कॉमरेड ज़िया: रगों में संगम, हाथों में लाल झंडा और आँखों में तैरता इंसाफ़ का सपना!

के.के. रॉय के.के. रॉय
दस्तावेज़ Published On :


कामरेड ज़ियाउल हक़ः एक शताब्दी का शिलालेख

 

सौ साल किसी भी मुल्क के इतिहास की बहुत अहम घटनाओं को अपने में समेटे रहता है जिसमें पिछले कई सौ साल की घटनाओं की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। इसीलिए माओ-त्से-तुंग ने येनान में छात्रों से बात करते हुए कहा था कि सबको अपने-अपने देश के कम से कम पिछले सौ साल के इतिहास का गम्भीर अध्ययन करना चाहिए। और अगर किसी शख़्स ने सौ साल जीवन जिया हो, बेलौस और जिन्दादिली से, तो उसके सौ साल की जिन्दगी में उतने ही समय के समाज, राजनीति, संस्कृति को भी उनके जीवन दर्पण में देखा जा सकता है।

अगर मान लिया जाय कि ज़िया भाई का जन्म 1917 या 1919 के बीच हुआ है तो शुरूआती जीवन के 30 साल उनके ब्रिटिश राज में गुजरे और उसके बाद के अनवरत 30 साल कांग्रेस की हुकूमत में। वे आजीवन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई व उसके संगठनों से जुड़े रहे। जब पार्टी अविभाजित थी और तब भी जब विभाजित हो गयी। ज़िया भाई इलाहाबाद से हैं। एक सम्पन्न जमींदार परिवार में उनका जन्म हुआ और युनिवर्सिटी तक पढ़ाई की। यह वह दौर था जब सम्पन्न परिवारों से इंग्लैण्ड, यूरोप गये और भारत की युनिवर्सिटियों में पढ़ रहे युवाओं में कम्युनिस्ट होने की ललक बहुत तेजी से बढ़ रही थी। 1925 में सीपीआई का बाकायदा गठन हो चुका था। 1936 में लखनऊ में ही प्रगतिशील लेखक संघ और एआईएसएफ का निर्माण हुआ। वह ज़िया भाई की तरुणाई का समय था। सज्जाद जहीर इसी शहर इलाहाबाद से थे। ज़ेड.ए. अहमद आकर इलाहाबाद में जमे हुये थे। मुज़फ़्फ़र हसन का यहां लगातार आना जाना था। उनके युवा मन पर इन सबका क्या प्रभाव पड़ा होगा इसका अन्दाज़ा हम उनके प्रारंभिक अवस्था के सचेतन मन मस्तिष्क से कर सकते हैं।

(यह तस्वीर सात बरस के ज़िया भाई की है।)

एक बार वे चर्चा कर रहे थे कि वे जब जीआईसी में पढ़ रहे थे तो 27 फरवरी 1931 को उनके कालेज में सुगबुगाहट फैली कि कम्पनी बाग में कोई क्रान्तिकारी अंग्रेजों से लड़ता हुआ शहीद हो गया है। उन्होंने और छात्रों ने जिद ठान ली कि शहीद का दर्शन करने जायेंगे। प्रिंसपल तैयार नहीं था पर स्वदेशी आन्दोलन से जुड़े एक अध्यापक उन विद्यार्थियों को लेकर चले। आगे बढ़े तो गवर्नमेण्ट हाउस, आज के मेडिकल कालेज के सामने पुलिस की कतार खड़ी थी। उसने जुलूस को आगे जाने नहीं दिया। शाम होते-होते पता चल गया कि कम्पनी बाग में चन्द्रशेखर आज़ाद शहीद हुये हैं। बमुश्किल हाई स्कूल में पढ़ रहे किशोर को एक क्रान्तिकारी की शहादत सड़क पर खींच लायी थी। वह भीतर की चिनगारी थी जो बाहर के भीषण उथल-पुथल से तालमेल बैठा रही थी।

जिया भाई का जन्म जिस दशक में हुआ, वह प्रदेश में और बाहर कई तरक्की पसन्द लोगों के जन्म का दशक रहा। अली सरदार जाफरी, क़ैफी आज़मी, रजिया सज्ज़ाद जहीर, मख्दूम मोइनुद्दीन के भी जन्म का वह दशक रहा है। यह कहना इसलिए लाज़मी है कि आगे चलकर इन सबके किशोर मन को, युवावस्था को एक साथ देश में चल रहे आजादी के संघर्ष, मजदूर-किसान की जद्दोजहद ने अपने आगोश में ले लिया था। आजादी की लड़ाई फिर से संगठित हो चली थी। उसी समय खतरनाक कानून रॉलेट एक्ट लाया गया जिसकी परिणति जलियाँवाला बाग नरसंहार में भी हुई। फिर असहयोग आन्दोलन का दौर आया। देश में ट्रेड यूनियनों का निर्माण शुरू हो गया और तभी तब के रेडिकल स्टूडेण्ट श्रीपाद अमृत डांगे ने एलान किया कि ‘मैं अब तिलक का चेला नहीं, लेनिन को मानने वाला हूं।’

उस मुलाक़ात की याद ताज़ा है जब ज़िया भाई अपने बड़े बुजुर्गो और याददाश्त के सहारे जिन्दगी की किताब के वरक पलट रहे थे। नीलाभ जी के साथ सिविल लाइन्स स्थित उनके प्रकाशन में मैं भी बैठा सुन रहा था। उन दिनों नीलाभ जी, प्रोफेसर ललित उनियाल के साथ इलाहाबाद शहर की मैंपिंग करना चाह रहे थे और कुछ अज़ीम शख्सियतों व शहर के रिश्तों को टटोल रहे थे। ज़िया भाई उन पहलुओं को छू रहे थे जो उनकी जिन्दगी को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढाल रही थी। इलाहाबाद की सेकुलर आबोहवा, उसके तीज-त्योहार, परम्परायें और कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियाँ, सब कुछ एकाकार हो रहा था। उनमें रामदल, शिवकुटी का मेला, मोहर्रम, दधिकान्धों की रस्म, गवर्नमेण्ट प्रेस, इण्डियन प्रेस वर्कर्स यूनियन, कुली यूनियन, किसान संघ, इक्का-तांगा, रिक्शा चालक यूनियन, दुकान मजदूर यूनियन, बीड़ी मजदूर यूनियन के जरिये इलाहाबाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सक्रिय थी और ज़िया भाई सियासत में अपना हाथ खोल रहे थे। आगे चलकर ग्रामीण अंचल में किसान सभा और शहर से बाहर ‘छिवकी आर्डिनेन्स डिपो’ की यूनियन में भी हलचल थी, जिससे उनका वैचारिक, संगठनात्मक जुड़ाव शुरू हो चुका था।

अपनी तरूणाई में वे इस शहर के तेजतर्रार वामपंथी नेताओं से और अन्य शहरों के कामरेडों से सीखते रहे, बहस करते रहे और लोगों को जोड़ते भी रहे। सज्ज़ाद जहीर, कामरेड अशरफ, जे़ड.ए.अहमद, रमेश सिन्हा, आर.डी. भारद्वाज, हर्षदेव मालवीय के अलावा कानपुर से शिव वर्मा, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, मौलाना संत सिंह युसुफ, मऊ के जय बहादुर सिंह, गाजीपुर के सरजू पाण्डे, बनारस के रूस्तम सटिन, उदल से अपनी प्रेरणा ले रहे थे।

गौरतलब है कि जब कम्युनिस्ट पार्टी में नेहरू और आजादी से मोहभंग का राजनैतिक विस्फोट हुआ और महान तेलंगाना उभार की पृष्ठभूमि में शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन हुआ, तो कामरेड पी.सी. जोशी ने इलाहाबाद आकर एलेन गंज में कुछ महीने बिताये। इस दौर में उन्होंने यहां के साहित्यिक, सांस्कतिक व दर्शन के परिवेश को, समाज के द्वंद्वात्मक इतिहास दृष्टि को काफी समृद्ध किया। रघुपति सहाय फिराक़, प्रो.एस.एस. भटनागर, प्रो. भट्टाचार्य, संगम लाल पाण्डेय, प्रो.ए.डी. पंत आदि का जमावड़ा वहां रहता था। ज़िया भाई भी उनमें से एक थे। फिराक़ साहब की अमर ‘हिंडोला’नज़्म उन्हीं दिनों की देन है। वामपंथ की रस्सी में जब गांठ पड़ने लगी तो यह काम लोहिया ने यहां संभाला और विजयदेव नारायण साही, डॉ.रघुवंश, प्रो. राकेश चतुर्वेदी, विपिन अग्रवाल, रामस्वरूप चतुर्वेदी, राम कमल राय के जरिये समाजवादी, वैचारिकी की आधार शिला रखी।

ज़िया भाई की सोच और शख्सियत की एक सीमा थी। वे पार्टी की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकते थे और खुद पार्टी अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के आकलन, मूल्यांकन में, देश की राजसत्ता, कांग्रेस, पूंजी के स्वभाव को लेकर ‘भूल चूक लेनी देनी’ के दरार में फँसती जा रही थी। संवेदनशील लोगों में निष्क्रियता, बेचैनी और छटपटाहट दिख रही थी। लेकिन हम सबके लिए गौरव की बात है और यह दुर्लभ सच्चाई है कि पूरे सौ साल बीत गये पर कामरेड ज़िया-उल-हक ने न तो अपना झंडा बदला, न अपनी पार्टी बदली। न उसूल से समझौता किया, न रास्ते से डगमगाये। बहुत कम लोगों को मालूम है कि पार्टी के आदेश पर कुछ समय ज़िया भाई ने दिल्ली में पार्टी के राष्ट्रीय दफ्तर में सेंट्रल कमेटी के साथ काम किया। वे वहां पर का. रणदिवे, का.राजेश्वर राव, का. पार्वती कृष्णन, का.सुरजीत के साथ बिताये दिनों की याद करते रहे हैं। होली के दिन शीर्ष कामरेडों के रंग खेलने के कौतूहल को वो हंस हंस कर सुनाते रहे हैं।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि युनिवर्सिटी छात्र संघ का अध्यक्ष रहते जब हमने छात्र संघ की ओर से सोवियत विघटन की चुनौतियों पर राष्ट्रीय गोष्ठी की तो उसका उद्घाटन करने महान नेता इ.एम.एस. नम्बूदरीपाद आये। अगले दिन भाकपा (माले) लिबरेशन के का. बृज बिहारी पाण्डे बोले। समापन भाषण सीपीआई के राष्ट्रीय नेता एम. फारूकी को देना था। उनके रहने का इन्तजाम सर्किट हाउस में था पर स्टेशन पर उतरकर मोटर पर बैठते ही बोले, ‘‘मैं कामरेड ज़िया उल हक साहब के यहां ठहरूँगा। मुझे अहसास हुआ कि ज़िया भाई में जमीन और आसमान का कोलाबा मिला देने की ताकत थी। वे तीनों दिन छात्र संघ भवन पर डटे रहे। करारी, कौशाम्बी के परवेज रिज़वी बताते है कि उनके जज्बे और जोश के आगे नौजवान पानी भरते थे। हैदराबाद में ‘इस्कस’ का सम्मेलन होना था। शहर में पोस्टर चिपकाने, परचा बांटने, चन्दा मांगने में वे हम सबसे आगे रहते। यहाँ तक की सभी नौजवानों की टीम को साथ लेकर तीसरे दर्जे में ट्रेन से हैदराबाद गये। जुलूस में चले। नारा लगाया। भाषण दिया। पैकेट और पत्तल में खाया और साथ लौटे।

दरअसल वे इलाहाबाद के राहुल सांकृत्यायन हैं। डा. लाल बहादुर वर्मा ने अपनी किताब ‘इतिहास के बारे में’ इटली के विचारक क्रोचे को उद्धृत किया है कि ‘समस्त इतिहास समकालीन इतिहास है,’ इसी के बरक्स हम देंखे तो ज़िया भाई का पूरा जीवन ही समकालीन रहा, अपने समय सवालों से मुठभेड़ करता हुआ।

पार्टी के विचलन में भी वे अपना रास्ता ‘अप्प दीपो भव’ की तरह गढ़ते दिखे। जब ‘साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चे’ में मुख्य धारा की वामपंथी पार्टियां उ0प्र0 में मुलायम सिंह यादव को अगुवा बनाकर मुहिम चला रही थी ( जिसके एवज में सीपीआई के कई भारी-भरकम दिग्गज नेता समाजवादी पार्टी में चले गये और कुछ बाद में बीएसपी में) तो ज़िया भाई ने  सांप्रदायिकता पर एक मुकम्मल समझदारी के साथ एक वैकल्पिक मंच के साथ अपने को जोड़ाः डा. बनवारी लाल शर्मा, जस्टिस राम भूषण मेहरोत्रा, श्री रवि किरण जैन, प्रो. ओ पी मालवीय, नरेश सहगल, श्री बल्लभ, प्रो. कृष्ण मुरारी, आजादी बचाओ आन्दोलन, इंसानी बिरादरी, स्वराज विद्यापीठ से अपनी गतिविधियां साझा की जो कॉरपोरेट सत्ता के खिलाफ लड़ाई तक गयी।

हमें अच्छी तरह याद है जब इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी नरसंहार, लूट, आगजनी की लपट इलाहाबाद तक आयी तो हम लोगों के साथ खुद जिला कलेक्टर बीएस लाली के पास जाकर उन्होंने पत्रक सौंपा  और जे.के. इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर एम.पी सिंह से कहा कि वो भी दरभंगा कालोनी में उनके साथ बन्दूक लेकर पहरा देंगे; दरभंगा कालोनी में सिक्खों परिवारों की पर्याप्त संख्या है और प्रो. सिंह तब वहीं रहते थे, और रात में हमले का अंदेशा था।

वे 1987 के इलाहाबाद के सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ जुलूस में निकले, तत्कालीन मुख्यमंत्री बीरबहादुर सिंह को कड़ा पत्र लिखा। जब 1993 में एवीबीपी के तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष लक्ष्मी शंकर ओझा ने 26 जनवरी को छात्र संघ भवन पर तिरंगा फहराने के लिए वीएचपी सुप्रीमो अशोक सिंघल को बुलाया तो आइसा नेता लाल बहादुर सिंह ने व्यापक छात्र समर्थन के साथ इसका सशक्त विरोध किया और खुद झंडा फहराने का बहादुराना कार्य अंजाम दिया। इस पर पुलिस ने छात्रों पर बर्बर लाठीचार्ज किया। इसके खिलाफ हुए हस्ताक्षर अभियान में ज़िया भाई का नाम सबसे ऊपर था। (बाद में लाल बहादुर जी छात्र संघ अध्यक्ष निर्वाचित हुए)।

उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के महिला कर्मी के यौन शोषण का विरोध करने वालों में भी वे प्रमुख व्यक्ति थे। सांस्कृतिक केन्द्र की नौकशाहाना निरंकुशता, सत्ता मुखी क्रियाकलापों के विरूद्ध साहित्यकारों, पत्रकारों व लेखकों के साथ वे खड़े रहे। 2001 में अफगानिस्तान, ईरान पर अमरीका ने जब जार्ज बुश के नेतृत्व में एक तरफा युद्ध छेड़ दिया तो हम लोगों ने पूर्व अध्यक्ष शोभनाथ सिंह की स्मृति में अमरीका के विरोध में छात्र संघ भवन पर एक सभा की जिसमें प्रभाष जोशी, योगेन्द्र यादव के साथ वे भी मंच पर थे।

इंसानियत, जम्हूरियत और अक़लियत पर हुए हर जु़ल्म में उनकी आवाज सुनाई दे रही थी। 1983 का नेल्ली हत्याकांड, 1987 का मेरठ, 1989 का भागलपुर, 1992 का मुंबई दंगा, मेरठ मलियाना का कत्लेआम, बाबरी विध्वंस, हर बार जिया भाई बोलते रहे हुकूमत व फिरकापरस्ती के खिलाफ। 2002 के गुजरात के नरसंहार ने उन्हें सबसे ज्यादा विचलित किया पर हताशा के बजाय गुस्से का उबाल था। वे अपनी बाद की पीढ़ियों से जुड़ने को बेताब रहते। शहर की गतिविधियों में उनकी मौजूदगी आम बात थी। संगीत समिति, हिन्दुस्तानी एकेडमी, अंजुमन-ए-रूह-ए-अदब, छात्रसंघ भवन, साहित्य सम्मेलन, निराला सभागार हर जगह ज़िया भाई खडे़- बैठे, बोलते-बतियाते दिखते रहे। सियासी जलसों, जुलूसों में, साहित्यिक सांस्कृतिक गोष्ठियों में, वे अपने कामरेडाना तहजीब के साथ सजीव रहते।

आपको ताज्जुब होगा, संयोग से मैं वहां था, हेस्टिंग्स रोड पर प्रो. नरवने साहब के बंगले पर एक मुख्तसर सा जलसा था, शायद उनके जन्म दिन का। उसमें अटाले की तरफ से एक क्लासिकल सिंगर मुस्लिम महिला आयी थी जिनका गायन था। गायन के बाद ज़िया भाई ने उनसे ख़याल गायकी पर जो चर्चा की वह चौंका देने वाला थी। शायद यही सच्चे वामपंथ के पहचान का हिस्सा था जो राजनीति, साहित्य, समाज, संगीत व संस्कृति पर एक समग्र दृष्टि रखता है। इसकी झलक हमें श्री पाद अमृत डांगे की रचनाओं व नम्बूदरीपाद के मलयालम साहित्य व संगीत के समालोचनाओं में दिखती है।

ज़िया भाई के आंखों की रोशनी कुछ मद्धम पड़ी और शरीर कमजोर होने लगा तो उन्होंने एक नया रास्ता निकाला। हम लोगों के वरिष्ठ व प्रबुद्ध साथी हिमांशु रंजन जी से उन्होंने मदद ली। सुबह 8 से साढ़े 9 बजे उन्हें अपने घर पर बुलाते। अंग्रेजी-हिन्दी-उर्दू के आठ दस अखबार रहते। अंग्रेजी-हिन्दी के प्रमुख संपादकीय, लेख-खबर पढ़वाते, ध्यान से सुनते और निशान लगवाते। फिर उसमें से चुनते, काटकर फोटो स्टेट करवाते और झोले में रखकर शहर में बांटने निकल जाते। दुर्लभ, अप्राप्य पुस्तकें, जो बुकस्टाल वाले नहीं मंगवाते थे, वो ज़िया भाई के झोले में पड़ी रहतीं और उन्हें वे साथियों को बेचते, बांटते। शहर के बुद्धिजीवियों, ट्रेड यूनियनिस्टों, युवा तुर्को की तरह वह कभी कॉफी हाउस के जमावड़े में नहीं बैठे। उन्हें अक्सर सिविल लाइंस में व्हीलर बुक शाप के किताबों की अटारी में विचरण करते या उसके पुस्तक खोजी मैनेजर गुप्ताजी से गुफ्तगू करते देखा जा सकता था। वे लक्ष्मी बुक हाउस, युनिवर्सल पर किताबें, पत्रिकायें, अखबार पलटते दिख जाते थे।

हर पीढ़ी से उनकी लाग डाट थी। यारी थी। उमेश नारायण शर्मा, सुनीता सिंह, अली जावेद, विभूति राय, चितरंजन सिंह, अली अहमद फातमी, रामजी राय, सुरेन्द्र राही, अविनाश मिश्रा, आलोक राय, अश्शू भाई, जफर, कमर आगा, मो असलम, संतोष भदौरिया, आनन्द मालवीय, असरार गांधी सबके वे अपने थे। सौ बरस के जिया भाई अपने से 70 साल, 60 साल, 50 साल छोटों से भी लपटकर लपक कर मिले। बातें करते रहे। राय देते लेते रहे। जफर बख्त, उत्पला, पदमा सिंह, अंशु मालवीय, सुबी, डा. सूर्यनारायण, परवेज, शाहिद, रिज़वान रिज़वी, के.के. पाण्डेय, संध्या नवोदिता, सीमा आजाद सभी के युवा मित्र हैं जिया भाई।

राजनीतिक बदलाव को लेकर उन्होंने कभी मुगालता नहीं पाला। संपूर्ण क्रान्ति का खिचड़ी विप्लव, राजा के फकीर बन जाने का तिलस्म, या अन्ना आन्दोलन। वे किसी से मुतमईन नहीं थे। उन्हें हरी घास में आहिस्ता-आहिस्ता बढने वाले जहरीले सांप की तरह भाजपा की बढ़त दिख रही थी। वे सिर्फ और सिर्फ वामपंथ की अगुवाई में जनता के व्यापक मोर्चे का आगे बढ़ते देखना चाहते हैं। उनके सपने में लाल किले पर लाल झंडा और जमीन पर एक समावेशी समाज की परिकल्पना है।

इस पूरे दौर में उन्हें अपनी जीवन संगिनी व मशहूर चिकित्सक डा. रेहाना बशीर का हर कदम पर साथ मिला। आज उनके नजदीकी के.पी.अग्रवाल, अकील रिजवी, प्रो. जी.पी. सिंह नहीं है। कामरेड मंगल सिंह भी नहीं जो बहुत कुछ बताते पर प्रो. कृष्ण मुरारी, श्री राजकुमार जैन, का. नसीम अंसारी बता सकते हैं कि जानसेन गंज के सुभाष मुखर्जी हाल के पार्टी दफ्तर की मीटिंगों में वे कैसे पेश आते थे। लाल झंडे की सभाओं में उनकी भागीदारी क्या रही। कामरेड हरिश्चन्द्र द्विवेदी बता सकते हैं कि वाम दलों के संयुक्त कार्यवाहियों में उनका क्या नजरिया रहता था। मुझे तो लग रहा है कि 27 फरवरी 1931 को आजाद के शहादत के दिन अल्फ्रेड पार्क की ओर जो कदम उनके बढ़े थे, वे अभी रूके नहीं। चैराहे आते रहे। रास्ते फूटते रहे। राहों से राहें निकलती रही। पर ज़िया भाई का दायरा बड़े से बड़ा होता रहा। अपनी पार्टी के अगुवा से वे वाम मोर्चे के चहेते बने और वहां से आम जनता के व्यापकतम मोर्चों के महबूब रहनुमा। एक ही सपना लेकर जिये-सच्चा लोकतंत्र जिसकी बुनियाद में हो संविधान, सद्भाव, सेकुलरिज्म और जेण्डर जस्टिस। उनके विचार और कर्म, दोनों का संदेश यही है।

चे ग्येवारा ने लिखा है, “हमें लातीनी अमरीका के महान क्रान्तिकारी होसे मार्ती का कथन याद रखना चाहिये कि खतरे के समय गरीब जनता की समस्याओं को हल करने के लिये उसके पास जाना चाहिये। भविष्य को निराशा के साथ नहीं देखना चाहिये और पुराने खयाल को भूलकर लोगों से और करीब जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए।”

ऐसे हैं हमारे मित्र मार्ग दर्शक और शिक्षक, हमारे अज़ीज़ कामरेड ज़िया-उल-हक़ साहब।।

पीछे का सौ साल मुबारक। आगे का हर साल मुबारक।।


(के.के.रॉय इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं। फिलहाल पीयूसीएल से संबद्ध कमल भाई इलाहाबाद हाईकोर्ट में पब्लिक इंटरेस्ट अधिवक्ता हैं।)

* इसस लेख की मुख्य तस्वीर और ज़िया भाई की निजी तस्वीरें समकालीन जनमत से साभार।

इसी के साथ आप  देख सकते हैं सिनेमा ऑफ रेज़िस्टेंस के संयोजक संजय जोशी द्वारा ज़िया भाई पर निर्मित एक डॉक्यूमेंट्री-