वाह रे राजनीति ! औरंगज़ेब ‘प्रेमी’ रीता जोशी को अब ताजमहल ना सुहाए !

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पंकज श्रीवास्तव

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अगर ताजमहल को किसी लायक़ नहीं मानते तो यह बात उनकी दिमाग़ी बुनावट बताती है। वे बिहार में एक भाषण देते हुए कह भी चुके हैं कि ताजमहल का भारतीय संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन यूपी की पर्यटन मंत्री डॉ.रीता बहुगुणा जोशी को क्या हो गया ? क्या उन्होंने अपने विभाग की ओर से जारी वह पर्यटन पुस्तिका नहीं देखी जिसमें ताजमहल का ज़िक्र नहीं है ? आख़िर वे इसे बरदाश्त कैसे कर पाती होंगी…या अपना लिखाया- पढ़ाया सब भूल गईँ ?

इन सवालों का रिश्ता निजी अनुभवों से है। बात तब की है जब वे सक्रिय राजनीति में नहीं आई थीं  और रीता बहुगुणा जोशी नहीं, सिर्फ़ मैडम रीता जोशी थीं। तब उन्हें अपने नाम के बीच में बहुगुणा लगाने की ज़रूरत नहीं थी। उनके पिता हेमवती नंदन बहुगुणा कभी यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदी पट्टी के दिग्गज नेता थे, पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग की शिक्षक के रूप में रीता जोशी के हाव-भाव में ऐसा कोई रूआब नहीं था।

वे हमें मध्यकालीन इतिहास की बारीकियाँ समझाती थीं। इलाहाबाद स्कूल ऑफ़ हिस्ट्री ने तमाम स्थापित और औपनिवेशिक मान्यताओं को अपने शोधकार्यों से ध्वस्त किया था, और रीता मैडम भी उसी परंपरा में पगी थीं। यह परंपरा इतिहास को हिंदू-मुस्लिम नज़रिए से नहीं देखती थी। किसी युग के संपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को समेट कर इतिहास का वृत्त बनाती थी और तथ्य बताते थे कि शासक, शासन और शासित के अंतर्संबंधों में धर्म की भूमिका न्यूनतम थी।

वह बीती सदी के आठवें दशक का उत्तरार्ध था । विज्ञान विषयों से इंटरमीडिएट करके आए हमारे जैसे छात्रों के पास इतिहास के नाम पर तमाम अफ़वाहें और क़िस्से ही थे। इतिहास का नया रूप हमें हर क़दम पर चौंकाता था और समझ में आने लगा था कि इतिहास महज़ राजा-रानी की कहानी नहीं है। यह समझ देने वालों में एक नाम मैडम रीता जोशी का भी था।

 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास अध्ययन ने हमें बिलकुल ही नई दृष्टि दी। सबसे बड़ा झटका तो औरंगज़ेब को लेकर लगा था। आमतौर पर क्रूर माने जाने वाले इस शासक की ख़ूबियों के तमाम दस्तावेज़ सामने थे। हमारे एक सीनियर अखिलेश जायसवाल ने रीता जोशी के निर्देशन में इस विषय पर शोध किया और 1988 में उनकी एक किताब प्रकाशित हुई-औरंगज़ेब और हिंदुओं के संबंध ।  इस किताब में औरंगज़ेब पर लगाए जाने वाले तमाम आक्षेपों की दस्तावेज़ी जाँच-पड़ताल करके बताया गया है कि समाज में उसकी ग़लत छवि बनाई गई है।

इस किताब के प्राक्कथन में डॉ.रीता जोशी ने लिखा- पाठकों तक औरंगज़ेब का सही व्यक्तित्व, उसकी कठिनाइयों और उसके कार्यों की सही व्याख्या पहुँचाना नितांत आवश्यक है।

नीचे इस प्राक्कथन को पढ़कर अंदाज़ा लगाइए कि डॉ.रीता जोशी किस मिज़ाज की थीं–

“मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का दुर्भाग्य है कि वह मुग़ल शासकों में सर्वाधिक ग़लतफ़हमियों का शिकार हुआ है। उस पर रूढ़िवादिता, हठधर्मिता एवं कट्टरता का आरोप लगाया गया है। अभी तक यही आम धारणा थी कि औरंगज़ेब भारत को इस्लामी राज्य में परिवर्तित करना चाहता था, वह भारत की बहुसंख्य हिंदू प्रजा पर अल्पसंख्यक मुस्लिम धर्म को लागू करना चाहता था। औरंगज़ेब पर अकबर की उदारता समाप्त करने तथा हिंदू-मुसलमानों के मध्य चली आ रही सद्भावना को विद्वेष में परिवर्तित कर देने का आरोप है। यह भी कहा जाता है कि हिंदू तत्वों को मुग़ल साम्राज्य का शत्रु बनाकर औरंगज़ेब ने अपने साम्राज्य का पतन सुनिश्चित कर दिया था। राजपूतों एवं मराठों तथा सिखों के प्रति उसकी नीति की कटु आलोचना की गई है। इस प्रकार मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मूलत: औरंगज़ेब को ही उत्तरदायी ठहराया गया है।

कुछ समय से औरंगज़ेब के शासनकाल के अध्ययन एवं मूल्यांकन में परिवर्तन हुआ। नवीन तथा निष्पक्ष दृष्टिकोणों से इतिहास लिखा जा रहा है। नवीनतम अनुसंधानों तथा विश्लेषणों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वास्तव में  औरंगज़ेब वैसा नहीं था, जैसा कि यूरोपीय एवं बीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहासकारों ने समझा था। प्रत्येक शासन से त्रुटियाँ होती हैं और औरंगज़ेब ने भी की थी। किंतु यह भी सत्य है कि अगर सन 1658 ई.में औरंगज़ेब गद्दी पर ना बैठता तो शायद मुग़ल साम्राज्य उसी समय समाप्त हो जाता। औरंगज़ेब ने अपनी सूझ-बूझ, दूरदर्शिता, अनुभव एवं कूटनीति से पचास वर्षों तक मुग़ल साम्राज्य के पतन को स्थगित रखा। पतन के कारणों का बीजारोपण काफ़ी पहले हो चुका था। औरंगज़ेब ने तो कालचक्र को रोके रखा। किंतु उसके उत्तराधिकारी स्थिति को नियंत्रित ना कर सके और इस योग्य शासक की मृत्यु होते ही साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।

आज आवश्यकता है कि विभिन्न स्तरों पर इतिहास की त्रुटियों को सुधार कर पुन: उसकी रचना की जाए। श्री अखिलेश जायसवाल ने भी ऐसा ही एक प्रयत्न किया है। अधिक से अधिक प्रकाशनों के माध्यम से पाठकों तक औरंगज़ेब का सही व्यक्तित्व, उसकी कठिनाइयों और उसके कार्यों की सही व्याख्या पहुँचाना नितांत आवश्यक है। केवल उच्च स्तर पर ही नहीं, वरन शिक्षा के प्रारंभिक माध्यमिक स्तर पर भी छात्रों को सही इतिहास पढ़ाया जान चाहिए।

मेरी शुभकामनाएँ इस पुस्तक के लेखक श्री अखिलेश जायसवाल के साथ हैं। “

 

ऐसे में डॉ. रीता जोशी ने जब औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ मुसलसल अभियान चलाने वाली बीजेपी की सदस्यता ली तो थोड़ी हैरानी हुई। दुख की बात कि बतौर पर्यटन मंत्री वे योगीवाणी ही बोल रही हैं। भूल गईं कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास की शिक्षक रही हैं। उनके पढ़ाए हज़ारों छात्र उन्हें देख-सुन रहे हैं। ताजमहल की उपेक्षा, उनके पर्यटन मंत्री रहते होगी, ऐसा कौन सोच सकता था ! उन्हें अपने नाना और इलाहाबाद स्कूल ऑफ हिस्ट्री के प्रतिनिधि इतिहासकार, प्रो.आर.पी.त्रिपाठी का भी ख़्याल नहीं आया, जिनकी किताबें उनकी मौजूदा पार्टी की मुस्लिम विरोधी राजनीति को गर्हित बताने के लिए काफ़ी हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल लॉन में बरगद का वह बेहद पुराना पेड़ आज भी खड़ा है जिसकी तस्वीर से विश्वविद्यालय का प्रतीकचिन्ह बना है। इसममें विश्वविद्यालय का ध्येय वाक्य भी है। वाक्य लैटिन भाषा में है-QUOT RAMI TOT ARBORES. इसका अर्थ है- जितनी शाखाएँ, उतने वृक्ष।

उम्मीद की जाती है कि विश्वविद्यालय का हर छात्र एक शाखा की तरह है और जहाँ जाएगा ज्ञान के वृक्ष की तरह खड़ा होगा। (बरगद की शाखाएँ जैसे स्वतंत्र पेड़ में बदलती हैं।)

रीता जोशी की ‘विस्मृति’ बताती है कि इसमें राजनीति एक अपवाद है। वे राजनीति में गईं और सबकुछ भूल गईं। यह भी कि इतिहास से जो सबक नहीं लेते, उनका नाश निश्चित है।

 

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास में पीएच.डी हैं।)