1857 में बादशाह ज़फ़र का ऐलान- “सब हिंदुस्तानी भाई-भाई, छोटे बड़े का भेद नहीं!”

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10 मई 1857 से शुरू हुए प्रथम स्वाधीनता संग्राम की याद में विशेष

 

10 मई 1857 को मेरठ से भड़का विद्रोह, अंग्रेज़ों की नज़र में सिर्फ़ सिपाही विद्रोह था, लेकिन वास्तव में इसके पीछे एक अखिल भारतीय तैयारी थी। विद्रोह की तिथि तिथि 31 मई 1857  निर्धारित की गयी थी, लेकिन 29 मार्च को ही कलकत्ता के बैरकपुर परेड ग्राउंड में मंगल पाण्डेय ने एक अंग्रेज़ लेफ्टिनेंट पर गोली चला दी थी और विद्रोह का आह्वान कर दिया। 9 अप्रैल को मंगल पाण्ड़ेय को फाँसी दे दी गई। बहरहाल, 10 मई को मेरठ से चले सैनिकों को किसानों, मज़दूरो और दस्तकारों का भी साथ मिला और बहादुर शाह ज़फ़र को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया गया।

इस मौक़े पर बहादुर शाह ज़फ़र की ओर से जो ऐलाननामे या घोषणापत्र जारी हुए, वे बताते हैं कि इस क्रांति के गर्भ में कैसे हिंदुस्तान का सपना पल रहा था। इस पहले घोषणापत्र की भाषा देखिए–

ऐ हिंदोस्तान के फरजंदो! अगर हम इरादा कर लें, तो बात की बात में दुश्मन का खात्मा कर सकते हैं। हम दुश्मन का नाश कर डालेंगे और अपने धर्म और अपने देश को, जो हमें जान से भी ज्यादा प्यारा है, खतरे से बचा लेंगे।‘

कुछ समय बाद सम्राट की ओर से एक दूसरा ऐलान प्रकाशित हुआ, जिसकी प्रतियां सारे भारत के अंदर, यहां तक कि दक्षिण के बाजारों और छावनियों में भी हाथों हाथ बँटती हुई पाई गईं। इस ऐलान में लिखा था-

‘तमाम हिंदुओं और मुसलमानों के नाम हम महज अपना धर्म समझकर जनता के साथ शामिल हुए हैं। इस मौके पर जो कोई कायरता दिखलाएगा या भोलेपन के कारण दबागाज फिरंगियों के वायदों पर ऐतबार करेगा, यह जल्दी ही शर्मिंदा होगा और इंगलिस्तान के साथ अपनी वफादारी का उसे वैसा ही इनाम मिलेगा, जैसा लखनऊ के नवाबों को मिला। इसके अलावा इस बात की भी जरूरत है कि इस जंग में तमाम हिंदू और मुसलमान मिलकर काम करें, और किसी प्रतिष्ठित नेता की हिदायतों पर चलें, इस तरह कि उनका रूतबा और शान बढ़े। जहां तक मुमकिन हो सके, सबको चाहिए कि इस ऐलान की नकलें करके आम जगहों पर लगा दें।’

तीसरा ऐलान बहादुर शाह की तरफ से बरेली में प्रकाशित हुआ जिसमें लिखा था-

‘हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों उठो, भाइयो उठो, खुदा ने जितनी बरकतें इंसान को अता की हैं, उनमें सबसे कीमती बरकत आजादी है। क्या वह जालिम, जिसने धोखा दे-देकर यह बरकत हमसे छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा? क्या खुदा की मर्जी के खिलाफ इस तरह का काम हमेशा जारी रह सकेगा? नही, नही फिरंगियों ने इतने जुल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का प्याला लबरेज हो चुका है। यहां तक कि अब हमारे पाक मजहब को नाश करने की नापाक ख्वाहिश भी उनमें पैदा हो गयी है। क्या तुम अब भी खामोश बैठे रहोगे? खुदा अब यह नही चाहता कि तुम खामोश रहो, क्योंकि उसने हिंदुओं और मुसलमानों के दिलों में अंग्रेजों को अपने मुल्क से बाहर निकालने की ख्वाहिश पैदा कर दी है और खुदा के फज़ल और तुम लोगों की बहादुरी के प्रताप से जल्दी ही अंग्रेजी को इतनी कामिल शिकस्त मिलेगी कि हमारे इस मुल्क हिंदोस्तान में उनका ज़रा भी निशान न रह जाएगा। हमारी इस फौज में छोटे और बड़े की तमीज भुला दी जाएगी और सबके साथ बराबरी का बर्ताव किया जाएगा, क्योंकि इस पाक जंग में अपने धर्म की रक्षा के लिए जितने लोग तलवार खीचेंगे, वे सब एक समान यश के भागी होंगे। वे सब भाई-भाई हैं, उनमें छोटे बड़े का कोई भेद नही। इसलिए मैं फिर अपने तमाम हिंदी भाईयों से कहता हूं, उठो और ईश्वर के बताए हुए इस परम कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए मैदाने-जंग में कूद पड़ो।

यह सच है कि 1857 की क्रांति विफल हो गई। लेकिन इसने कंपनी राज का ख़ात्मा तो कर ही दिया था। भारत पर सीधे ब्रिटिश महारानी का शासन हो गया जिसने प्रजा को जा क़ानूनी अधिकार दिए, उन्हें ही हथियार बनाकर आज़ादी की नई जंग शुरू हुई। हिंदू-मुस्लिम एकता इसका मुख्य तत्व था जो बहादुर शाह ज़फ़र के ऐलान में गूँजी थी।

1857 का पैग़ाम था- सब हिंदुस्तानी भाई-भाई हैं। उनमें छोटे बड़े का भेद नहीं।

 


 

 


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