अर्थार्थ : चेतना और अस्तित्व

सूर्य कांत सिंह
काॅलम Published On :


वैसे तो इस स्तम्भ के मूल में भौतिक विषयों की चर्चा ही है पर जब हम मौजूदा स्थितियों को खंगालने निकले तो पाया की समस्या का आधार आध्यात्मिक ज़्यादा है । फिर क्यों ना जड पर हीं चोट कर रणभेरी बजाई जाए ?

जो लोग दर्शनशास्त्र से वाकिफ ना हो उन्हें बता देना उचित है की भारतीय दर्शन में हम विषयों को दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं–जड़ और चेतन। सामान्य भाषा में आप जड़ता से उन चीज़ों को जोड़ें जिन पर अपने आस पास हो रही घटनाओं का कोई असर नहीं होता। आज कुशासन की हदें पार कर चुकी हमारी सरकारों और क्रूरता की हदें पार करते हमारे समाज को देख कर ये निष्कर्ष आसानी से निकाला  जा सकता हैं की हम जड़ हो चुके हैं। जड़ता को चेतना का अभाव भी कहा जाता है इस लिये चेतना को समझना ज़रूरी हो जाता है।

किसी भी पाश्चात्य दर्शन में चेतना का उतना सटीक वर्णन नहीं जितना भारतीय दर्शन में। अन्य पूर्वी दर्शनों में चेतन तत्व का उल्लेख “ची” के रूप में आता है। हमारा दर्शन केवल ब्रह्म (परमात्मा) को चेतन मानता है। परमात्मा का अंश होने की वजह से आत्मा भी चेतन है साथ हीं यह भी की आत्मा “क्रियाहीन दृष्टा” है। इसमें भी द्वैत और अद्वैत सिद्धांतों के अलग-अलग मत है पर हम उसपर चर्चा नहीं करेंगे। हमारे शरीर में आत्मा का निवास होने से हम चेतन हैं पर आत्मा के ऊपर “मन” का आधिपत्य हो जाने से हम जड भी हो सकते हैं।

इस बात का उल्लेख करना चाहेंगे की अगर आप किसी विषय को एक पांच साल के बच्चे को नहीं समझा सकते तो यह मानें की आप खुद उस विषय को नहीं समझते । इसलिये कि आप इन विषयों को किसी बच्चे को समझाने के लिहाज़ से पढ़ें।

आत्मा और मन

“आत्मा” और “मन” के बीच अंतर स्थापित करने के लिये एक हम एक छोटा उदाहरण ले सकते हैं । हम सब ने अपने जीवन में “पाप” किये होंगे (यहां पाप का तात्पर्य “जानबूझकर की गई गलती” से है)। थोडा रुक कर आप मन में उस पल का चित्रण करें जब आपने सर्वप्रथम वह पाप किया था। यह बहुत साधारण सी घटना भी हो सकती है। अब याद करें.. जब आप वह कृत्य कर रहे थे, तब आपके अंदर कोई1 जानता था की आप गलत कर रहे हैं। साथ ही कोई2 आपको आगे बढनें के लिए भी कह रहा था। आप समझ चुके होंगे!

बीसवीं शताब्दी के दार्शनिक आंदोलन “अस्तित्ववाद” ने प्रत्येक मानव के अस्तित्व की विशिष्टता को स्वतंत्र रूप से आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया। अस्तित्ववाद मानव अस्तित्व को अस्पष्ट मानता है, और किसी के कृत्यों के परिणामों के लिए “निर्णय” और “जिम्मेदारी की स्वतंत्रता” पर जोर देता है। सीधे शब्दों में आप विशेष हैं और अपने जीवन के लिये आप स्वयं ज़िम्मेवार है। ऐसा तो सदियों से माना जाता रहा है कि मनुष्य चेतन अस्तित्व के सबसे ऊपरी पायदान पर है, विशेष है। लेकिन ऊपर के उदाहरण में हमने देखा की “सही निर्णय” लेने की क्षमता तो केवल आत्मा में है, मन में नहीं। मन तो केवल भौतिकता की और भागता है।  तो “उनके” लिये आप पर राज करते रहने का सबसे आसान तरीका है आपको आपकी आत्मा से विमुख रखना।

चेतना का सीधा असर भौतिकता पर पडता है। नीचे दिये गये तीनो विडियो चेतना के प्रमाण हैं जो वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सिद्ध किये जा चुके है पर इनका जिक्र कहीं नहीं किया जाता। यहां विषय में थोडी क्लिष्टता है इसलिए पाठक जिन्हे विज्ञान के विषय में कम जानकारी हो, थोडा समय लें, सारांश समझें तब विडियो देखें।

जिन लोगों ने 12वीं में भौतिकी का अध्ययन किया होगा उन्हें “यंगस् डबल स्लिट एक्स्पेरीमेंट” के बारे में पता होगा। परीपेक्ष यह की “लाइट” के गुणों में अंतर्द्वंद्व है। वह कभी “पार्टिकल” के गुण दिखाता है तो कभी “वेव” (लहर – ऊर्जा) के। कौन सा गुण उसके साथ सबसे सटीक बैठता यह जानने के लिये भौतिक विज्ञानी थामस यंग द्वारा एक प्रयोग किया गया जिससे चौंकाने वाले परिणाम सामने आए। संलग्न विडियो “वाट द ब्लीप डू वी नो” नामक डाक्युमेंट्री का अंश है। जिसमें कार्टून  (चलचित्र) के माध्यम से यह प्रयोग दिखाते हुए इसका आशय स्पष्ट किया गया है।

विडियो का सारांश –

  • प्रयोग के पीछे सिद्धांत यह है पार्टिकल और वेव के किसी सतह से टकराने पर अलग-अलग तरह के पैटर्न बनते है। अर्थात अगर “लाइट” के गुण “पार्टिकल” से मिलते है तो लाइट (ऊर्जा) की किरण के सतह से टकराने पर एक खास तरह का पैटर्न बनना चाहिये और यदि गुण “वेव” जैसे हैं तो दूसरे तरह का। यह प्रयोग कंचों और पानी की लहरों के साथ दिखाया गया है।
  • बाद में इसी प्रयोग का सूक्ष्म (क्वांटम) रूप दिखाया गया है। बस इस बार कंचों की जगह ईलेक्ट्रअ‍ॅन को एक सतह पर दागा जाता है। तब एक अजीब घटना होती है। ईलेक्ट्रअ‍ॅन एक “पार्टिकल” है न की “वेव”, इसके बावजूद वह एक लहरों की तरह “इनटरफेरेंस” पैटर्न का निर्माण करता है। इस से यह लगता है की एक ईलेक्ट्रअ‍ॅन छिद्रों में से गुज़रने से ठीक पहले “वेव” बन जाता है और दोनों छिद्रों से गुज़रता है। इस तरह छिद्रों से निकल कर जुड्नें पर “इनटरफेरेंस” पैटर्न का निर्माण हुआ होगा।
  • जब इस स्थिति को ईक्वेशन के माध्यम से दोबारा देखा गया तो और विषय और जटिल हो गया। ईक्वेशन के मुताबिक तीन संभावनाएं एक साथ मौजूद थी-ईलेक्ट्रअ‍ॅन (i)किसी एक छिद्र गुज़रा होगा (ii) दोनों छिद्रों से या गुज़रा होगा (iii)किसे भी छिद्र नहीं गुज़रा होगा।
  • तब वाकई में क्या हो रहा था यह देखने के लिये एक मापक यंत्र लगाया गया जिससे सब कुछ साफ हो गया ! जब कोइ दृश्टा (आबज़र्वर) होता तो ईलेक्ट्रअ‍ॅन पार्टिकल के रूप में बरताव करता और आबज़र्वर की अनुपस्थिति में वेव” बन जाता। मानो उन्हें पता चल जाता हो की कोई उन्हें देख रहा हो। यह चेतना और उसके प्रभाव का एक अभूतपूर्व साक्ष्य है।

चेतना पर सबसे पुराने प्रयोग का उल्लेख “सीकरेट लाइफ आफ प्लांट्स” नामक डाक्युमेंट्री  में मिला। इसका विडियो संलग्न है जिसमें रूस के एक वैज्ञानिक का इंट्ररविउ और पौधों पर किया गया प्रयोग दिखाया गया है ।

वीडियो का सारांश:–

  • प्रयोग में वैज्ञानिक पौधे के साथ एक पालिग्राफ मशीन जोड्ते हैं। यह मशीन लाइ-डिटेक्टर मशीन की तरह होती है जो पौधों के कथित विचारों को एक पेपर रोल पर ग्राफ के रूप में अंकित करती है। दूसरी मशीन में एक पात्र में कुछ “लीच”(कीडे) रखे जाते हैं। यह मशीन लीचों को 24 घंटे के बीच कभी भी , अचानक, उबलते पानी में गिरा सकती है और गिराये जाने के समय को अंकित कर लेती है।
  • वैज्ञानिक दोनों मशीनों को शुरु कर के 24 घंटे के लिये कक्ष से दूर चले जाते है ताकि उनके विचारों से पौधे प्रभावित ना हों।
  • वापस आ कर मिलान करने पर उन्हें इस बात का पता चलता है की लीचों की मृत्यु के समय पौधों के पालिग्राफ में ज़बरदस्त गतिविधि दर्ज हुई। यह इस बात को प्रमाणित करता है की पौधों ने लीचों की मृत्यु को “महसूस” किया।

जापान के मशहूर वैज्ञानिक डाक्टर मसारु ईमोटो  ने “वाटर क्रिसटल फोटोग्राफी” के माध्यम से पानी में चेतना होने का प्रमाण दिया। इस प्रयोग में अलग-अलग स्रोतों के पानी को सामने रख कर भावनाएं “बताई गयीं”, गीत ”सुनाए गए” और चित्र ”दिखाए गये”। यह कई दिनों तक, दिन में कई बार दोहराया गया । बाद में उस पानी को जमा कर उसकी तस्वीरें लीं गयीं। दिये गये विडियो में प्रयोग के दौरान खींचे गए चित्रों का कोलाज प्रमुख है।

तकनीक उनका हथियार है, लक्ष्य है आपकी चेतना  !

चेतना निर्विचार है ! विचार मन में है। मन कोमल है, चंचल है और उसे आकार देना -आसान। मन में उत्पन्न विचारों की फ्रीक्वेंसी होती है जिसे मापना सम्भव है। अब तो यह तकनीक ग्राहकों के लिये महज़ 100$ में उपलब्ध है। विचार सीधे-सीधे भावनाओं से जुडे हैं, भावनाएं जुडी हैं इंद्रियों से और तकनीक के माध्यम से आपकी इंद्रियों को हैक  कर लिया गया है।

हमारे समाज में आप विशेष तब ही है जब आप “जानें जाएं”। नोबेल पुरस्कार विजेता को भी यहां केवल एक दिन मिलता है विशिष्ट कहलाए जाने का। दूसरे दिन वे करंट अफेयर की पुस्तकों तक सीमित हो जाते हैं। कल तक दौलत, शोहरत या किसी अन्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये श्रम हीं एक मार्ग था। चाहे वो सदी के महा नायक अमिताभ बच्चन हों या मिसाईल-मैन डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, इन्हें दशकों के संघर्ष और अथक प्रयास के बाद हीं अपना मुकाम मिला। पर आज सफलता सहज मालूम पडती है। हो भी क्यों नहीं ? 130 कडोर की आबादी का 0.075% (1 मिलियन) भी अगर आपको जाननें लगता है तो आप सफल हो सकते है!

अब अपने आस पास लगे कानटेंट के अंबार को देखें। हर कानटेंट चीख रहा है की आप उसकी ओर देखें, लाइक करें, शेयर करें। तरह-तरह के सोशल मीडिया, रियलिटी शो, टक-टक, टिक-टिक और पता नहीं क्या-क्या। इन विडियो एप्पस का कानटेंट इतना फूहड है की मन विचलित कर देता है। (अगर आपको समय मिले तो एक बार उन एप्प्स की मानक उम्र सीमा भी देख लें )।  इन एप्प्स की सफलता, पॉर्न बैन और बच्चों के ऊपर होते यौन अपराधों में संबंध स्थापित कर पाता मगर साहब एन.सी.आर.बी का डेटा लील गए है।

हम सभी मन हीं मन अपने आप को विशेष मानते है साथ हीं हमारा मन अपने कृत्यों की ज़िम्मेदारी भी नहीं लेना चाहता। वह हमारी हर असफलता के पीछे किसी और को कारण बता पल्ला झाड लेता है। यही कारण है की प्लास्टिक में फंसे जीव की तस्वीर लाईक करनें मात्र से हमारा मार्मिक मन संतुष्ट हो जाता है – ना झोला लेकर बाज़ार नहीं जाते और ना हीं पानी की बोतल ढोई नहीं जाती। मोबाइल पर रंग-बिरंगी तस्वीरें देख अपने सपनों को नए आयाम देना सुलभ है, इसमें मेहनत कम है और सरकारी सुविधा की कोई आवश्यकता ही नहीं। शिक्षा या किसी “वास्तविक” स्किल के अभाव से खुद को विशेष मानने की इच्छा कहां कम होती है। मोबाइल पर अंगूठा छाप शिक्षा मंत्री बन सकता है और कंगाल – सी.ई.ओ। न भी बने तो विडियो ऐप्प्स पर लगातार वाईरल- “फूहड-सौंदर्य” का तिलिस्म चलता रहता है। ये त्वरित सफलता की झलक दिखा अरमान जगाता  है। वह सफलता जो कतई वास्तविक नहीं है, ना हीं टिकती है। किसी नशेडी के तरह हम नशे की उस उच्चतम सीमा को बार-बार छूने के आदि हो जाते हैं और उसे पार करने के लिए किसी भी हद तक गिरने से नहीं डरते। सस्ती वाहवाही के लिये जो दोहरे अर्थ वाले विडियो आज अपलोड कर रहे हैं, कल उन्हीं की संतानों को दिखाएं तो मुह छुपाने की जगह न मिलेगी । खैर, समाज बदलाव के दौर में है और हम गरुड तो है नहीं है। तो आगे बढ्ते हुए आपसे कुछ सवाल – क्या आप सोशल मीडिया इस्तेमाल करने के पैसे देते है? नहीं ? क्यों? क्योंकि आप ही प्रोड्क्ट  हैं! आपको पेन ड्राइव या मेमरी कार्ड की कीमत तो पता हीं होगी। तो कोई आपके कचरे को अपलोड करने के लिये मुफ्त में जगह क्यों दे रहा है? सोचिए! डेटा को नया अ‍ॅयल  ऐसे हीं नहीं कहा जा रहा।

मीडिया कम्पनियों में वैज्ञानिक काम करते हैं जिन्होंने लोगों को बिना नशा खिलाए धुत करने पर शोध कर रहे हैं। नोटिफिकेशन पाते ही फोन तक पहुंचना, आफर देखते हीं खरीददारी, नई जानकारी सबसे पहले प्राप्त करने और शेयर करने की बेचैनी एक वैज्ञानिक विधि से तैयार की जाती है । इस विज्ञान के पीछे कई तरह की विद्या का समावेश है जिसकी जडें सिग्मंड फ्राएड  के कार्य में मिलती है। इन विषयों को विस्तरित रूप में “प्रोपगेंडा”, “एज ऑफ स्टुपिड” और “सेनचुरी ऑफ द सेल्फ“  में बताया गया है। सिग्मंड फ्राएड  इस तकनीक का प्रयोग मानसिक रोगों का इलाज करने के लिये करते थे। बाद में उनके भतीजे एडवर्ड बरनेज  ने इसे धार दे कर हथियार में तबदील कर दिया और इसी साइकोएनालिसिस का इस्तेमाल आज खबरों, मनोरंजन के साधनों (टी.वी कार्यक्रम, सोशल मीडिया, संगीत) विज्ञापनों (ऑनलाइन मार्केट, साइन बोर्ड , होर्डिंग, पॅम्पलेट) और चुनाव प्रचार तक में होता है।

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हमारी स्कूली शिक्षा का मख्सद केवल यह रह गया है की हम अथॉरिटी की बात मानना सीख जाएं। जब बच्चा पहली कक्षा में जाता है तो “ए से फॉर एप्प्ल” से पंख कुतरनें की यह प्रक्रिया शुरु होती है। कर्मचारियों से उम्मीद की जाती है कि वे क्रियेटिव बनें, नए विचार लाएं पर स्कूली शिक्षा से केवल भेडों जैसी सोच हीं बन सकती है। यह पीढियों से हो रहा है। स्कूली से बाहर आता है एक आज्ञाकारी शरीर जो अथॉरिटी की बात मानना सीख चुका होता है। पर इसी व्यवस्था में से कुछ अपवाद भी निकल आते है जो बाद में चरवाहा बन भेडों को नियंत्रित रखते है। इन्हीं चरवाहों को अथॉरिटी कहा जाता है। अथॉरिटी लोगों को भी कह सकते हैं, उनके पदों को भी और संस्थाओं को भी। ऐसा कोई जिसकी बातों को हम सार्वजनिक रूप से नकार ना सकें, अथॉरिटी है। बिना अपवाद के हर तरह की संस्थाओं और संस्थानों में गंदगी के व्यापक प्रमाण हैं जो केवल इस लिये अन्याय कर पाते हैं क्योंकि हम समाज के रूप में खंडित है, सवाल नहीं करते ना समझते हैं और डरते भी है। आने वाली कड़ियों में एक-एक कर हर अथॉरिटी की नुक्ता-चीनी होगी, क्रिटिकल अप्प्रेज़ल  होगा। ध्यान रहे की किसी निर्णय की स्थिति में पहुंचना लक्ष्य ना हो वरना सिक्का उछालने का मतलब न रह जाएगा।

जब हमारे पूर्वज आज़ादी की लड़ाई लड रहे थे तब कुछ लोग इंसानी दिमाग के काम करने और उसपर काबू करने के तरीकों पर काम कर रहे थे। अगर आपके कोई मित्र अंदरूनी खबर बताएं जैसे कि “हम रामायण पर रीसर्च कर पुष्पक विमान बनवा रहे हैं और उस पर ब्रह्मास्त्र इत्यादि लाद कर पाकिस्तान पर परीक्षण करेंगे” तो चौड़े हो कर इन बातों को बताइये, चर्चा कीजिए। मित्रों से कहिये थोडा समय लें जानें कि हमारे कई भाई-बहन भूखे पेट सोते हैं। नाम लेने पर साहब जेल में “ठूंसवा देंगे” वरना आपको लोन लेकर चश्मों वाली स्टीकर लगानें और वेबसाइट बनवाने का किस्सा भी सुनाता (जो व्यंग्य नहीं है!)। जब वैश्विक स्तर पर षड्यंत्र रचा जा रहा हो तब किसी को अलग रखनें की भूल ना करें। मेरे कई परिचित लोगों के विचारों में पिछले कुछ वर्षों में मूल-चूल परिवर्तन आया है। जो कल तक सामान्य थे आज मानव बम बन चुके है।याद रखें कि जनता पर तभी तक काबू कर पाना सम्भव है जब तक उसे पता न हो और यह भी कि किसी को मूर्ख बनाना उसे यह समझाने से आसान है कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। इन सब का मतलब निकालने लायक स्थिति में आने के लिये इसमें अभी बहुत सारी कड़ियां को मेरी लेखनी आगे भी झेलनी होगी। संवाद के लिये दो पक्ष चाहिए। मैं अपनी बात रख चुका, आप भी अपने विचार surya@columnist.com पर भेजें।