नेहरू की वसीयत: मृत्यु के बाद न हो धार्मिक अनुष्ठान, खेतों में बिखेरी जाये राख!


गंगा, मेरे लिए भारत के भूतकाल की स्मृति और प्रतीक के रूप में रही है जो वर्तमान में प्रवाहमान है और जिसकी दिशा भविष्य के महासागर की ओर है। और यद्यपि मैंने अतीत की बहुत सी परंपराओं और रीतिरिवाजों को खारिज कर दिया है, और चिंतित हूँ कि भारत को उन सभी बंधनों से स्वयं को मुक्त कर देना चाहिए जो उसे बांधते और विवश करते हैं तथा बड़ी संख्या में उसके निवासियों को दबाते और विभाजित करते हैं, और शरीर व आत्मा के मुक्त विकास में अवरोधक हैं।


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महान स्वतंत्रता सेनानी, आधुनिक भारत के निर्माता और प्रथम प्रधानमंत्री  जवाहर लाल नेहरू ने मृत्यु के लगभग दस साल पहले अपनी वसीयत लिख दी थी। इस वसीयत में देश के प्रति उनके अगाध प्यार और आधुनिक विचारों की काव्यात्मक झलक है। पढ़िए–

‘मुझे भारत के लोगों से इतना प्यार और स्नेह मिला है कि मैं इसका एक छोटा सा अंश भी उन्हें लौटा नहीं सकता, और वास्तव में स्नेह जैसी मूल्यवान चीज के बदले में कुछ लौटाया भी नहीं जा सकता। इस देश में कई लोगों की प्रशंसा की गई है, कुछ को श्रद्धेय समझा गया है, लेकिन मुझे भारत के सभी वर्गों के लोगों का स्नेह इतनी प्रचुर मात्रा में मिला है कि मैं इससे अभिभूत हूँ। मैं केवल आशा ही कर सकता हूँ कि जब तक मैं जीवित हूँ, मैं अपने लोगों और उनके स्नेह से वंचित न रहूँ।
अपने असंख्य साथियों और सहकर्मियों के प्रति मेरे मन में गहरा कृतज्ञता भाव है। हम कई महान कार्यों में सहभागी रहे हैं और हमने एक साथ सफलता का सुख और असफलता का दु:ख साझा किया है।

मैं पूरी ईमानदारी से यह घोषित करता हूँ कि मैं नहीं चाहता कि मेरी मृत्यु के बाद किसी भी तरह का धार्मिक अनुष्ठान किया जाये। मैं ऐसे किसी भी अनुष्ठान में विश्वास नहीं करता, अत: मेरी मृत्यु के बाद ऐसा करना वास्तव में पाखंड होगा तथा स्वयं को और अन्य लोगों को धोखा देने के समान होगा।

मैं चाहता हूँ कि जब मेरी मृत्यु हो तो मेरे शरीर का दाह संस्कार कर दिया जाये। यदि मेरी मृत्यु विदेश में होती है, तो मेरा दाह संस्कार वहीं कर दिया जाये और मेरी राख को इलाहाबाद भेज दिया जाये। इसमें से एक मुट्ठी भर राख गंगा में प्रवाहित कर दी जाये तथा और शेष राख का निपटान नीचे दर्शाये गए तरीके से किया जाये। इस राख का कोई भी हिस्सा न ही बचाकर रखा जाये और न ही संरक्षित किया जाये।

जहाँ तक मेरा संबंध है, मेरी एक मुट्ठी राख को इलाहाबाद में गंगा में प्रवाहित करने की मेरी इच्छा का कोई धार्मिक महत्त्व नहीं है। इस मामले में मेरी कोई धार्मिक भावना नहीं है। मैं अपने बचपन से ही इलाहाबाद में गंगा और यमुना नदियों से जुड़ा रहा हूँ, और जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, यह लगाव भी बढ़ता गया है। मैंने बदलते मौसमों के साथ इनकी अलग-अलग भावभंगिमायें देखी हैं, और अक्सर मैंने उन इतिहास, मिथक, परंपरा, गीत और कहानियों पर विचार किया है जो सदियों से इनके साथ जुड़ी रही है तथा इनके निरंतर प्रवाह का अंग बन गयी हैं। विशेष रूप से, गंगा, भारत की नदी है, जिससे लोग प्रेम करते हैं, जिसके इर्द-गिर्द उनकी जातीय स्मृतियां, उनकी आशायें और भय, उनके विजय गीत, उनकी जीत और हार गुथे हुए हैं।

वह भारत की सदियों पुरानी संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक रही है, सदा बदलने वाली, सदा बहने वाली, लेकिन फिर भी सदा वही गंगा। वह मुझे हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों और गहरी घाटियों की याद दिलाती है, जिनसे मैं बेहद प्यार करता हूँ, और निचले इलाकों के समृद्ध और विशाल मैदानों की, जहां मेरा जीवन और कर्म निर्धारित हुआ है। प्रात:काल के सूरज की रोशनी में मुस्कराती और अठखेलियां करती हुई; शाम के साये में गहरी, उदास और रहस्य से भरी हुई; सर्दियों में संकरी, धीमी और रमणीय धारा; मानसून के दौरान सागर सी विशाल और गरजती हुई तथा उसके ही समान विध्वंस करने की क्षमता रखने वाली, गंगा, मेरे लिए भारत के भूतकाल की स्मृति और प्रतीक के रूप में रही है जो वर्तमान में प्रवाहमान है और जिसकी दिशा भविष्य के महासागर की ओर है। और यद्यपि मैंने अतीत की बहुत सी परंपराओं और रीतिरिवाजों को खारिज कर दिया है, और चिंतित हूँ कि भारत को उन सभी बंधनों से स्वयं को मुक्त कर देना चाहिए जो उसे बांधते और विवश करते हैं तथा बड़ी संख्या में उसके निवासियों को दबाते और विभाजित करते हैं, और शरीर व आत्मा के मुक्त विकास में अवरोधक हैं।

हालांकि यह सब चाहते हुए भी मैं स्वयं को अपने अतीत से पूरी तरह अलग करना नहीं चाहता। हमारी महान विरासत पर मुझे गर्व है और मैं सचेत हूँ कि अन्य सभी लोगों की तरह मैं भी उस अटूट श्रृंखला का हिस्सा हूँ जो भारत के प्राचीन अतीत में इतिहास के आरंभ तक जाती है। मैं उस श्रंखला को नहीं तोडूंगा, क्योंतकि‍ यह मेरे लि‍ए कि‍सी बहुमूल्यह खजाने से कम नहीं है और जि‍ससे मैं प्रेरणा लेता हूँ। और मेरी इस इच्छात के साक्ष्यं और भारत की सांस्कृीति‍क वि‍रासत को मेरी अंति‍म श्रद्धांजलि के रूप में, मैं यह अनुरोध करता हूँ कि‍ मेरी एक मुट्ठी राख को इलाहाबाद में गंगा में प्रवाहि‍त कर दि‍या जाये जो बहते हुए उस महासागर में मि‍लती है जो भारत की तट रेखा को प्रक्षालि‍त करता है।

मेरी राख के शेष बड़े भाग का इस्तेमाल कुछ अलग तरह से करना है। मैं चाहता हूं कि‍ इसे एक हवाईजहाज से ऊंचाई पर ले जाया जाये और उस ऊंचाई से भारत के उन खेतों में बि‍खरा दि‍या जाये जहां भारत के कि‍सान परि‍श्रम करते हैं, ताकि‍ वह भारत की मि‍ट्टी में समाहि‍त होकर भारत का एक अभि‍न्नं अंग बन जाये।’

जवाहर लाल नेहरू, 1954