आंबेडकर जयंती पर विशेष: हिन्दू कोड बिल और नेहरू के साथ विच्छेद

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
दस्तावेज़ Published On :


भीमराव आंबेडकर हिन्दुओं में पहले दलित या निम्न जाति नेता थे जिन्होंने पश्चिम जाकर पीएचडी जैसे सर्वोच्च स्तर तक की औपचारिक शिक्षा हासिल की थी। अपनी इस अभूतपूर्व उपलब्धि के बाबजूद वह अपनी जड़ों से जुड़े रहे और तमाम उम्र दलित अधिकारों के लिए लड़ते रहे। भारत के सबसे प्रखर और अग्रणी दलित नेता के रूप में आंबेडकर का स्थान निर्विवाद है। निम्न जातियों को एक अलग औपचारिक और कानूनी पहचान दिलाने के लिए आंबेडकर सालों तक भारत के स्वर्ण हिन्दू वर्चस्व वाले समूचे राजनीतिक प्रतिष्ठान से अकेले लोहा लेते रहे। स्वतंत्र भारत की पहली केन्द्र सरकार में आंबेडकर को कानून मंत्री और संविधान का प्रारूप तैयार करनेवाली समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इन पदों पर रहते हुए उन्हें भारतीय राजनय पर गांधीवादी प्रभावों पर अंकुश लगाने में उल्लेखनीय सफलता मिली। क्रिस्तोफ़ जाफ्रलो ने उनके जीवन को समझने के लिए तीन सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला है: एक समाज वैज्ञानिक के रूप में आंबेडकर; एक राजनेता और राजनीतिज्ञ के रूप में आंबेडकर; तथा सवर्ण हिन्दुत्व के विरोधी एवं बौद्ध धर्म के एक अनुयायी व प्रचारक के रूप में आंबेडकर।

संविधान सभा की बहसों में एक पश्चिम प्रेरित सिविल कोड अपनाने की सिफ़ारिश करके और निजी क़ानूनों के लिए आवाज़ उठा रहे प्रतिनिधियों, जिनमें शरीअत के भविष्य को लेकर चिन्ताग्रस्त मुस्लिम प्रतिनिधि विशेष रूप से मुखर थे, का विरोध करते हुए भारतीय समाज को सुधारने के मामले में आंबेडकर ने अपनी दृढ़ता का साफ़ परिचय दिया :

“मैं निजी तौर पर यह यह नहीं समझ पाता कि धर्म को इतना व्यापक, इतना सर्वसमावेशी अधिकार क्यों दे दिया जाता है कि पूरा जीवन उसके खोल में आ जाता है और यहाँ तक कि विधायिका भी उस दायरे में घुसपैठ नहीं कर सकती। आख़िरकार हमें यह मुक्ति मिली ही क्यों है? हमें यह मुक्ति इसलिए मिली है कि हम अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधार सकें जोकि ग़ैर-बराबरी, भेदभाव और दूसरी चीज़ों से भरी पड़ी है और ये सारी प्रवृत्तियाँ हमारे मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हैं।“

इसके बदले में आंबेडकर को नीति निर्देशक सिद्धान्तों में एक अनुच्छेद से ज़्यादा कुछ नहीं मिला जिसमें कहा गया था कि : ‘भारत के समूचे भू-भाग में राज्य अपने नागरिकों के लिए एक यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड सुनिश्चित करने के लिए प्रयास करेगा।‘

बाद में यह सिफ़ारिश एक बेजान प्रस्ताव भर बनकर रह गई क्योंकि अल्पसंख्यकों—सबसे मुख्य रूप से मुस्लिमों—ने अपने-अपने निजी क़ानूनों को लेकर एक सख़्त रवैया अपना लिया था। कांग्रेस के भी बहुत सारे सदस्य भी उत्तराधिकार, विवाह (और तलाक़) तथा दत्तकता सम्बन्धी हिन्दू परम्पराओं व व्यवहारों में किसी भी प्रकार के सुधारों के ख़िलाफ़ि थे। हिन्दू कोड बिल का अन्तत: जो हश्र हुआ, उससे यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। ऊपर उद्धृत वाक्य हिन्दू समाज की परम्पराओं को सुधारने की दीर्घकालिक परियोजना की ओर संकेत करता है। सती उन्मूलन (1929) से लेकर हिन्दू महिला सम्पत्ति अधिकार अधिनियम (1937) तक एक सदी से भी ज़्यादा समय में बनाए गए अलग-अलग क़ानूनों के बाद अंग्रेज़ों ने तय किया कि सारे संशोधित हिन्दू निजी क़ानूनों को एक कोड में समेकित कर दिया जाए तो बेहतर होगा। लिहाज़ा 1941 में एक हिन्दू लॉ कमेटी बनाई गई थी। बी.एन. राऊ की अध्यक्षता में गठित इस कमेटी ने 1944 के अगस्त महीने में हिन्दू कोड का एक मसविदा भी प्रकाशित किया था। इस मसविदे के मुख्य प्रावधानों के अनुसार, बेटियों और बेटों को माता-पिता की मृत्यु पर उत्तराधिकार मिलना चाहिए, विधवाओं को निर्बाध सम्पदा (एब्सॉल्यूट ऐस्टेट) का अधिकार मिलना चाहिए। एकल विवाह को नियम बनाया गया था और निश्चित हालात में तलाक़ की भी अनुमति दी गई थी। अप्रैल 1947 में इस कोड को विधायिका के सामने पेश किया गया लेकिन राजनीतिक हालात—आज़ादी और विभाजन—की वजह से इसकी विषयवस्तु पर कोई चर्चा नहीं हो पाई थी। 1948 में नेहरू ने एसेम्बली की एक उपसमिति को नये कोड का मसविदा लिखने का जि़म्मा सौंपा और आंबेडकर को उसका मुखिया नियुक्त किया। नये कोड बिल में सम्पत्ति और दत्तकता के सवालों पर पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता का प्रावधान किया गया, केवल एकल विवाह (मॉनोगेमस मैरेज) को ही क़ानूनी मान्यता दी गई, ‘सिविल मैरेज में जाति बन्धन को समाप्त’  घोषित किया गया, और तलाक़ की याचिका दायर करने के लिए ठोस औचित्य की आवश्यकता निर्धारित की गई। अभी तक पति द्वारा पत्नी को छोड़ दिए जाने को ही तलाक़ मान लिया जाता था। हिन्दुओं की निजी जि़ंदगी में प्रचलित प्रथाओं पर सवाल खड़ा करने से भावनाओं में भारी उथल-पुथल पैदा हुई। इससे न केवल हिन्दू महासभा के परम्परावादी सदस्यों बल्कि राजेन्द्र प्रसाद सहित कांग्रेस के भी बहुत सारे नेताओं में खलबली मच गई थी। ऐसे सुधारों पर ख़ुद अपनी सख़्त आपत्ति व्यक्त कर चुके वल्लभभाई पटेल को लिखे एक पत्र में राजेन्द्र प्रसाद ने इसे ऐसी परियोजना बताया जिसकी ‘नई अवधारणाएँ और नए विचार न केवल हिन्दू क़ानून के लिए पराये हैं बल्कि प्रत्येक परिवार को तोड़ने वाले हैं।‘  पार्टी अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया सहित कांग्रेस के बहुत सारे बड़े नेताओं ने विधेयक का विरोध किया और यह आशंका व्यक्त की कि यह क़ानून 1951-52 के आम चुनावों से पहले स्थानीय प्रभुओं—मुख्य रूप से रूढ़िवादी जमीदारों—को पार्टी से दूर कर सकता है। प्रसाद ने सार्वजनिक रूप से तो इस तरह के तर्क नहीं दिए मगर वह व्यक्तिगत स्तर पर विधेयक के ख़िलाफ़ अभियान चलाते रहे। उनका कहना था कि अन्तरिम संसद सदस्यों के पास ऐसे मुद्दों पर विचार करने का जनादेश नहीं है।

जवाहरलाल नेहरू को इस कोड से भारी उम्मीदें थीं। आंबेडकर की भाँति नेहरू भी इसे भारत के आधुनिकीकरण की आधारशिला मानते थे। उन्होंने यहाँ तक ऐलान किया था कि अगर यह बिल पास नहीं होता है तो उनकी सरकार इस्तीफ़ा दे देगी और आंबेडकर ने उन पर दबाव बनाया था कि वे बिना कोई समय गँवाए इस बिल को संसद के सामने पेश करें। प्रधानमंत्री ने आंबेडकर से थोड़ी मोहलत माँगी और कोड को अलग-अलग चार हिस्सों में बाँट दिया ताकि 17 सितम्बर, 1951 को असेम्बली में उसे पेश करने से पहले उस पर हो रहे विरोध को कुछ शान्त किया जा सके। ख़ैर, असेम्बली में इस बिल को पेश किए जाने के बाद इस पर जो बहस हुई उससे यह सा$फ हो गया कि $खुद परम्परावादी कांग्रेसी भी इसके कम ख़िलाफ़ नहीं थे। चार दिन की चर्चाओं के बाद आंबेडकर ने एक भावुक और लम्बा भाषण दिया जिसमें उन्होंने बताया कि कृष्ण और राधा का विवाहेतर सम्बन्ध दर्शाता है कि हिन्दू धर्म में महिलाओं को कितनी अपमानजनक स्थिति में रखा जाता है। अचंभे की बात नहीं है कि इससे ज़्यादातर रूढ़िवादी सांसद आगबबूला हो गए। टी. भार्गव ने दावा किया है कि आंबेडकर इस क़ानून को इसलिए पारित कराना चाहते थे ताकि एक ब्राह्मण नर्स के साथ अपने हालिया विवाह को वैधता प्रदान कर सकें।  आंबेडकर ने अप्रैल 1948 में ही डॉ. शारदा कबीर से विवाह किया था। 1947 में जब ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में लगातार व्यस्तता के कारण उनकी तबीयत तेज़ी से बिगड़ने लगी थी तो वह डॉ. कबीर से इलाज कराने गए थे।

ख़ैर, 25 सितम्बर को हिन्दू कोड बिल के विवाह और तला$क से सम्बन्धित हिस्से में बहुत सारे संशोधनों के ज़रिए उसको क्षत-विक्षत कर दिया गया और अन्तत: उसे हमेशा कि लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। नेहरू ने इस घटनाक्रम के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा। आंबेडकर का मानना था कि प्रधानमंत्री ने इस मौक़े पर उनका उतना समर्थन नहीं किया जितना करना चाहिए था, लिहाज़ा 27 सितम्बर को उन्होंने नेहरू सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया।

कुछ समय बाद प्रकाशित अपने एक वक्तव्य में आंबेडकर ने नेहरू के पीछे हट जाने के लिए कांग्रेस के भीतर से पड़ रहे दबाव को जि़म्मेदार ठहराया : ‘मैंने कभी किसी चीफ़ व्हिप को प्रधानमंत्री के प्रति इतना निष्ठारहित और प्रधानमंत्री को एक निष्ठाहीन व्हिप के प्रति इतना निष्ठावान नहीं देखा।‘  नेहरू को शायद डर था कि कहीं ऐसा न हो कि कांग्रेसी सांसद ही सामूहिक रूप से इस पूरी परियोजना को ख़ारिज कर दें और/या गणराज्य के राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने इस पर हस्ताक्षर न करने की जो धमकी दी थी, उसे वे वाक़ई अमल में न ले आएँ।

हिन्दू कोड बिल आंबेडकर द्वारा बताई गई अपने इस्तीफ़े की वजहों में से सिर्फ़ एक वजह थी। वह इस बात के लिए भी नेहरू से ख़फ़ा थे कि उन्होंने आंबेडकर को किसी भी तरह के योजना सम्बन्धी मंत्रालय नहीं दिए थे। आंबेडकर कश्मीर के मामले पर भी नेहरू से सहमत नहीं थे। आंबेडकर का मानना था कि यह भूभाग पाकिस्तान को ही मिलना चाहिए। इन सारी घोषित वजहों के अलावा एक अव्यक्त कारण भी था—स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव निकट आ रहे थे और आंबेडकर अपनी पार्टी की ओर से ही चुनाव लड़ना चाहते थे। फिर भी, यह बेहद उल्लेखनीय बात है कि आंबेडकर ने नेहरू सरकार का दामन हिन्दू कोड बिल के सवाल पर ही छोड़ा। इससे पता चलता है कि यद्यपि वह ऊपर से लागू किए जा रहे समाज सुधारों के राजनीतिक रास्ते में विश्वास रखते थे मगर ये भी समझते थे कि यह कोशिश केवल संवैधानिक रूपरेखा तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। वह मानते थे कि सदियों से चले आ रहे सामाजिक रिवाजों को बदलने में तब तक सफलता नहीं मिलेगी जब तक व्यवहार के धरातल पर इसके लिए ठोस उपाय नहीं किए जाएँगे। बहुत सारे कांग्रेसी भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक रूपरेखा को तो स्वीकार कर रहे थे मगर वे सामाजिक यथास्थिति पर सवाल उठाने वाले बदलावों का समर्थन करने को तैयार अभी भी नहीं थे।

तीस के दशक के आख़िरी सालों से पचास के दशक तक आंबेडकर अपनी सारी ताक़त अस्पृश्यों के हालात को सुधारने के लिए झोंकते रहे। सबसे पहले तो उन्होंने अस्पृश्यों—और यहाँ तक कि तमाम मजदूरों—के हितों की रक्षा के लिए राजनीतिक दलों का गठन किया। इसके बाद उन्होंने अपने तब$के के लोगों के पक्ष में कुछ आश्वासनों के बदले अंग्रेज़ों का साथ दिया और अन्त में इसी भावना व उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए वह कांग्रेस सरकार में शामिल हुए। इस पूरी पद्धति से उन्हें गांधीवादी विचारों को हाशिए पर रखने में निश्चित रूप से मदद मिली। अगर आंबेडकर ने ये सब न किया होता तो संविधान के अन्तिम पाठ में गांधीवादी विचारों की छाप बहुत गहरी होती। मगर दूसरी तरफ़ उन्होंने पृथक निर्वाचक मंडल और ख़ासतौर से हिन्दू कोड बिल पर हुई बहसों के दौरान राजतंत्र में अपने प्रभाव और पैठ की सीमाओं को भी परख लिया था। उन्होंने हिन्दू कोड बिल को अपने संघर्ष का आधार इसलिए बनाया क्योंकि उनका मानना था कि आधुनिक संवैधानिक संरचना के साथ-साथ भारतीय समाज को आमूल समाज सुधारों की भी सख़्त ज़रूरत है, और कांग्रेस इन सुधारों के लिए अभी तैयार नहीं थी।

यों तो उन्होंने नेहरू सरकार से इस्तीफ़ा देने के बाद राजनीति के प्रति एक ख़ास तरह की हिकारत का भाव भी दिखाया मगर कुल मिलाकर वह राजनीतिक जीवन से बाहर जाने वाले नहीं थे। न केवल उन्होंने 1951-52 के चुनाव अभियान में हिस्सा लिया बल्कि कुछ साल बाद, अपनी मृत्यु से ठीक पहले रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना का विचार भी हवा में छोड़ दिया था। इसी दौरान उनके धार्मिक, यहाँ तक कि आध्यात्मिक अन्वेषण की दिशा भी बौद्ध धर्म पर केन्द्रित होती गई। उनके विचार में यही ऐसा धर्म था जहाँ अस्पृश्यता का एकमात्र स्वीकार्य समाधान सम्भव था।


किताब का नाम – भीमराव आंबेडकर एक जीवनी

लेखक – क्रिस्तोंफ़ जाफ़लो

कीमत – पेपरबैक – 199/

हार्डबैक – 650/


Related