प्रधानसेवक जी! कारवाँ के पत्रकारों की पिटाई का प्रयोग कौन कर रहा है?  


जज लोया शोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ का मामला सुन रहे थे जिसमें भाजपा नेता अमित शाह 2014 में एक अभियुक्त थे। जज लोया के निधन के बाद नए जज ने कार्यभार संभाला तो अमित शाह को इस मामले से बरी कर दिया गया था जो अब केंद्रीय गृह मंत्री हैं।  दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृहमंत्री को रिपोर्ट करती है और कारवां के रिपोर्टर की पिटाई एसीपी स्तर का अधिकारी कर रहा है। आम तौर पर सिपाही यह सब करते हैं। कई बार जानबूझकर, कई बार मूर्खता में और कभी-कभी अफसरों के इशारे पर। 


संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
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.…….और इस बीच अर्थव्यवस्था कहां फिसलती जा रही है!

 

देश बदल गया: यह रहा सबूत, द टेलीग्राफ की आज की पहली खबर का शीर्षक यही है। इसमें बताया गया है कि भूख के मामले में हम अपने पड़ोसी देशों से भी खराब स्थिति में हैं। बांगलादेश भारत से आगे है। यह दिलचस्प है कि बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ रोकने के नाम पर भारत में तमाम नौटंकी और राजनीति हुई। हालांकि यह राजनीति बंगाल चुनाव को ध्यान में रखकर है। लेकिन सीएए आया और उसके विरोध जैसा तमाशा हुआ, उससे राजनीति हुई और उसी विरोध के दौरान कथित रूप से दिल्ली दंगे की साजिश हुई। 

जो सरकार और पुलिस दंगे को नहीं रोक पाई, हताहतों को समय पर राहत पहुंचाने में बुरी तरह नाकाम रही, पीडि़तों को क्या राहत मिला या दिया यह बताने से ज्यादा दिलचस्पी साजिश रचने वालों की तलाश करने में ले रही है। दंगे की साजिश में जिन लोगों को पकड़ा जा रहा है – उन्हें फंसाने का कारण ज्यादा लोग जानते हैं दंगे में शामिल होने की जो साजिश बताई जा रही है उसपर यकीन करना मुश्किल है। दूसरी ओर भूख सूचकांक के मामले में बांग्लादेश ने अपनी स्थिति बेहतर कर ली या यूं कहिए कि भारत ने खराब कर ली। 

दूसरी खबर दिल्ली के एक थाने में पत्रकार की पिटाई की है। मुझे याद नहीं आता है कि पहले कभी दिल्ली में अपना काम कर रहे किसी पत्रकार को दिल्ली के किसी थाने में या किसी पुलिस वाले द्वारा पीटे जाने की कोई खबर पढ़ी हो। पत्रकारों की पिटाई वैसे तो आम है लेकिन दिल्ली में कम से कम मैंने ऐसा नहीं सुना था। यह दिलचस्प है कि पुलिसियों ने ही कहा, आपको पता नहीं है कि देश बदल गया है। द टेलीग्राफ ने अपनी खबर में बताया है कि दिल्ली पुलिस के एसीपी अजय कुमार पर जिस पत्रकार को लात-घूंसे से मारने का आरोप है वह कारवां पत्रिका से जुड़ा हुआ है और कारवां के कुछ पत्रकारों को पुलिस ने पहले भी निशाना बनाया है। अखबार ने लिखा है कि कारवां ने जज बीएच लोया की मौत से जुड़े विवाद पर विस्तार से लिखा है। 

जज लोया शोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ का मामला सुन रहे थे जिसमें भाजपा नेता अमित शाह 2014 में एक अभियुक्त थे। जज लोया के निधन के बाद नए जज ने कार्यभार संभाला तो अमित शाह को इस मामले से बरी कर दिया गया था जो अब केंद्रीय गृह मंत्री हैं।  दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृहमंत्री को रिपोर्ट करती है और कारवां के रिपोर्टर की पिटाई एसीपी स्तर का अधिकारी कर रहा है। आम तौर पर सिपाही यह सब करते हैं। कई बार जानबूझकर, कई बार मूर्खता में और कभी-कभी अफसरों के इशारे पर। 

लेकिन एसीपी किसी पत्रकार को पीटता है और वह कारवां का रिपोर्टर है तो मामला संयोग का नहीं प्रयोग का लगता है। वैसे ही जैसे भाजपा के 302 सांसद रहते हुए अमित शाह को गृहमंत्री बनाना जबकि 125 करोड़ की आबादी में से किसी को बनाया जा सकता था। एक तरफ अमित शाह को गृहमंत्री बनाना, दूसरी तरफ जज लोया की मौत की जांच को रोकने के तमाम उपाय करना और उससे संबंधित खबर छापने वाली पत्रिका के रिपोर्टर की बार-बार पिटाई संयोग नहीं हो सकती है। 

अमूमन किसी दागी को मंत्री नहीं बनाया जाता है और आरोप लग जाए तो उसे पद से हटा दिया जाता है ताकि जांच निष्पक्ष हो सके। राजनाथ सिंह कह चुके है कि भाजपा में इस्तीफे नहीं होते। और अमित शाह चूंकि जज लोया की हत्या से बरी हो चुके थे इसलिए उन्हें गृहमंत्री बनाया ही जा सकता था। विरोध उन्हें ही करना था जो गृहमंत्री पद के दावेदार थे। पर ऊपर (के पद पर) भेज दिया गया। अंग्रेजी में इसे किक अप कहते हैं। 

प्रधानमंत्री से अमित शाह की करीबी जगजाहिर है और वे भी प्रयोग करने के आदी है। उन्होंने साध्वी प्रज्ञा को टिकट देकर सांसद बनवा दिया। जबकि उनके खिलाफ मामला था और सांसद बनने के बाद निष्पक्ष जांच कैसे होगी आ समझ सकते हैं। एक तरफ तो मीडिया इस सरकार के खिलाफ खबर नहीं छापता और जो छापता है उससे इस तरह हिसाब बराबर किया जाता है। दावा ऊपर से कि भाजपा में सब ठीक है। कोई भ्रष्टाचार नहीं है।    

वैसे ये सब पुरानी बातें हैं और ऐसे कितने ही मामले हैं। फिलहाल कारवां के पत्रकारों पर दिल्ली में पुलिस ज्यादाती के मामले बताता हूं जिसका उल्लेख आज द टेलीग्राफ की खबर में है। कल के इस मामले में पुलिस ने इस रिपोर्टर, अहन पेनकर को पीटने के अलावा फोन को जबरन ऑनलॉक करवाया और प्रदर्शन की सारी तस्वीरें डिलीट कर दीं। सोशल मीडिया पर कल खबर थी कि फोटो डिलीट ही नहीं की गई सुनिश्चित किया गया कि उसे रीट्राइव नहीं किया जा सके और गूगल ड्राइव आदि पर भी चेक किया गया। 

अगर यह सही है तो प्रदर्शन की फोटो डिलीट करने का मकसद यही हो सकता है कि जनता को सही खबर न मिले जो प्रेस की स्वतंत्रता का मामला भी है। यहां रिपोर्टर की पिटाई दूसरा लक्ष्य लगता है। इससे पहले अगस्त में कारवां के तीन पत्रकारों को उत्तर पूर्व दिल्ली में भीड़ ने पीटा था। वहां फरवरी में दंगा हुआ था जिसमें 53 लोग मारे गए थे। तब पुलिस ने एक बयान में कहा था, “(द टेलीग्राफ की खबर से अनुदित) आज दोपहर कुछ पत्रकार सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील क्षेत्र में तस्वीरें ले रहे थे और इंटरव्यू कर रहे थे। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। स्थिति को शांत करने के लिए पुलिस ने द्रुत कार्रवाई की।“      

2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिल्ली कार्यालय के बाहर एक विरोध के दौरान कारवां के लिए काम करने वाले एक फ्रीलांस फोटोग्राफर राहुल मीसरगंड को दौड़ाया गया और डंडे से मारा गया था तथा उनके कैमरा तोड़ दिया गया था।

आप समझ सकते हैं कि फर्जी मुठभेड़ में हत्या के आरोपी को केंद्रीय गृहमंत्री बनाना प्रयोग नहीं राजनीति है और उसके आगे जो हो रहा है वह भी प्रयोग नहीं है। ना ही सीएए आंदोलन प्रयोग था ना ही उसे लंबा चलने देना। और इन प्रयोगों में देश की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से फिसल रही है और भूख सूचकांक में हम लगभग सबसे नीचे हैं। पर ख्वाब पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दिखाया गया था जो समय के साथ अपने आप हो जाना था। हालांकि नोटबंदी और जीएसटी जैसे प्रयोग के बाद नहीं होना था। कोरोना से जिस ढंग से निपटा गया उसके बाद सरकार की क्षमता-योग्यता पर भी कोई शक नहीं रह गया।  

लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार और श्रेष्ठ अनुवादक हैं.