एक ”टेलीकांफ्रेंसिंग वित्त मंत्री” को अचानक हिटलर की याद क्यों आई?

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जेटली अपने ब्लाग में इंदिरा गांधी की तुलना हिटलर से करने को भी आजाद हैं, गोकि गाली के तौर पर हिटलर के नाम का इस्तेमाल संघ-भाजपा में शायद नयी परम्परा की शुरूआत है वरना नस्ली शुद्धता का हिटलर का सिद्धांत, यहूदियों और समाजवादियों के खिलाफ हिटलर की आत्यंतिक घृणा और दोनों के सफाये का उसका संकल्प, उसकी कार्यनीति, तो मुंजे से लेकर गुरू गोलवलकर तक के लिए प्रेरणा के भारी स्रोत ही रहे हैं…

 

राजेश कुमार 

‘‘यह असामान्य और अत्यंत विक्षोभकारी स्थिति है। 34 सदस्य यहां नहीं है, अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि वे बिना किसी मुकदमे के हिरासत में हैं और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी ने संसद को मजाक बना दिया है। संसद का सत्र केवल सरकारी कामकाज निपटाने के लिए बुलाया गया है, खासकर, देश की आंतरिक सुरक्षा के नाम पर आपातकाल लागू करने की राष्‍ट्रपति की 26 जून की घोषणा के अनुमोदन के लिए और विपक्ष को अपनी भूमिका अदा करने से रोका जा रहा है। क्यों…?’’

हर तरह के सवाल पर देशद्रोह-राष्‍ट्रद्रोह की चीख-चिल्लाहट के इस दौर में यह अजीब भले लगे, लेकिन यह सच है कि करीब 43 साल पहले, आपातकाल के काले समय में लोकसभा में मार्क्‍सवादी पार्टी के नेता ए.के. गोपालन ने यह प्रश्‍न पूछा था। अजीब तो आज यह भी लगेगा कि सरकारी पद पर रहते हुए यशपाल कपूर का रायबरेली में इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट की जिम्मेदारी संभालना और उनकी चुनावी रैली के लिए मंच बनाने में जिला प्रशासन का इस्तेमाल ही दो जुर्म थे, जिनकी बिना पर 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लोकसभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी थी और उनके चुनाव लड़ने पर 6 साल के लिए रोक लगा दी थी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण की याचिका पर न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा के इस आदेश के केवल दो हफ्ते बाद, 25-26 जून 1975 की रात राष्‍ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने केन्द्र सरकार की सिफारिश पर अनुच्छेद 352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी थी।

इस मायने में इसे अपना राज बचाने और उस दौर में प्रचलित ‘आपातकाल के तीन दलाल/ संजय, विद्या, बंसीलाल’ के नारे को याद रखें तो इसे ‘एक वंश का राज बचाने की कोशिश’ भी कहा जा सकता है। प्रधान सेवक ने हाल ही में मुम्बई की एक रैली में और फ़कत ‘टेलीकांफ्रेंसिंग वित मंत्री’ रह गए अरूण जेटली ने अभी आपातकाल के 43 साल पूरे होने पर अपने ब्लागों में प्रकारान्तर से यह कहा भी है। लेकिन लोकतंत्र पर विपक्ष के हमले और अराजकता की आहटों, ‘विभाजन और विखंडनकारी ताकतों की अतिसक्रियता’ के इंदिरा गांधी के तर्क को तो संसद में तभी खारिज कर दिया गया था। ‘दोनों सदनों में केवल अत्यन्त जरूरी और महत्वपूर्ण सरकारी कामकाज निपटाने’ के सरकार के संकल्प के साथ 21 जुलाई 1975 को शुरू हुये संसद के विशेश सत्र में गोपालन ने कहा था, ‘‘आपातकाल की औचक घोषणा, आंतरिक सुरक्षा को किसी वास्तविक खतरे के कारण नहीं, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के कारण, गुजरात के चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ जनादेश के कारण और चुनावी अपील पर उच्चतम न्यायालय का अंतिम फैसला आने तक प्रधानमंत्री का पद छोड़ने से इंदिरा गांधी के इंकार के कारण की गयी है।’’

पश्चिम बंगाल में वर्दवान से पहली बार चुनकर लोकसभा में पहुंचे सोमनाथ चटर्जी ने बैठक शुरू होते ही प्रश्‍नकाल, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, गैर-सरकारी विधेयन, तमाम अन्य कामकाज और विभिन्न नियमों के तहत कोई भी अन्य चर्चा स्थगित करने पर कड़ा एतराज करते हुए ‘व्यवस्था का प्रश्‍न’ उठाया था। ‘एक बनावटी और अवैध आपातकाल लागू करने के बाद अब तथाकथित आपात अधिवेशन के नाम पर संसद, अवाम और देश को एक भयावह और दारूण अवस्था में धकेलने’ की उनकी टिप्पणी से साफ था कि उनका प्रश्‍न आपातकाल पर हमले की एक संसदीय युक्ति भर था। आज तो अजीब यह भी लग सकता है कि उस अंधेर में भी लोकसभा अध्यक्ष जी.एस. ढिल्लन ने सदस्यों को इस पर बोलने की इजाजत दे दी थी, यद्यपि ‘व्यवस्था का प्रश्‍न’ उन्होंने नामंजूर कर दिया था। सोमनाथ और माकपा के ए.के. गोपालन, स्वतंत्र पार्टी के पी.के. देव, जनसंघ के जगन्नाथ राव जोशी, द्रमुक के इरा सेझियन, भाकपा के इंद्रजीत गुप्ता और कांग्रेस-ओ के मोहन धारिया ने इसी चर्चा का इस्तेमाल कर सदन में आपातकाल की कड़ी निंदा की। सेझियन ने तो यहां तक याद दिलाया कि ‘ब्रिटिश भारत में 14 सितम्बर 1942 को जब असेम्बली की आपात बैठक बुलायी गयी, तब भी प्रश्‍नकाल नहीं स्थगित किया गया था।’ लेकिन विपक्षी नेताओं के इन भाषणों की कोई रिपोर्टिंग नहीं हुई, सूचना-प्रसारण मंत्रालय एक सर्कुलर जारी कर रिपोर्टिंग पर रोक लगा चुका था।

सामान्य कामकाज स्थगित करने के सरकार के प्रस्ताव पर मत-विभाजन में कांग्रेस-ओ, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्‍ट पार्टी की नेशनल डेमोक्रटिक फ्रंट के 65, माकपा के 25 और अन्य विपक्षी दलों के जेल से बाहर बचे रहे 76 सदस्यों ने ही विरोध में मतदान किया और प्रस्ताव 301 मतों से पारित हो गया। इसके बाद कुछ सदस्यों की आपत्तियों के बीच कृषि मंत्री जगजीवन राम ने आपातकाल की घोषणा के अनुमोदन का सांविधिक संकल्प सदन के विचारार्थ पेश किया। सदस्यों का मत था कि यह संकल्प गृह मंत्री को सदन में रखना चाहिए था। चर्चा में मोहन धारिया ने आपातकाल की घोषणा और उसके पहले भी लोकतांत्रिक संस्थानों पर इंदिरा गांधी के हमलों के ब्यौरे देते हुए याद दिलाया कि ‘ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमन्स के प्रवेश-द्वार पर एक तख्ती लगी है और उस पर वॉल्तेयर की एक मशहूर उक्ति अंकित है कि ‘मुझे आपके विचार सख्त नापसंद हैं लेकिन फिर भी मैं मत अभिव्यक्त करने के आपके अधिकार की रक्षा के लिये अपनी जान तक की बाजी लगा दूंगा।’ अगले दिन चर्चा पर इंदिरा गांधी के उत्तर, आर.एस.एस. और जनसंघ पर कानाफूसी अभियान चलाने, भ्रामक सूचनाएं और अफवाहें फैलाने, मार्क्‍सवादियों पर उनके साथ हाथ मिला लेने के उनके आरोप और लोकतंत्र की रक्षा के लिए आपातकाल अपरिहार्य हो जाने की उनकी दलील के साथ सदन ने 59 के मुकाबले 336 वोटों से इसका अनुमोदन कर दिया। इसी दिन राज्यसभा ने भी इसे मंजूरी दे दी और दोनों सदनों ने आपातकाल और नागरिक स्वतंत्रताओं पर लगायी गयी तमाम बंदिशों के न्यायिक पुनरीक्षण पर रोक के प्रावधान वाले 38वें संविधान संशोधन विधेयक पर भी मुहर लगा दी। पर असली चिंता तो इलाहाबाद उच्च न्यायलय के फैसले को निरस्त करवाने की थी, जिसके खिलाफ इंदिरा गांधी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट चार दिन बाद ही सुनवाई करने वाला था। 7 अगस्त 1975 को लोकसभा और 8 अगस्त को राज्यसभा ने 39वां संविधान संशोधन पारित कर राष्‍ट्रपति, उपराष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के निर्वाचन की न्यायिक समीक्षा पर रोक लगा दी। इसी दिन सरकार ने कानून प्रवर्तन एजेंसियों को आंतरिक सुरक्षा की खातिर किसी को भी अनिश्चितकाल के लिए एहतियाती हिरासत में रखने और बिना किसी वारंट के उसके परिसरों की तलाशी-जब्ती का अधिकार देने के लिये 1971 में बने मीसा कानून को नौवीं अनुसूची में डालकर इसे न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया।

ये और बात है कि इस संशोधन के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जब इंदिरा गांधी का निर्वाचन वैध ठहरा दिया तो 10 नवम्बर 1975 को यरवदा जेल से पत्र लिखकर तत्कालीन सरसंघ चालक बालासाहेब देवरस ने न केवल उन्हें बधाई दी, बल्कि जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और सत्ता की राजनीति से संघ का किसी तरह कोई लेना-देना नहीं होने का आश्‍वासन भी दिया। देवरस ने गुहार लगायी कि प्रधानमंत्री, संघ से प्रतिबंध हटाकर स्वयंसेवकों को ‘अपने नेतृत्व में अपने योजनाबद्ध कार्यक्रम के क्रियान्वयन में भाग लेने देने’ का अवसर दें।

यह आपातस्थिति का पूर्वकाल था। आप इसमें आपातकाल के दौरान हुई हजारों गिरफ्तारियों, गैर-कांग्रेसी सरकारों की बर्खास्तगी, अभिव्यक्ति और अन्य नागरिक अधिकारों के स्थगन, प्रेस पर पाबंदी और तमाम ज्यादतियों को भी जोड़ ले सकते हैं, जो उस समय जवान हो रही पूरी पीढ़ी की जुबान पर हैं। आपातकाल में पर्दे के पीछे पूरे देश की कमान संजय के ही हाथ में थी। उनकी इच्छा, उनका आदेश ही कानून था। उनकी मां संजय की आलोचना, उनके खिलाफ कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थीं, इंद्रकुमार गुजराल और शेख अब्दुल्ला जैसी महत्वपूर्ण हस्तियों के मुंह से भी नहीं। कहते हैं कि सत्ता और अपनी बढ़ती ताकत के दुरूपयोग और इनके दुष्‍परिणामों को लेकर संजय गांधी के खिलाफ शिकायत का खामियाजा पी.एन. हक्सर जैसे सबसे ज़हीन और शक्तिशाली प्रधान सचिव तक को भुगतना पड़ा था। गुजराल सूचना प्रसारण मंत्रालय से विदा हो चुके थे, विद्याचरण शुक्‍ल उनकी जगह ले चुके थे और बंसीलाल के साथ वह भी संजय के खास सिपहसालारों में थे। मुख्यमंत्री-प्रधानमत्री न्यायिक प्रक्रिया से परे सीधे पुलिस मुठभेडों की खुली वकालत नहीं कर रहा था, लेकिन संजय ने शासन को पुलिसराज में बदल दिया था। इंदिरा गांधी के लोक-लुभावन 20 सूत्री कार्यक्रम पर संजय गांधी का 5 सूत्री, खासकर समयबद्ध, जबरिया नसबंदी का कार्यक्रम भारी था, 13 अप्रैल 1976 के मशहूर तुर्कमान गेट कांड से पहले इलाके का मुआयना करने पहुंचे संजय गांधी को दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष रहे जगमोहन का संग-साथ था, वही जगमोहन जो बाद में भाजपा की सरकार में केन्द्रीय शहरी विकास और पर्यटन मंत्री तथा दिल्ली, गोवा, जम्मू-कश्‍मीर के राज्यपाल भी रहे।

संघ-भाजपा के बहुतेरे नेताओं से उलट, आपातकाल में 19 महीने सलाखों के पीछे रहे अरूण जेटली शायद इन प्रसंगों को याद न करना चाहें। शायद वह यह भी भूल जाना चाहें कि बाद में उनकी ही पार्टी ने विद्याचरण शुक्ल को भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लडाया, वह हरियाणा में बंसीलाल की सरकार में शामिल हुई और संजय गांधी की पत्नी मेनका तो अब भी उनकी सरकार में मंत्री हैं। और यह तब है, जब ‘इमरजेंसी के तीन दलाल’ केवल एक नारा नहीं था, बल्कि शाह आयोग ने तीनों को आपातकाल की ज्यादतियों का दोषी भी ठहरा दिया था। जेटली अपने ब्लाग में इंदिरा गांधी की तुलना हिटलर से करने को भी आजाद हैं, गोकि गाली के तौर पर हिटलर के नाम का इस्तेमाल संघ-भाजपा में शायद नयी परम्परा की शुरूआत है वरना नस्ली शुद्धता का हिटलर का सिद्धांत, यहूदियों और समाजवादियों के खिलाफ हिटलर की आत्यंतिक घृणा और दोनों के सफाये का उसका संकल्प, उसकी कार्यनीति, तो मुंजे से लेकर गुरू गोलवलकर तक के लिए प्रेरणा के भारी स्रोत ही रहे हैं।

बहरहाल सत्ता में बने रहने के लिए संवैधानिक संस्थानों और प्रावधानों की तोड़-मरोड़ और नागरिक स्वतंत्रताओं पर हमले, इंदिरा गांधी के आंतरिक आपातकाल और हिटलर के फासीवादी शासन के बीच समानता के कुछेक इलाके ही हैं वरना हिटलरशाही तो दरअसल भावनाएं भड़काने, एस.एस. और एस.ए. जैसे अपने जरखरीद लिंचमॉब और ट्रोल्स का इस्तेमाल कर विभेद गहराने और अल्पसंख्यक यहूदियों को निशाना बनाने जैसे तौर-तरीको से अपनी जीवनी-शक्ति हासिल करता था। आपातकाल में जबरिया नसबंदी जैसे कुछेक अभियानों का खामियाजा मुख्यतः दलितों, पिछडों, अल्पसंख्यकों और वंचित समुदायों को भले उठाना पड़ा हो, उस दौर में धर्म, नस्ल और जाति के आधार पर नागरिक समुदायों के बीच विभेद का आरोप लगाना शायद ही संभव हो। इंदिरा गांधी के कटु आलोचकों ने भी उन पर पुनरूत्थानवाद और आक्रामक धुर-राष्‍ट्रवाद का आरोप कभी नहीं लगाया जो हिटलर के फासीवाद की खास पहचान थी। और सबसे महत्वपूर्ण शायद यह कि खुद इंदिरा गांधी ने आपातकाल वैसे ही अचानक खत्म कर दिया गया जैसे एक रात वह अप्रत्याशित तौर पर लागू कर दिया गया था।

जनवरी की एक रात, 8.00 बजे उन्होंने आकाशवाणी पर एक प्रसारण में घोषणा कर दी कि लोकसभा भंग कर दी गयी है और मार्च में चुनाव होंगे, जबकि अभी केवल 63 दिन पहले, 5 नवम्बर 1976 को ही लोकसभा का कार्यकाल दूसरी बार, फरवरी 1978 तक के लिये बढ़ा दिया गया था। यह आपातस्थिति का उत्तरकाल था। पूर्वकाल में संभावित विरोधियों को भी जेल के सींखचों के पीछे धकेल देने, विरोधी जुबानों को बंद करने, न्यायिक और संवैधानिक प्रक्रियाओं के ध्वंस- सबमें कैसी तेजी थी और कैसी त्वरा, यह अब आम जानकारी है। लेकिन संसद का कार्यकाल फरवरी 1978 तक बढ़ाने के बाद आखिर जनवरी 1977 के आसपास ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने आपातकाल खत्म करने और मार्च में चुनाव कराने की औचक घोषणा कर दी, यह गौरतलब है।

जाने-माने पत्रकार और स्तंभकार इंदर मलहोत्रा की मानें तो हुआ यह था कि ‘अब्दुल रहमान अंतुले ने संविधान संशोधन कर राष्‍ट्रपति शासन प्रणाली स्थापित करने का सुझाव दिया और रजनी पटेल के हस्ताक्षर से इस आशय का एक पत्र देवकांत बरूआ, रजनी पटेल और सिद्धार्थ शंकर राय की तिकड़ी ने इंदिरा गांधी के पास भेजा। इंदिरा की ओर से यह तिकड़ी ही तमाम कानूनी और संवैधानिक मामले देखती थी। पत्र में इसके लिए एक नयी संविधान सभा बनाने की जरूरत भी बतायी गयी थी।’

मलहोत्रा ने 4 अगस्त 2014 को इंडियन एक्सप्रेस के अपने स्तम्भ में लिखा, ‘‘लेकिन इसी बीच अंतुले ने यह बात लीक कर दी और संजय गांधी के चापलूसों की फौज तुरंत संविधान सभा के गठन की मांग पर अड़ गयी। कुछ तो उस समय की संसद को ही संविधान सभा बना देने का सुझाव भी दे रहे थे। वे इस बात को लेकर उत्साहित थे कि संविधान सभा का काम सम्पन्न होने तक चुनाव तो टालना ही पड़ेगा लेकिन यह इंदिरा गांधी को कतई अस्वीकार्य था।’’ वह कहते हैं कि इंदिरा गांधी अभी असमंजस में ही थीं कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और बिहार की विधानसभाओं ने प्रस्ताव पारित कर संविधान सभा बनाने की मांग उठा दी, जिससे उनके कान खड़े हो गए। इसी के बाद उन्होंने दिसम्बर 1976 में अपने प्रधान सचिव पी.एन. धर को मुख्य चुनाव आयुक्त टी. स्वामीनाथन से बात करने और उन्हें बिना शोरगुल किये चुनाव की तैयारियां शुरू कर देने के लिए कहने का निर्देश दे दिया था।

आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव रहे पी.एन. धर ने भी एक इंटरव्यू में इस बात की तस्दीक की थी। उन्होंने कहा था कि ‘वह संजय गांधी के बेकाबू होते जाने को लेकर चिंतित थीं और जानती थीं कि संजय के कुछ लोग उनका कार्यकाल आजीवन बढ़ाने के लिए नयी संविधान सभा बनवाने की कोशिश कर रहे हैं।’

धर ने तो रेडिफ डॉट कॉम को 18 साल पहले दिए इस इंटरव्यू में इंदिरा गांधी को ’अर्द्ध-तानाशाह’ तक कहा था। आपातकाल की घोषणा के बाद लोकसभा की पहली बैठक के पहले दिन श्री सेझियन को भी हिटलर की जर्मनी की याद आयी थी और उन्होंने राजनीतिक फायदे के लिए घटनाएं ‘मैनुफैक्चर और मैनीपुलेट’ करने की नाजियों की मास्टरी के कुछ उदाहरण भी दिए थे, लेकिन कहा था, ‘‘मैं इंदिरा गांधी की तुलना हिटलर से नहीं करूंगा।’’ पर चुनाव की घोषणा कर स्वयं उस काले अध्याय के पटाक्षेप और चुनाव कराने की इंदिरा गांधी की पहल के बावजूद अरूण जेटली ने उनकी तुलना हिटलर से तो की ही है, आपातकाल लागू करने की उनकी दलीलों से उन्हें 27 फरवरी 1933 को जर्मनी पार्लियामेंट ‘रीखस्टैग’ में आगजनी की वह घटना याद आ जाती है जिसने केवल महीने भर पहले चांसलर नियुक्त हिटलर की पकड़ मजबूत करने और केवल महीने भर बाद हुए चुनावों में नाजी पार्टी के वर्चस्व में अहम भूमिका निभायी थी। और न्युरेमबर्ग ट्रायल्स के दौरान जिसके बारे में खुलासा हुआ था कि नाजी संगठन में हिटलर के बाद दूसरे सबसे बडे नेता हरमन गोरिंग ने ही पहले पार्लियामेंट हाउस में आग लगवायी थी और फिर गोयबल्स के साथ साजिश कर इसकी जवाबदेही कम्युनिस्‍टों पर डाल दी थी।

हो सकता है, आपको ‘रीखस्टैग’ से कुछ और ही याद आ जाये…