बचपन में एक पादरी की ‘साज़िश’ का शिकार हुए पत्रकार अजित साही ! आज तक बेचैन हैं !

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पंकज श्रीवास्तव

क्या आप जानते हैं कि मशहूर पत्रकार अजित साही की ज़िदगी एक ईसाई पादरी की ‘साज़िश’ का शिकार हुई है। ऐसी साज़िश जिसने अजित साही को आज तक बेचैन कर रखा है। मैं आपको पूरा क़िस्सा सुनाऊँ, इसके पहले थोड़ा अजित साही के बारे में जान लें।

अजित साही से पहली मुलाक़ात 2003 के किसी महीने में हुई थी। मैं स्टार न्यूज़ में बतौर वरिष्ठ संवाददाता नियुक्त हुआ था और दिल्ली में ट्रेनिंग के बाद मुंबई दफ़्तर बुलाया गया था। वहीं अलमस्त मिज़ाज अजित साही से मुलाकात हुई थी जिन्होंने बतौर सीनियर प्रोड्यूसर, स्टार न्यूज़ ज्वाइन किया था।

स्टार न्यूज़ में अजित साही का सीनियर प्रोड्यूसर बनना उन दिनों चर्चा में था। आमतौर पर बड़े पदों पर काम करने के बाद पत्रकार निचले पद पर जाना पसंद नहीं करते। अजित साही भारत में न्यूज़ टेलीविज़न के शुरुआती दिग्गजों में थे। 1995 के आसपास वह बीआईटीवी की कमान संभाल रहे थे। इंडिया टुडे में छपा था कि अजित साही देश में सबसे ज़्यादा वेतन पाने वाले पत्रकार हैं। ज़ाहिर है, अजित साही शुरू से अर्श पर थे जिनसे इंडस्ट्री में और ऊँचा…और ऊँचा..और ऊँचा जाने उम्मीद की जाती थी। लेकिन वे एग्ज़ीक्यूटिव प्रोड्यूसर रहने के क़रीब आठ साल बाद सीनियर प्रोड्यूसर थे और मज़े में थे।

दरअसल, इलाहाबादी अजित साही किसी और मिट्टी के बने हैं। पद पैसे की परवाह किए बिना नौकरियाँ छोड़ना, पकड़ना, फिर छोड़ना, फिर पकड़ना उनकी ज़िंदगी का हिस्सा रहा। निजी रूप से उनसे कोई वास्ता नहीं रहा। बस इतना सुना था कि वे हिंदी के नामी आलोचक रहे स्वर्गीय विजयदेव नारायण साही के भतीजे हैं। तस्दीक करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। उनकी साहित्यिक-सामाजिक रुचियों को देखत हुए ऐसी ही किसी परंपरा से उनके जुड़ाव की बात स्वाभाविक लगती थी। कभी-कभार उनसे फोन पर बात हुई और वे हमेशा एक बेचैन आत्मा ही लगे।

आख़िर ऐसा कहाँ होता है कि टीवी इंडस्ट्री के शीशमहलों की किसी ऊँची कुर्सी पर पहुँचने के बाद कोई पत्रकार ‘सिमी’ के नाम पर चल रहे देशव्यापी फ़र्ज़ीवाड़े की पोल खोलने निकल पड़े। टीवी, अख़बार, पत्रिका, जहाँ भी रहे इंसाफ़ की मुहिम चलाए और देश और समाज को तोड़ने वालों के चेहरे बेनक़ाब करे। जेल में बंद बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की कहानियों को सामने लाने के लिए पूरी ताक़त लगा दे और दूर-दराज़ होने वाली जनसुनवाइयों का हिस्सा बने। वह भी ख़ुद को एक्टिविस्ट नहीं जर्नलिस्ट मानते हुए जिसका काम सच को सामने लाना है।

हाँलाकि जर्नलिस्ट भी इंसान ही होता है। सर्वेश्वर का यह सवाल उसे भी परेशान कर सकता है-

अगर तुम्हारे घर के एक कमरे में

लाश पड़ी हो

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में गाना गा सकते हो…?

ज़ाहिर है, अजित साही गाना नहीं गा सकते थे। यही वजह है कि उनके तमाम समकालीनों या जूनियर पत्रकारों ने जब निजी लाभ के लिए अपनी रीढ़ की हड्डी निकलवाकर फेंक दी है, अजित उसके होने की मुनादी करते हैं। 8 जुलाई को उन्होंने फ़ेसबुक पर एक तस्वीर लगाई। वे अब्दुल वाहिद शेख के साथ ट्रेन से जलगाँव जा रहे थे। अब्दुल नौ साल जेल में रहे बेगुनाह। अब यह कहानी क़िताब बन गई है। अजित ऐसे तमाम बेगुनाहों के लिए सगे भाई से ज़्यादा महत्व रखते हैं।

तो फिर मैं ‘साज़िश’ क्यों कह रहा हूँ। ज़ाहिर है यह चौंकाने वाली हेडिंग सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि आज के दौर में इंसाफ़ और सच्चाई के साथ खड़े होने को ‘सहज’ नहीं माना जाता। ऐसे आदमी को अव्यावहारिक माना जाता है..केमिकल लोचा वाला। सामान्य है – ‘दंगाई’ होना।

मैं कभी-कभी सोचता था कि अजित साही जैसे हैं, वैसे क्यों हैं। कुछ दिन पहले इसकी वजह पता चल ही गई। अजित साही ने फ़ेसबुक पर अपने और फ़ादर डिसूजा के क़िस्से का बयान किया तो समझ में आया कि ‘बिगाड़ की आशंका के बावजूद ईमान की बात कहते रहने का मंत्र’ उन्हें किसने दिया। हिंदूराष्ट्र की पिनक में रहने वालों को यह मर्मस्पर्शी कहानी ज़रूर पढ़नी चाहिए ताकि वे जान सकें कि उनकी नज़र में ‘ईसाई कुचक्र’ के प्रतीक चर्च के फ़ादर क्या-क्या करते हैं…बचपन में डाले गए प्रेम और करुणा का बीज जब फलता है तो क्या असर होता है.. और भारत के भारत होने का मतलब क्या है !

आप भी पढ़िए यह कहानी..अजित साही की ज़बानी—

 

 

त्वमेव माता च पिता त्वमेव 

 

बचपन से सुन रहे हैं कि पादरी लोग बहला-फुसला कर हम हिंदुओं को ईसाई बना देते हैं इसलिए उनसे बच कर रहना चाहिए.

सन १९७२ में जब मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले में तबादला होकर गए तो मेरा दाख़िला वहां के इकलौते अंग्रेज़ी स्कूल में दूसरी क्लास में करा दिया गया. उसका नाम जीवन मार्ग कॉन्वेंट स्कूल था और उसके प्रिंसिपल फ़ादर स्टैनी डिसूज़ा थे. वो बहुत सख़्त थे और हम बच्चे उनके ख़ौफ़ में रहते थे. वो क्लास के बगल से भी निकल जाएं तो बच्चों की सांस अटक जाती थी. दुर्भाग्य से फ़ादर डिसूज़ा की मेरे पिताजी से दोस्ती हो गई और वो घर आने-जाने लगे. जब वो घर आते थे तो मैं डर के मारे उनके सामने जा कर चुपचाप खड़ा हो जाता था और इंतज़ार करता था कि वो जाएं तो बला टले. सबसे चिढ़ इस पर आती थी कि घर में तो वो मुझे देख कर हंसते रहते थे लेकिन अगली सुबह स्कूल में फिर सख़्ती से पेश आते थे.

१९७५ में मेरे पिताजी का आज़मगढ़ तबादल हो गया और कुछ महीने बाद वहीं उनका इंतक़ाल हो गया. मेरी विधवा मां, मेरे बड़े भाई-बहन जो ख़ुद १६-१५ साल के थे, और दस साल का मैं, हम सब पास के बलिया शहर में अपने ताऊजी के यहां अस्थायी रूप से रहने आ गए. महीने भर बाद मेरे बड़े भाई ने मुझसे कहा कि फ़ादर को नहीं मालूम होगा, उनको एक चिट्ठी भेज दो. मैं एक पोस्टकार्ड खोज कर लाया और अपनी बच्चों वाली लिखावट में मैंने उस पर “डैडी इज़ नो मोर” लिख कर उसे उनको भेज दिया.

फ़ादर डिसूज़ा उन दिनों बैंगलोंर में थे. चिट्ठी उनको दो हफ़्ते बाद मिली. वो फ़ौरन वहां से ट्रेन पकड़ कर देवरिया आए, अपनी फ़ियट गाड़ी उठाई, और सीधे हमारे पास बलिया आ गए. हम सबसे मिल कर वो फ़ौरन इलाहाबाद निकल गए जहां मिड-सेशन में उन्होंने मेरा दाख़िला सेंट जोसेफ़ स्कूल में कराया, मेरी फ़ीस भरी और किताबों का इंतज़ाम किया. इस तरह छह साल बाद मैं पादरियों के उस स्कूल से अंग्रेज़दां बन कर निकला. जवानी की अकड़ में मैं दिल्ली आकर नौकरी करने लगा.

एक-दो बार छोड़ के सालों फ़ादर से मुलाक़ात नहीं हुई हालांकि वो लगातार इलाहाबाद आकर मेरी मां से मिलते रहते थे और मेरी ख़बर लेते रहते थे. कई साल गुज़र गए. फिर पता चला वो मुग़लसराय रहते हैं और बीमार रहने लगे हैं. २०१५ में जब सरिता और मैं मुंबई रहते थे मैंने इधर उधर चर्चों में फ़ोन करके फ़ादर के मोबाइल फ़ोन नंबर का जुगाड़ किया. उनसे बात हुई. इत्तेफ़ाक़ से वो उस समय मुंबई में अपना इलाज करवाने आए हुए थे. मेरी मां भी आई हुई थीं हमारे पास. १ फ़रवरी को, सरिता के जन्मदिन के रोज़, हम तीनों दोपहर में फ़ादर से मिलने गए. जाते ही मैंने उनका पैर छुआ और चुपचाप सामने खड़ा हो गया. बचपन की तरह तब भी उनके सामने आवाज़ नहीं निकल रही थी. लेकिन फ़ादर हमेशा से बहुत मज़ाकिया स्वभाव के रहे हैं और उन्होंने हंसना-हंसाना शुरू किया. परिवार के बाहर वो पहले व्यक्ति थे जिनको हमने बताया कि हमारा बच्चा होने वाला है. वो ख़ुश हो गए और उनकी आवाज़ भर आई. उन्होंने सरिता को बहुत आशीर्वाद दिया. केक मंगाया और सरिता से कटवाया. खाना तो बनवाया ही था. जब मैं प्लेट की तरफ़ बढ़ा तो उन्होंने मुझे इशारे से रोका और हम सबकी ओर से ईश्वर के लिए छोटी सी एक प्रार्थना की. फिर हमने खाना खाया. जब उनको पता चला कि सरिता कॉफ़ी की शौक़ीन हैं तो उन्होंने कॉफ़ी पाउडर ताज़ा कुटवा कर फ़ौरन मंगाया. उसे लेकर हम लोग घर चले आए.

अभी पांच महीने पहले मेरी मां नहीं रहीं. तेरहवीं के कुछ रोज़ बाद मैंने फ़ादर को इलाहाबाद से फ़ोन लगाया. वो बनारस में पादरियों के एक हॉस्टल में रह रहे थे. उन्होंने पूछा मम्मी कैसी हैं. मैंने बताया. वो उदास हो कर बुदबुदाने लगे, “शी वॉज़ माए फ़्रेंड… दिस इज़ वैरी सैड न्यूज़…” मैंने कहा, फ़ादर, सरिता और मैं अपने बच्चे के साथ आपसे मिलने आना चाहते हैं. तीन रोज़ बाद हम उनसे मिलने बनारस गए. पैर छुआ. वो पहले से और बीमार लग रहे थे. लेकिन पुरु को देखते ही बहुत ख़ुश हो गए. अधीर हो गए कि बच्चे को क्या दें. हॉस्टल के उस कमरे में फ़ादर अकेले रह रहे थे. धीरे-धीरे, झुक-झुक कर चल के वो अलमारियां खोल खोल के सामान खोजने लगे. हम उनसे कहते रहे कि, फ़ादर, मत परेशान होइए, आपका आशीर्वाद ही चाहिए. उनको कुछ नहीं मिला तो उन्होंने तीन साबुन का एक पैक ही पुरु के हाथ में रख दिया और उसे अपनी गोदी में बैठा लिया. हमने उनके साथ फ़ोटो खिंचाई. मैंने अपने मोबाइल से बैंगलोर रह रहे अपने बड़े भाई से उनकी बात कराई. तीस साल पहले मेरी बहन का देहांत हो गया था. अब सिर्फ़ मैं और मेरे भाई बचे हैं. फ़ादर बार बार मेरे पिता, मेरी बहन और मेरी मां को याद करते रहे. मैं अपने आंसू थामे बैठा रहा. फिर फ़ादर के चर्च जाने का समय हो गया. उनको बहुत अफ़सोस था कि वो हमें चाय और बिस्कुट से ज़्यादा कुछ नहीं खिला पाए. लेकिन खु़श हुए कि सरिता और मेरे मना करने के बाद भी पुरु ने बिस्कुट का पूरा पैकेट अपने अख़्तियार में कर लिया.

हमने फ़ादर से विदा ली और चले आए. अभी कुछ दिनों पहले उनका फ़ोन आया था. वो हमारे हालचाल पूछ रहे थे. उनकी तबीयत पहले से और ख़राब होती जा रही है. सोचता हूं जल्दी ही फिर मिल आऊं. बहुत मन करता है कि फ़ादर के पास रह कर दिल से उनकी सेवा करूं. लेकिन अपने जीवन की आपाधापी में ही फंसा रहता हूं और विवश महसूस करता हूं. दिनरात उनको याद करता रहता हूं. फ़ादर डिसूज़ा मेरे मां और पिता दोनो हैं.