यहां से देखाे : JNU सिर्फ विश्वविद्यालय नहीं, विचार है!

जितेन्‍द्र कुमार
काॅलम Published On :


पिछले तीन हफ्ते से भी अधिक समय से देश के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र-छात्राएं सड़क पर अपने विश्वविद्यालय को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विद्यार्थियों की मांग है कि सरकार जिस रूप में जेएनयू में फीस बढ़ोतरी का प्रस्ताव लेकर आई है वह उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं है। इसी बात को लेकर वे इतने लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन वहां मौजूद सरकार का सबसे बड़ा मुलाजिम, कुलपति जगदेश कुमार संघर्षरत छात्र-छात्राओं से मिलने को तैयार नहीं है।

पिछले सोमवार को जब दीक्षांत समारोह में उपराष्ट्रपति वेकैंया नायडू को वहां पहुंचना था तो विद्यार्थियों ने वहां भी प्रदर्शन किया जिसके एवज में पुलिस ने छात्र-छात्राओं पर पानी की बौछार कर दी और लाठीचार्ज भी किया। लाठी की मार से कई छात्र-छात्राएं घायल भी हुए हैं लेकिन अब भी प्रदर्शन जारी है, जिसे वहां के बहुसंख्यक शिक्षकगण समर्थन दे रहे हैं।

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कल यानि 18 नवंबर को संसद के शीतकालीन सत्र शुरू होने के दिन जब जेएनयू के छात्र संसद मार्च की तरफ बढ़ रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि पूरे कैंपस को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया है। हर जगह बैरिकेड लगा दिए गए थे, लोगों का आना-जाना बंद कर दिया गया था, रूट डाइवर्ट कर दिया गया था। शाम होते होते यह सूचना मिली कि स्ट्रीट लाइट को बुझाकर प्रदर्शन कर रहे छात्र-छात्राओं को बुरी तरह पीटा गया। फिर से कई छात्र-छात्राओं को चोट लगी जिनका विभिन्न अस्पतालों में इलाज चल रहा है।

जेएनयू के छात्र फीस बढ़ोतरी, छात्रों में प्रवेश पर छात्र-छात्राओं को रोकने और कैंपस के भीतर ही उनके घूमने पर रोक लगाने के नए नियम कायदे को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। अक्टूबर के अंत में विश्वविद्यालय के हॉस्टल मैन्युअल में फ़ीस में काफी बढ़ोतरी कर दी गई है। अगर यह लागू हो गया तो बढ़ी हुई फ़ीस की वजह से कम से कम 40 फीसदी छात्र सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। अप्रत्यक्ष रूप से 90 फीसदी से अधिक छात्र प्रभावित होंगे।

जेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष बालाजी का कहना था कि हॉस्टल के लिए पहले छात्रों को मामूली सी कीमत अदा करनी पड़ती थी। ताज़ा बदलावों के बाद सालाना फीस करीब एक लाख़ रुपए तक देनी पड़ेगी। यही नहीं, इसमें हर साल 10 फीसदी की वृद्धि होती चली जाएगी। जेएनयू की प्रोफेसर आयशा किदवई, जो अपने छात्र जीवन में छात्र राजनीति में काफी सक्रिय थीं, उन्होंने कुछ दिन पहले अपने फेसबुक पोस्ट में जेएनयू प्रशासन की सालाना रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा था कि यहां 40 फीसदी ऐसे विद्यार्थी हैं जिनकी पारिवारिक आय बारह हजार रुपए महीने से भी कम है। उसी पोस्ट में आयशा ने आगे लिखा था, ‘एक टीचर के बतौर मैं चाहती हूं कि मेरी कक्षा में गहरी जेब की बजाय गहरी सोच वाले विद्यार्थी मौजूद रहें।’

आज कई ऐसे मध्यमवर्गीय लोग आपको मिल जाएंगे जिन्होंने अपनी पूरी शिक्षा सरकारी पैसे से पायी है, लेकिन आज वह भयानक तौर पर निजीकरण के पक्ष में बातचीत करते हैं। उनमें से एक सज्जन का कहना था कि सरकार पूरे देश में शिक्षा बजट में कटौती कर रही है तो किसी को क्यों लगता है कि जेएनयू के बजट में कटौती नहीं होगी? अगर एक हिसाब से देखें तो उन सज्जन का तर्क अर्धसत्य जैसा लगता है। यह बिल्कुल सही है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पिछले पांच वर्षों से लगातार शिक्षा के बजट में कटौती की है। इस हिसाब से देखें तो यह सही बात है कि अगर शिक्षा का बजट ही लगातार घटाया जा रहा है तो जेएनयू का नंबर उसमें अपने आप आ जाता है। लेकिन यहां जेएनयू को नष्ट करने का बहुत ही स्पष्ट कारण है।

इस कारण को बड़ी आसानी से इस आधार पर समझा जा सकता है कि पूरे देश में हर विश्वविद्यालय के साथ मोदी सरकार इतनी ही अभद्रता और बर्बरता के साथ पेश आ रही है लेकिन किसी विश्वविद्यालय के बारे में किसी तरह की जानकारी कहीं नहीं है (हैदराबाद सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी को छोड़ दिया जाए तो)। लेकिन यही जब जेएनयू के साथ हो रहा है तो वहां के विद्यार्थियों ने सड़क पर उतरकर पूरे देश को बता दिया है कि उनके अधिकारों में कटौती हो रही है।

जेएनयू एक आइडिया है, एक विचार है जो इंसान को संवेदनशील होना बनाता है, अच्छे-बुरे का एहसास कराता है, सत्य-असत्य का बोध करवाता है, सही-गलत का फर्क करना सिखाता है। जेएनयू वाद-विवाद करना भी सिखाता है। जेएनयू का यही ‘दुर्गुण’ है जिसे किसी भी रूप में मोदी सरकार खत्म कर देना चाहती है क्योंकि आरएसएस-बीजेपी को इन सभी ‘गुण-दुर्गुण’ से परहेज है। उसे भक्त चाहिए, सिर्फ समर्थक नहीं। मोदी सरकार को उन सबसे परेशानी है जो उनसे सवाल करे और हकीकत यह है कि पिछले पांच वर्षों में सबसे अधिक सवाल मोदी या मोदी सरकार से विपक्षी दलों के द्वारा नहीं बल्कि जेएनयू की तरफ से पूछा गया है।

पिछले दस वर्षों में दिल्ली एनसीआर में जो तीन निजी विश्वविद्यालय खुले हैं- जिंदल विश्वविद्यालय, अशोक विश्वविद्यालय और शिव नाडर विश्वविद्यालय− अगर इनकी शुल्क संरचना को देखें तो आप पाएंगे कि सबसे कम शुल्क जिस विश्वविद्यालय का है वह चार लाख रुपए सालाना है अर्थात चार साल के विश्वविद्यालय की पढ़ाई में (वहां अमेरिकी मॉडल पर चार साल का ग्रेजुएशन का कोर्स है) उसे कम से कम 16 लाख रूपए खर्च करने होंगे जबकि दूसरे विश्वविद्यालय में यह फीस 25 लाख के करीब है। कहने का मतलब यह कि अगर एक अभिभावक अपनी एक संतान पर कम से कम चार लाख सालाना खर्च कर रहा है तो स्वाभाविक रूप से वह अगली संतान पर चार लाख और खर्च नहीं कर सकता है। लेकिन वह मध्यम वर्ग भी जेएनयू के नाम पर वही कुतर्क कर रहा है।

बीजेपी के साथ सुविधा यह हुई है कि उसने सवर्ण मध्यमवर्ग और मूर्ख व लालची पिछड़ों के दिमाग पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है जिसका इस्तेमाल वह लगातार कर रही है। अपना आधार बढ़ाने में, दूसरे समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाने में वह इसका इस्तेमाल कर रही है, राष्ट्रवाद के छद्म को देशभक्ति के रूप में प्रचारित-प्रसारित करवा रही है और उसी तर्क से सवाल पूछने वालों को देशद्रोही भी कहलवा ले रही है। बीजेपी समर्थक उस मध्यमवर्ग को इसका एहसास ही नहीं है कि वह जिस बात का समर्थन कर रहा है वह उसे कालिदास की श्रेणी में खड़ा कर दे रहा है।

उन्हें इसका एहसास ही नहीं है कि अगर सरकारी शिक्षण संस्थान नहीं रहेंगे तो वे खुद अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पाएंगे। वे यह भी मानने को तैयार नहीं हैं कि जब सरकारी संस्थान नहीं रहेंगे तो वे अपनी संतानों को निजी संस्थानों में भी नहीं पढ़ा पाएंगे। अगर खुदा न खास्ता वैसा हो भी जाए कि वे अपने किसी संतान को निजी विश्वविद्यालय में पढ़ाने की स्थिति में हों तो यकीनी तौर पर इसकी कीमत उनके दूसरे संतान को चुकानी होगी क्योंकि अगले बच्चे के लिए उनके पास फीस ही नहीं होगा।


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