यहां से देखाे: महाराष्ट्र में कांग्रेस को शिवसेना का साथ क्यों देना चाहिए

जितेन्‍द्र कुमार
काॅलम Published On :


महाराष्ट्र का चुनाव परिणाम आए हफ्ता भर हो गया लेकिन सरकार बनाने को लेकर अभी तक विजेता गठबंधन की तरफ से ठोस पहल शुरू नहीं हुई है, बल्कि उलटे मुख्यमंत्री पद को लेकर तलवारें खिंच गई हैं। जबकि चुनाव से पहले ही कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) तथा भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना मिलकर एक साथ चुनाव मैदान में उतरी थीं। बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत है लेकिन दोनों के बीच की रस्साकशी देवेन्द्र फड़नवीस को कार्यकारी मुख्यमंत्री बनने के लिए बाध्य किए हुए है। दूसरी तरफ हरियाणा में सत्ता से छह विधायक कम रहने के बावजूद मनोहर लाल खट्टर फिर से जोड़-तोड़ करके मुख्यमंत्री बन गए हैं।

महाराष्ट्र में शिवसेना के विधायकों की संख्या 56 है जबकि बीजेपी के 105 विधायक हैं। शिवसेना का कहना है कि चुनाव से पहले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने सत्ता में ’फिफ्टी-फिफ्टी’ भागीदारी का वायदा किया था। फिफ्टी-फिफ्टी का मतलब यह है कि पांच साल के कार्यकाल में शिवसेना ढाई साल मुख्यमंत्री के पद पर रहेगी और बाकी ढाई साल बीजेपी के मुख्यमंत्री होंगे। लेकिन यह बात बीजेपी मानने को तैयार नहीं है। इसी बात को लेकर पिछले छह दिनों से दोनों दलों के बीच घमासान मची है और दोनों दलों के नेताओं ने एक दूसरे के खिलाफ खुलकर बोलना शुरू कर दिया है।

कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन को कुल 98 सीटें मिली हैं जिसमें 54 एनसीपी को और 44 कांग्रेस पार्टी को मिली हैं। चुनाव परिणाम के तत्काल बाद एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने कहा कि उनकी पार्टी सरकार बनाने की कोशिश नहीं करेगी, लेकिन बाद के घटनाक्रम में मंगलवार को पार्टी प्रवक्ता नवाब मलिक ने कहा कि अगर बीजेपी बहुमत साबित करने में असफल रही तो उसकी पार्टी एक वैकल्पिक सरकार बनाने की दिशा में पहल करेगी। अगर नवाब मलिक की बातों को गंभीरता से लिया जाए तो कहा जाना चाहिए कि या तो कांग्रेस-एनसीपी किसी न किसी रूप में या शिवसेना को सरकार बनाने में मदद करेगी या फिर शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाएगी।

कांग्रेस के इतिहास को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इसकी संभावना नहीं के बराबर है क्योंकि कांग्रेस आजतक खुलेआम किसी सांप्रदायिक राजनीतिक पार्टी के साथ मिलकर सरकार का हिस्सा नहीं रही है। कहने के लिए कहा जा सकता है कि केरल में वह इंडियन मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चलाती रही है लेकिन वहां आईएमएल जूनियर पार्टनर है जबकि महाराष्ट्र में कांग्रेस जूनियर पार्टी के रूप में होगी, जो किसी भी रूप मे कांग्रेस पार्टी को स्वीकार नहीं होगा।

आज की परिस्थिति में कांग्रेस के लिए शिवसेना को सरकार बनाने में प्रत्यक्ष तो छोड़िए अप्रत्यक्ष रूप से भी समर्थन करना वैचारिक रूप से बहुत ही चुनौती भरा कदम होगा। देश के अधिकांश बुद्धिजीवी इस तरह के किसी भी गठबंधन का विरोध करेंगे क्योंकि शिवसेना का इतिहास उसके किए कृत्य का गवाह है जिसमें उसके दामन पर तरह-तरह के छींटे हैं। फिर भी इसे अगर एक रणनीतिक कदम की तरह देखा जाए, तो क्या इसकी संभावना को पूरी तरह नकारना खराब रणनीति नहीं कही जाएगी ?

मान लिया जाए कि सरकार बनाने की सारी कवायद के बाद भी बीजेपी को शिवसेना समर्थन नहीं देती है तो क्या वहां विधानसभा को संस्पेंशन मोशन में रखा जाना चाहिए या फिर सरकार बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए? अगर शिवसेना के 56 विधायकों और एनसीपी के 54 विधायकों को एक साथ कर दिया जाय तो दोनों की संख्या 110 हो जाती है जो बहुमत से 36 कम है और कांग्रेस पार्टी उस सरकार को बाहर से समर्थन दे दे तो बीजेपी को सत्ता में आने से रोका जा सकता है। हो सकता है कि बीजेपी, उसके सहयोगी या फिर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी कांग्रेस पार्टी के इस रूख की कटु आलोचना शुरू कर दें, तो क्या यह सवाल बीजेपी से नहीं पूछा जा सकता है कि जिस दुष्यंत चौटाला के खिलाफ उसने मोर्चा खोला था उसी के साथ मिलकर कैसे मनोहर लाल खट्टर ने सरकार बना ली।

कहा जाता है कि राजनीति में न स्थायी शत्रु होते हैं और न ही स्थायी मित्र होते हैं। अगर इस बात को सही माना जाए तो हम कह सकते हैं कि शिवसेना से ज्यादा स्थायी मित्र बीजेपी का आजतक कोई नहीं रहा है लेकिन आज मुख्यमंत्री पद के लिए जिस तरह खींचातानी हो रही है उससे लगता ही नहीं है कि शिवसेना बीजेपी की सबसे विश्वसनीय और वैचारिक सहयोगी रही है।

जहां तक राजनीति में स्थायी दुश्मनी की बात है तो हम जानते हैं कि जातिगत दुश्मनी स्थायी हो सकती है लेकिन राजनीतिक दुश्मनी समय, काल और परिस्थिति पर निर्भर करती रही है। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े नाम लालू यादव ने अपनी पहली सरकार बीजेपी के समर्थन से चलायी थी जिसे भाजपा बाहर से समर्थन दे रही थी। बाद के दिनों में जब बीजेपी ने अपना एजेंडा बदलना शुरू किया तो लालू यादव ने उसके प्रतिकूल स्टैंड लिया और बाद में धर्मनिरपेक्षता के सबसे चमत्कारिक पुरुष बनकर उभरे।

उदाहरण के लिए, भारतीय मध्यम वर्ग के लिए मोदी से पहले तक के सबसे लोकप्रिय चेहरे अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी पार्टी के इस फैसले का समर्थन किया था। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में मायावती के साथ हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद बीजेपी ने बसपा को जब समर्थन दिया था तो बीजेपी के कोर वोटर भी इससे काफी नाराज थे लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी ने संसद में ऑन रिकार्ड कहा था कि बड़े कांटे को निकालने के लिए हमने छोटे कांटे की सहायता ली है। जबकि हकीकत यह है कि बीजेपी को न समाजवादी पार्टी पच रही थी और न ही बहुजन समाज पार्टी। फिर भी मुलायम सिंह की बढ़ती ताकत को कम करने के लिए बीजेपी ने मायावती को मुख्यमंत्री बनवाया, लेकिन कुछ ही महीनों मे मायावती की सरकार गिरा दी गई।

आज के दिन देश के सामाजिक ताना-बाना को सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय जनता पार्टी पहुंचा रही है या दूसरे शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि देश में लोकतांत्रिक संरचना को सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी के कारण हो रहा है। अगर उसके दैत्याकार स्वरूप को कमजोर करने में शिवसेना जैसे उसके सहयोगी को बीजेपी की छाया से बाहर निकाला जा सकता है तो इससे लोकतंत्र मजबूत ही होगा जिसका असर दीर्घकालीन होगा।

इसलिए जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि शिवसेना सांप्रदायिक पार्टी है उससे कांग्रेस को हमेशा ही दूरी बनाकर रखना चाहिए वे इस बात को पूरी तरह भूल जा रहे हैं कि शिवसेना को मुबंई में इतना खतरनाक स्वरूप पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ही दिया था जब दत्ता सामंत के नेतृत्व में लगातार मजबूत हो रहे मजदूरों के आंदोलन को खत्म करने के लिए उन्होंने बाल ठाकरे की मदद की थी।


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