यहां से देखाेः CAA पर अखिलेश और मायावती की चुप्पी इनकी राजनीति का सांस्कृतिक संकट है

जितेन्‍द्र कुमार
काॅलम Published On :


नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे हैं लेकिन इस प्रदर्शन से जान-माल का सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश को हुआ है। 20 दिसंबर से हो रहे विरोध प्रदर्शन में आधिकारिक रूप से अब तक कम से कम 19 लोगों की जान गई है।

पहले दिन हुए प्रदर्शन के बाद राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुंचाने वालों से ‘बदला’ लिया जाएगा। उनका कहना था, ‘सार्वजनिक संपत्ति के नुक़सान की भरपाई के लिए जिम्मेदार लोगों की संपत्ति ज़ब्त की जाएगी।’ इसी का परिणाम था कि राज्य सरकार ने सैकड़ों लोगों को ‘दंगा भड़काने’ और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप में लगभग दो करोड़ रुपए के नुकसान की भरपाई का नोटिस जारी कर दिया है। सरकार की तरफ से यह भी आदेश जारी हुआ है कि अगर यह जुर्माना नहीं भरा गया तो उन ‘दंगाइयों’ की संपत्ति ज़ब्त कर ली जाएगी। उत्तर प्रदेश में सीएए का विरोध करने की वजह से हज़ारों लोगों को हिरासत में लिया गया है जिनमें से अधिकतर मुसलमान हैं।

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जिस राज्य में इस कानून से सबसे ज्यादा हिंसा हुई है उस राज्य के दो सबसे महत्वपूर्ण विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) यह लड़ाई ट्विटर पर लड़ रहे हैं जबकि संगठन के हिसाब से खत्म हो चुकी कांग्रेस पार्टी एनआरसी-सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में हर जगह शामिल हो रही है। पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में दिल्ली से चलकर लखनऊ पहुंच जा रही हैं जबकि लखनऊ में ही मौजूद अखिलेश यादव और मायावती के पास वक्त नहीं होता है कि वे पूरे देश में चल रहे आंदोलन कर रहे लोगों के साथ जुड़ें। बसपा प्रमुख मायावती आज भी सीएए और एनआरसी की लड़ाई ट्विटर पर ही लड़ रही हैं। मायावती जी जितना परेशान सीएए और एनआरसी से नहीं हैं उससे ज्यादा परेशान चंद्रशेखर आज़ाद के इस आंदोलन में शामिल होने से हैं।

अखिलेश यादव ने पहली बार विधानसभा के विशेष सत्र के दौरान अपने विधायकों के साथ सीएए और एनआरसी के खिलाफ साइकिल यात्रा निकाली थी। इससे पहले तक वे इस काले कानून का ट्विटर पर ही विरोध कर रहे थे। पिछले दो हफ्ते से उत्तर प्रदेश में इस कानून का विरोध कर रहे लोगों में अधिकतर मुसलमानों के होने और मायावती व अखिलेश की आंशिक चुप्पी के कारण हिन्दुओं के एक तबके में यह मैसेज गया कि नागरिकता संशोधन कानून सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ है। बीजेपी की पुरजोर कोशिश रही है कि सीएए का मसला किसी भी तरह हिन्दू बनाम मुसलमान का हो जाए। उत्तर प्रदेश के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की उदासीन चुप्पी से बीजेपी को इसे पोलराइज़ करने में सफलता मिलने लगी है। यह बीजेपी की इसी रणनीति का परिणाम है कि प्रदर्शन में अधिकतर गिरफ्तार लोग मुसलमान हैं। बीजेपी मुसलमानों को गिरफ्तार करके पोलराइज़ हो चुके हिन्दुओं में यह संदेश भी देना चाह रही है कि इस कानून का सिर्फ मुसलमान विरोध कर रहे हैं।

हकीकत में जिस रूप में इस कानून का उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक विरोध हो रहा है, यह इसे साबित करने के लिए काफी है कि इस कानून का सिर्फ मुसलमानों से नहीं लेना-देना नहीं है। सीएए और एनआरसी का कम से कम सौ से ज्यादा विश्वविद्यालयों में विरोध हो रहा है। अगर सरकार के इस सांप्रदायिक सोच को समझने की कोशिश करें तो यह बात बड़ी आसानी से समझ में आ सकती है कि जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को छोड़कर देश के किस विश्वविद्यालय में मुसलमान छात्र-छात्राओं की बहुतायत है जिससे कि वे सड़क पर उतर जाएं! इसलिए देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में हो रहे प्रदर्शन का सीधा सा मतलब यह है कि सरकार पुरजोर कोशिश कर रही है कि यह मामला हिन्दू-मुस्लिम हो लेकिन इसमें अभी तक उसे सफलता हाथ नहीं लगी है।

समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी के नेताओं की सबसे बड़ी परेशानी यही है कि वे संस्कृति के सवाल को ठीक से समझ ही नहीं पा रहे हैं। समाजवादी पार्टी डॉक्टर राममनोहर लोहिया के सांस्कृतिक कार्यक्रम से आगे जाने की बात को तो छोड़ ही दीजिए, वहां से भी पीछे चली गई है जबकि बीजेपी ने पूरी राजनीति को सांस्कृतिक अमली जामा पहनाकर राजनीति पर कब्जा कर लिया है।

उदाहरण के लिए, डॉक्टर लोहिया का राम मेला, सीता मेला या कृष्ण मेला सांस्कृतिक मोबिलाइजेशन के लिए किया गया एक बेहतर प्रयास था। जिस समय लोहिया इस तरह के प्रयोग कर रहे थे, उस समय जनता की गोलबंदी के लिए सांस्कृतिक आयोजन द्वारा आम लोगों को अपने साथ जोड़ना भी एक उद्देश्य था। लोहिया के इस सांस्कृतिक आयोजन से मुसलमान नाराज नहीं होते थे, बल्कि दूसरे समुदाय के साथ सामाजिक स्तर पर उनके रिश्ते जुड़ते थे। लोहिया के बाद समाजवादी खेमे ने खुद को पूरी तरह सांस्कृतिक आयोजनों से काट लिया जबकि बीजेपी ने पूरे उत्तर भारत में राम को हिन्दू संस्कृति का महानायक बना दिया।

कल, 31 दिसंबर को इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक साक्षात्कार में अखिलेश यादव से पूछा गया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि सपा इस मसले का विरोध उस रूप में इसलिए नहीं कर पा रही है क्योंकि उसे लगता है कि जब 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगे का विरोध करने पर मुसलमानपरस्त पार्टी होने का आरोप उस पर लग गया था? इसके जवाब में अखिलेश यादव कहते हैं, “बीजेपी वैसे षडयंत्रकारी काबिल लोगों से भरी पड़ी है। भारतीय जनता पार्टी कभी भी एक्सप्रेस वे के मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ सकती है। उस पार्टी ने लोगों को शौचालय दिया है, लोग उसके बारे में ही बात कर रहे हैं जबकि हमने लैपटॉप दिया था। लेकन जनता लैपटॉप के बारे में बात नहीं करती है… हमारी पार्टी किसी भी आंदोलन में पीछे नहीं है। हम सबसे आगे खड़े होकर लड़ाई लड़ रहे हैं।”

अब इस सवाल और जवाब को देखें तो लगता है कि अखिलेश यादव को इस पूरे मामले में वस्तुस्थिति की बिल्कुल जानकारी नहीं है। अगर वे खुद कह रहे हैं कि लोग लैपटॉप नहीं शौचालय के बारे में बात कर रहे हैं तो उन्हें एक राजनीतिक पार्टी के रूप में जनता को समझाना चाहिए कि किस चीज की 21वीं सदी में ज़रूरत है लेकिन यह बताने में उनकी पार्टी पूरी तरह असफल रह जा रही है।

आज जो स्थिति बन गई है उसमें एक राजनीतिक दल के रूप में इसकी सख्त जरूरत है कि जब तक इस मसले को भाजपा सांप्रदायिक रूप दे, इससे पहले इसे मास आंदोलन में तब्दील कर दिया जाए। राजनीति में अवसर तो आते ही रहते हैं, सबसे अहम सवाल यह है कि किस राजनीतिक दल ने उस अवसर का अपने हित में कितना बेहतर इस्तेमाल किया। अभी तक यही लग रहा है कि उत्तर प्रदेश में इसका सबसे बेहतर इस्तेमाल कांग्रेस पार्टी ने किया है जिसके पास कुछ भी नहीं है जबकि मायावती और अखिलेश यादव की चुप्पी ने इस आंदोलन और लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुंचाया है।


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