यहां से देखो : इमरजेंसी की अधूरी दास्‍तान वाया जेएनयू

जितेन्‍द्र कुमार
काॅलम Published On :


स्वतंत्र भारत के 72 साल के इतिहास में जो चार-पांच बड़ी घटनाएं हुई हैं जो देश को लंबे समय तक प्रभावित करेंगी उनमें मैं इमरजेंसी को शामिल करता हूं। इसके अलावा 1984 के सिख विरोधी दंगे, मंडल आयोग की अनुशंसा को सरकारी सेवाओं में लागू करना, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का राम मंदिर के निर्माण के लिए रथयात्रा निकालना और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का तोड़ दिया जाना। मेरे हिसाब से ये पांचों वैसी घटनाएं हैं जिनकी पड़ताल इतिहास और समाज में लगातार किए जाने की जरूरत है और होगी। इसका कारण यह है कि ये सभी घटनाएं वैसी क्रिया हैं (रथयात्रा निकाले जाने को छोड़कर) जिनमें राजसत्ता सीधे तौर पर शामिल रही है। अगर इसे दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो हम कह सकते हैं कि इन सभी घटनाओं ने (मंडल को छोड़कर) ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को गहरी चुनौती दी है।

अन्य घटनाओं पर चर्चा फिर कभी, आज इमरजेंसी पर ही बात को सीमित रखने की ज़रूरत है। टुकड़ों में यह बात छनकर आती ही रही है कि इमरजेंसी लगाने की जरूरत क्यों पड़ी और उसके गुनहगार इंदिरा गांधी के अलावा और कौन-कौन थे, फिर भी, इस पर बहुत गंभीर अकादमिक काम नहीं हुआ है। एकमात्र अकादमिक काम इतिहासकार ज्ञान प्रकाश ने किया है जिन्होंने ‘इमरजेंसी क्रॉनिकल्सः इंदिरा गांधी एंड डेमोक्रेसीज़ टर्निंग प्वाइंट’ के नाम से पिछले साल एक किताब लिखी है। वैसे किताब का पूरा ताना-बाना जेएनयू के इर्द-गिर्द बुना गया लगता है लेकिन उसका विस्तार पूरे शबाब पर है, उसमें इमरजेंसी की धमक हर जगह सुनाई पड़ती है।

चूंकि ज्ञान प्रकाश बड़े इतिहासकार हैं इसलिए तथ्यों को इस रूप में सामने लाते हैं कि घटनाक्रम किस्से के रूप में अधिक दिखता है, तथ्य के रूप में कम, जबकि वह सौ फीसदी इतिहास ही है (यद्यपि यह उनकी विधा है, इसलिए वह जैसा करना चाहें, कर सकते हैं। फिर भी मेरा मानना है कि उनमें यह परिवर्तन ‘बांम्बे फेबल्स’- जिस पर अनुराग कश्यप ने ‘बॉम्‍बे वेलवेट’ के नाम से फिल्म भी बनाई है- से आया है जिसमें उनके किस्सागोई का अंदाज इतिहासकार के रूप में नहीं बल्कि उपन्यासकार के रूप में दिखता है।)

वैसे ज्ञान प्रकाश के अलावा अकादमिक जगत में इमरजेंसी पर उतने काम नहीं हुए जितने होने की जरूरत थी। ऐसा क्यों हुआ, इसके बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना काफी मुश्किल है। बहत्तर साल के इतिहास की पांच सबसे बड़ी घटनाओं में से एक, जबकि उसको बीते 43 वर्ष हो गए लेकिन उस पर किसी समाजशास्त्री ने क्यों नहीं लिखा, यह काफी मुश्किल सवाल है। जैसे कि इमरजेंसी का समर्थन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) कर रही थी (इमरजेंसी के तुरंत बाद उसने इसे अपनी भूल माना) तो उससे जुड़े अकादमिकों को हो सकता है कि कोई दिक्कत हो रही हो, लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) तो उसके खिलाफ थी, उससे जुड़े अकादमिकों ने इस पर क्यों नहीं लिखा? जबकि हमारे देश में अकादमिक जगत में, पढ़ने-लिखने में, सीपीएम की गहरी पैठ रही है! यह हो सकता है कि कांग्रेस समर्थित बुद्धिजीवी यह खतरा नहीं ले सकते थे क्योंकि शायद उन्हें कहीं ‘प्रमोशन’ मिलने में इसका नुकसान हो सकता था, लेकिन सीपीएम से जुड़े बुद्धिजीवियों ने उस पर वैसी चुप्पी क्यों साधी?

हमारे साहित्यकारों ने भी इमरजेंसी के बारे में वैसा कुछ नहीं लिखा, जैसा कि लिखा जाना चाहिए था। कुल मिलाकर हिन्दी में दो-तीन हीं महत्वपूर्ण रचनाएं हैं जिनका जिक्र किया जा सकता है। एक निर्मल वर्मा का ‘रात का रिपोर्टर’ और दूसरा राही मासूम रज़ा का ‘कटरा बी आरजू’। निर्मल वर्मा का उस समय तक मार्क्सवाद से मोहभंग हो चुका था और उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि किसी मार्क्सवादी आलोचक ने उनकी रचनाओं को उस तरह से तवज्‍जो नहीं दी है जितना दिया जाना चाहिए था! यद्यपि राही मासूम रजा सीपीआई से जुड़े हुए थे जिस पार्टी ने इमरजेंसी का समर्थन किया था, फिर भी, उन्होंने अपनी रचना में इसके बारे में लिखा!

इतिहास पूरी तरह धुंधला है, वैसी बात नहीं है। रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, मुक्तिकामियों का विद्रोह गीत बन गया था। नागार्जुन की कविता ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको, भूल गईं बाप को…’ इमरजेंसी पर बड़ा वक्तव्य था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’ के ‘रचयिता’ देवकांत बरुआ जब वाराणसी गए थे तो युवा कवि गोरख पांडे ने ‘भड़वा वसंत’ नाम से एक कविता लिखी थी। बड़े रचनाकारों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रधुवीर सहाय और कृष्णा सोबती जैसे कुछ गिने-चुने उसका विरोध कर रहे थे। नयनतारा सहगल ने इंदिरा गांधी द्वारा घोषित इमरजेंसी का जोरदार विरोध किया था, गोकि वह इंदिराजी की सगी फुफेरी बहन हैं। फणीश्वरनाथ रेणु और नागार्जुन तो बाकायदा इमरजेंसी के खिलाफ जेल गए थे।

लेकिन ये कुछ गिने-चुने अपवाद हैं। हमारे समाज में रचनाकारों की प्रतिबद्धता कितनी कम होती है, अगर इसका अंदाजा लगाना हो तो हम देख सकते हैं। उस समय के कई बड़े रचनाकारों, जैसे नेहरू-इंदिरा गांधी के दरबारी हरिवंशराय बच्चन, इंदिरा-संजय के अनुयायी खुशवंत सिंह, राजेन्दर सिंह बेदी, अमृता प्रीतम और अली सरदार जाफ़री ने इमरजेंसी के समर्थन में बाकायदा बयान जारी किया था।

यहां सवाल हालांकि उससे आगे का है। जिस जनसंघ-भाजपा या आरएसएस विचारधारा के लोगों ने इमरजेंसी की इतनी दुहाई दी है, उस धारा की तरफ से अभी तक एक भी गंभीर किताब क्यों नहीं आ पाई है? इसका कारण क्या यह है कि उस धारा के अधिकतर लोग पैरोल पर छूटकर आ रहे थे या फिर उस धारा के लोगों में उस लेवल का इंटिलेक्चुअल कैलिबर (बौद्धिक क्षमता) ही नहीं है कि इमरजेंसी का पूरी तरह विश्लेषण कर पाएं?

अगर आरएसएस-बीजेपी के इस ढोंग को समझना हो तो आप आसानी से कुछ बातों से समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए, सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे जिन लोगों ने इमरजेंसी को मूर्त्‍त रूप दिया था उसमें संजय गांधी की भूमिका इंदिरा गांधी के बाद सबसे अहम है। संजय गांधी की मेनका गांधी से 1974 में जब शादी हुई थी उस वक्त वे जेएनयू के जर्मन सेंटर में पढ़ रही थीं। 25 सितंबर 1975 को प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी के पीछे मेनका गांधी ही थीं। उस दिन सुबह के 9 बजे जब वे अपनी काली एंबेसेडर कार से जेएनयू के स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ (एसएल) के सामने उतरीं तो छात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष देवी प्रसाद त्रिपाठी (डीपीटी) ने उनसे क्लास बायकॉट करने का आग्रह किया और कहा था, “आप भी हमारे जैसे ही विद्यार्थी हैं, मैडम जूनियर गांधी!’’

डीपीटी की इस बात से मेनका आगबबूला हो गई थीं और उन्होंने बड़ी हिकारत से डीपीटी को जवाब दिया था- “बस, तुम दो मिनट इंतजार करो, मैं तुम्हारा हड्डी-पसली एक करवा दूंगी।” मतलब यह कि मेनका गांधी उस हर क्रियाकलाप में प्रत्यक्ष रूप से शामिल थीं जिसे इमरजेंसी कहा गया था। लेकिन जब भी बीजेपी सत्ता में आई, वाजपेयी से लेकर मोदी तक वह सत्ता के केंद्र में रहीं।