महान हिंदू गाँधी का क़त्ल ‘हिंदुत्व’ ने किया !

Mediavigil Desk
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आज़ाद भारत की पहली आतंकवादी कार्रवाई थी गाँधी जी की हत्या। इस हत्या को ‘जायज़’ ठहराने के लिए दशकों से संघी दुष्प्रचार जारी है कि गाँधी जी आज़ादी के बाद पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए अनशन कर रहे थे जिससे नाराज़ ‘देशभक्त’ नाथूराम गोडसे ने उनकी जान ले ली। गोया यह कोई तात्कालिक आवेश में किया गया कृत्य था। हद तो यह भी है कि लट्ठपाणियों के इस अहर्निश प्रचार का एक अंश यह भी है कि गोली मारने के पहले नाथूराम ने उनके चरण स्पर्श भी किए जो बताता है कि वह गांधी जी की कितनी इज़्ज़त करता था। “गाँधी वध क्यों” नाम की पुस्तिका भी जमकर बेची गई (ध्यान दें ‘वध’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है जो देवता किसी राक्षस का करते थे।)
हक़ीकत बिलकुल उलट है। गांधीजी को पहले भी चार बार मारने की कोशिश हुई थी। तब भी जब पाकिस्तान का विचार भी नहीं जनमा था।
1. गाँधी जी की जान लेने का पहला प्रयास पुणे में 25 जून 1934 को हुआ। वे नगर निगम में भाषण देने जा रहे थे लेकिन कार खराब हो गई जिससे पहुँचने में विलंब हो गया। उनके काफिले में शामिल दूसरी गाड़ियाँ जब सभास्थल पर पहुंचीं, तब उन पर बम फेंका गया।
2. गाँधी जी को मारने की दूसरी कोशिश 1944 में हुई और इसमें नाथूराम गोडसे भी शामिल था। मई 1944 में गाँधी जी पंचगनी में थे। करीब 20 युवकों के जत्थे ने उनके खिलाफ दिन भर पर प्रदर्शन किया, लेकिन बुलाने पर गाँधी जी से मिलने नहीं गये। शाम को प्रार्थना सभा में हाथ में खंजर लिए नाथूराम गांधीजी की तरफ लपका लेकिन उसे पकड़ लिया गया।
3. सितंबर 1944 में जब जिन्ना के साथ गाँधीजी की बातचीत शुरू हुई, तब उन्हें मारने की तीसरी कोशिश हुई। गाँधी जी सेवाग्राम मुंबई जा रहे थे, तब नाथूराम के नेतृत्व में उन्हें रोकने की कोशिश की गई। उस वक्त भी नाथूराम के पास से से एक खंजर बरामद हुआ था।
4. गाँधीजी को मारने की चौथी कोशिश 20 जनवरी 1948 को हुई। इसमें शामिल थे मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दिगम्बर बड़गे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे। मदनलाल पाहवा ने बिड़ला भवन स्थित मंच के पीछे की दीवार पर कपड़े में लपेट कर बम रखा था, जहाँ उन दिनों गांधी रुके थे। बम फटा लेकिन कोई हताहत नहीं हुआ। पाहवा पकड़ा गया। समूह में शामिल अन्य लोगों को भगदड़ के बीच गाँधीजी पर गोलियां चलानी थीं, लेकिन शायद वे डर गए।

आखिरकार षड़यंत्रकारी सफल हुए और 30 जनवरी 1948 को गाँधी जी की हत्या कर दी गई। आरएसएस और हिंदू महासभा से दीक्षित नाथूराम गोडसे ने इस कुकृत्य को अंजाम दिया था। उसे गोली चलानी आती थी लेकिन इस “देशभक्त” ने किसी अंग्रेज़ को कभी कंकड़ से भी नहीं मारा था। गोडसे, सावरकर का शिष्य था जो ख़ुद भी गाँधी जी की हत्या के षड़यंत्र में शामिल थे। मुकदमें उनके ख़िलाफ़ गवाही भी हो गई थी, लेकिन उसकी पुष्टि करने वाला दूसरा गवाह न मिलने की वजह से तकनीकी कारणों से वे छोड़ दिए गये। सावरकर ने 1923 में ‘हिंदुत्व’ नाम की किताब लिखी थी जो एक तरह से अंग्रेजों से मिली ‘दया रिहाई’ का प्रतिदान था। सावरकर ने बाकायदा अंग्रेज़ों से माफी माँगकर अंडमान की सेल्युलर जेल से रिहाई हासिल की थी। जीवन के पहले दौर में क्रांतिकारी सावरकर हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे, लेकिन अब अंग्रेज़ी नीति के अनुसार हिंदुओं और मुसलमानों के बीच युद्ध कराने को जीवन का लक्ष्य बना बैठे थे।
सावरकर ने न सिर्फ पाकिस्तान के प्रस्ताव का समर्थन किया था बल्कि ज़रूरी भी बताया था। आरएसएस लगातार अंग्रेज़ों का साथ देने की नीति पर चलता रहा। उधर, गाँधीजी ख़ुद को वैष्णव कहते थे जिसकी कसौटी ही ‘पराई पीर’ को अपना समझना था। वे अहिंसा को मंत्र बनाकर दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य के ख़िलाफ भारत की जनता को जागृत कर रहे थे। लेकिन सावरकर का ‘हिंदुत्व’ ऐसे किसी हिंदू को बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं था जो शांति, समन्वय और अहिंसा की बात करे। आख़िरकार ‘हिंदुत्व’ ने दुनिया के सबसे सम्मानित हिंदू की जान ले ली।
नोट—आज बहुत से लोग बिना विचारे हिंदुत्व शब्द का रिश्ता हिंदू धर्म से जोड़ देते हैं। जबकि ख़ुद सावरकर ने स्पष्ट किया है कि यह धर्म नहीं एक राजनीतिक विचार है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि गीता, रामायण, महाभारत,वेद, पुराण या किसी और धार्मिक ग्रंथ में ‘हिंदुत्व’ तो छोड़िए ‘हिंदू’ शब्द भी नहीं मिलता।

(पत्रकार पंकज श्रीवास्तव के फेसबुक पेज से )