उल्टा तीर, कमान को डांटे (व्यंग्य) – तेजोमहालय से ताजमहल बनने के राज़ का पर्दाफ़ाश…

कपिल शर्मा कपिल शर्मा
काॅलम Published On :

vyangya

(वैधानिक चेतावनी – यह लेख एक व्यंग्य है और इसके किरदारों और कहानी का किसी से कोई भी रिश्ता संयोगवश अगर है, तो ये उसकी ख़ुद की ज़िम्मेदारी है)

सदियों पहले की बात है। चारों तरफ जंगल थे और हद ये थी कि जंगल में मंगल नहीं था। दरअसल उस वक्त तक यहां अंग्रेजों के क़दम नहीं पड़े थे, इसलिए सोम, मंगल, बुध…..और हफ्तावारी मामला चलता ही नहीं था। हालांकि जंगल का मंगल और हफ्ते के मंगल में फर्क होता है, लेकिन आमतौर पर लोगों को को मंगल का ये खास फर्क नहीं पता है। खैर तो सदियों पहले जब चारों तरफ जंगल था, तब एक मंदिर बनाया गया, तेजोमहालय। उसके कई साल बाद यहां मुगल आ गए। यूं मुगल बिन बुलाए नहीं आए थे और राजस्थान के क्षत्रिय राजपूत राणाओं ने उन्हे बुलाया था। बिन बुलाए मेहमान आते हैं, और फिर चले जाते हैं। लेकिन बुलाए गए लोग, अक्सर वापस नहीं जाते हैं। मुगल भी ऐसे ही साबित हुए और एक बार बुलाने पर जो आए तो वापिस नहीं गए। उन्हीं मुगलों में से एक मुगल राजा था, खुद को बादशाह कहलवाता था। उसने अपने दरबारियों को इकठ्ठा किया और एक अजीब सी शर्त रखी। शर्त ये थी कि कोई ऐसा मंदिर खोजा जाए, जिसका नाम ताज महल यानी उसकी मरहूम बीवी के नाम पर हो या उससे मिलता-जुलता नाम हो। उस समय के मुगल ऐसे ही होते थे, जो पहले से नाम होते थे, उनमें बस तब्दीली कर लेते थे, नया नाम रखने का रिवाज उस समय तक नहीं था।

खै़र बहुत से मंदिरों के नाम सामने आए, लेकिन उस तथाकथित बादशाह को एक ही नाम पसंद आया। आगरा में ”तेजोमहालय” नाम का एक मंदिर था, जो वहां के एक राजा का महल भी था और मंदिर भी था। बादशाह को मंदिर से, उसकी वास्तुकला से, वो कहां बना है, से कोई लेना-देना नहीं था। उसे तो सिर्फ नाम से मतलब था। इसे इस तरह समझिए कि अगर ”तेजोमहालय” नाम का कोई मंदिर मान लीजिए गुजरात, या असम, या बंगाल में होता तो राजा ने वहीं उस नाम को बदल देना था। लेकिन संयोग की बात कि ये ”तेजोमहालय” नाम का मंदिर आगरा में था। आगरा के पेठे उस वक्त भी खासे मशहूर थे, हालांकि पंछी ब्रांड का पेठा तब तक उतना मशहूर नहीं हुआ था। ख़ैर बात ”तेजोमहालय” की हो रही थी।
बादशाह ने फौरन उस राजा को मंदिर और महल से बेदख़ल कर दिया। मुसीबत ये कि उस वक्त सुप्रीम कोर्ट भी नहीं था तो बेचारा राजा क्या करता। प्राॅपर्टी डिसप्यूट के केस वैसे ही बहुत लंबे चलते हैं, जिसमें पड़ना राजसी शान के खिलाफ है। उसे याद आई महाराणा प्रताप की, जो अकबर से लड़ाई जीतने के बाद, अपनी आन-बान-शान के लिए चित्तौड़ का किला छोड़ कर घास की रोटियां खाने के लिए जंगल चले गए थे। उनकी याद आते ही अपनी राजपूताना बहादुरी दिखाते हुए राजा ने फौरन तेजोमहालय छोड़ दिया और राजपूताना मूंछो पे ताव दिया।

इधर मुगल बादशाह, जिसे मंदिरों के नाम बदलने का शौक था उसने फौरन ”तेजोमहालय” का नाम बदल कर ”ताजमहल” कर दिया। यहां गौर करने वाली बात ये है कि ये मुगल लोग जो थे, रचनात्मकता में बिल्कुल कोरे थे। ज्यादातर जगहों पर इन्होने बहुत ही वाहियात तरीके से नाम बदलने और नाम रखने की कवायद की, जैसे बाबर ने एक मस्जिद बनाई तो उसका नाम ”बाबरी मस्जिद” रख दिया, एक किला लाल पत्थर का बनवाया, ”अभी उसके नीचे किसी मंदिर का कोई दावा पेश नहीं किया गया है” तो उसे ”लाल किला” नाम दे दिया, एक बहुत उंचा दरवाजा तामीर किया और उसका नाम ”बुलंद दरवाज़ा” रख छोड़ा, उसी तरह बिना ज्यादा सोचे-समझे ”तेजोमहालय” का सीधे-सीधे नाम बदल कर ”ताजमहल” रख दिया गया। लेकिन ये तथाकथित बादशाह इतने पर ही नहीं रुका, महान हिंदू इतिहासकार, बिना किसी स्रोत के अपनी सोच से ये बताते हैं इस बादशाह ने पूरे आगरा के इर्द-गिर्द एक दीवार बनवा दी, ताकि लोगों के दिलो-दिमाग से ”तेजोमहालय” की याद खत्म हो जाए। दीवार की याद ग़ायब करने के लिए इस बादशाह ने क्या किया, इसका जिक्र इन महान इतिहासकार ने नहीं किया है, इसलिए हम भी नहीं जानते।

ख़ैर बीस साल बाद वो दीवार गिराई गई, और ”तेजोमहालय” विद् एक साइनबोर्ड ऑफ ”ताजमहल” वहां लोगों को दिखा। मासूम लोगों ने तब मान लिया कि ये ”ताजमहल” ही था। इस कथित बादशाह ने एक और काम किया, ”तेजोमहालय” की जितनी मूर्तियां आदि थीं, उन्हें नष्ट नहीं करवाया बल्कि बीस कमरे बनवा कर उनके अंदर उन मूर्तियों को बंद कर दिया, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए ये सुविधा हो कि वो इन कमरों को खोल कर इनकी मूर्तियां निकाल कर इस राज़ का पर्दाफ़ाश कर सके।
मुग़लों के बाद अंग्रेज आए, लेकिन राजपूताना राजसी ख्वाहिशों ने अपनी आन-बान-शान कायम रखते हुए ”ताजमहल” का किस्सा नहीं छेड़ा। जो गया उसे वापस लेने की बात तो छोड़ दीजिए, अपना जो कुछ था, वो भी लाट साहब के दरबार में रख दिया और कोर्निश बजाने लगे। जब अंग्रेज गए, तो मुसीबत ये कि देश में लोकतंत्र और जनतंत्र शुरु हो गया। राजपूत राजाओं के साथ बड़ा अन्याय हुआ, राजा साधारण नागरिक की श्रेणी में आ गया, और तो और, अंग्रेज बहादुर जो राजपूत बहादुरों के लिए सालाना भुगतान का किस्सा शुरु करके गए थे, लोकतंत्र के हल्ले में उसे भी बंद कर दिया गया। ये सब राजपूत राजाओं के खिलाफ साजिश के तहत, और खासतौर पर हिंदुओं के खिलाफ साजिश के तहत किया गया।
साल कोई भी हो, लेकिन करीबन 800 या 1000 साल बाद हिंदुस्तानी लोकतंत्र की राजगद्दी पर एक हिंदू राजा बैठा, जिसके सीने की नाजायज़ नाप, और पसीने से चमके चेहरे की आब की चर्चा पूरी दुनिया में हुई। शेर चलने लगा, डंका बजने लगा, जहां नहीं बजा वहां इस हिंदू राजा ने अपने भाड़े के डंके बजाने वाले ले जाकर डंके बजवा दिए। जैसे अमरीका के लाॅन में, यू एन मुख्यालय के सामने…..किसी को शक हो तो यूट्यूब खोल के देख लो।
अब राजपूताना के राजपूतों के क्षत्रिय धर्म ने फिर झटका मारा और उन्होने दावा किया कि जिस इमारत को आज ”ताजमहल” के नाम से जाना जाता है, वो ”तेजोमहालय” है और इसे उनसे छीन लिया गया था। लेकिन राजपूतों के दुख के दिन अभी खत्म नहीं हुए हैं। एक तो देश में सुप्रीम कोर्ट है, दूसरे लोकतंत्र और संविधान है। दरअसल पहले लोकतंत्र और संविधान है, फिर सुप्रीम कोर्ट है, लेकिन इन राजाओं और अखंड हिंदू राष्ट्र वालों की क्रोनोलाॅजी कुछ दूसरी तरह काम करती है, जिसे वर्तमान गृहमंत्री ही ठीक से समझा सकते हैं। ख़ैर किस्सा कोताह ये कि राजपूतों ने दावा किया, अंखड हिंदू राष्ट्रवादियों ने दावे की झंडी फहराई और सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। बदकिस्मती से सुप्रीम कोर्ट बहुत पहले ये कह चुका है, यानी आदेश दे चुका है कि 15 अगस्त 1947 के बाद से जो इमारतें जैसी हैं, उन्हे वैसे ही रखा जाएगा और उनके लिए कोई अन्य दावा स्वीकार्य नहीं होगा। लेकिन अखंड हिंदू राष्ट्र वालों को इन कानूनों की कभी परवाह नहीं रही, और कश्मीर से लेकर कुतुबमीनार तक……कन्याकुमारी हिंदू नाम है, इसलिए यहां उसका नाम नहीं लिया गया है। सभी धार्मिक स्थलों के नाम का इतिहास खोज कर पता लगाया जाएगा, और वहां गला फाड़ कर हनुमान चालीसा पढ़ी जाएगी।
जिस देश का ऐसा अखंड इतिहास हो, वहां लोकतंत्र की बात बेमानी होती है। सुप्रीम कोर्ट व अन्य सभी कोर्ट जितना जल्दी इस बात को समझ लें, उतना जल्द इन बदले हुए नामों वाली इमारतों का झंझट खत्म होगा और इस विराट, पावन, धरती से असुरों का नाश होगा। बाकी तो ”लोकतंत्रात्मकता” पर विद्वतजन बहस करें कि “ये कोई नया शब्द है, या पुराने को ही नये रैपर में पेश किया गया है” के लबादे में वामी-कांगी लोग कुछ भी कहते रहते हैं। अफसोस कि ग़ालिब ने इस मौजू पर कोई शेर नहीं कहा, लेकिन उनका एक शेर रिवाज़ के मुताबिक पेश है…

अब कौन देखता है आग सीने में
कहीं धुआं उठता तो दिखाई देता

चचा ग़ालिब अपने बाद के सालों में लुगदी कागज पर इसी तरह के शेर कहा करते थे, जो उनके दीवान तक में शामिल नहीं हैं, इसलिए वहां ढूंढने की कोशिश ना करें। बाकी अल्ला-अल्ला खैर सल्ला।

(उल्टा तीर-कमान को डांटे, फिल्मकार-संस्कृतिकर्मी कपिल शर्मा के नियमित व्यंग्य स्तंभ के तौर पर मीडिया विजिल पर प्रकाशित होगा।)