयोग करेगा बल्कि संपूर्ण राष्‍ट्र जीवन में स्वयं चेतना की तरंगें भी भरेगा। यह मौजूदा सरकार के स्वरूप का भी कायापलट कर देगा। आज जो यह सरकार राष्‍ट्रीय सम्मान के सूचकों को संशय की भावना से देखती है, कल वही सरकार गो संरक्षण और गो विकास में गर्व की अनुभूति करेगी। तभी सरकार निरंतर प्रयास के जरिये प्रगति के रास्ते पर ठीक से चल पाएगी और राष्‍ट्र को महान बना पाएगी।

/ गायों के लिए संघर्ष आज़ादी और लोकतंत्र का संघर्ष है’ आर्गनायजर, दिसम्बर 15, 1958, अंग्रेजी से अनूदित, दीनदयाल समग्र रचनावली, पेज 159-161, प्रभात प्रकाशन से साभार/

याद रहे, गोहत्या पर पाबन्दी लगाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए समानधर्मा संगठनों के साथ जिस साझे मोर्चे का गठन हुआ था, उसके द्वारा प्रेरित आन्दोलन के दौरान संसद के सामने जबरदस्त हिंसा हुई थी जिसके लिए भारतीय जनसंघ की भूमिका की भी पड़ताल हुई थी।


(जारी)

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