आंदोलन और अराजकता!


भारतीय  जनता  पार्टी  के  वरिष्ठ नेता  कभी नहीं चाहते थे कि  बाबरी  मस्जिद  गिराई  जाये लेकिन 6 दिसंबर,1992  के दिन  अयोध्या में  लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती  जैसे  नेताओं  के रहते  हुए   कारसेवक  बाबरी  मस्जिद पर चढ़े और देखते -ही-देखते  गुम्बदें  ढाह  दी गयी। इससे पहले  मुख्यमंत्री  कल्याण सिंह  ने  सुप्रीम  कोर्ट  हलफनामा दायर किया था कि  मस्ज़िद  की रक्षा  की  जायेगी।  दिल्ली  में कांग्रेसी  प्रधानमंत्री  पी. वी. नरसिम्हा राव टुकुर -टुकुर  देखते  रहे।  अयोध्या  में अराजक  तत्व  अपना हिंसक  कमाल  दिखते रहे।  इन तत्वों में  कितने  प्रतिशत  कारसेवक  थे  और   कितने  अराजक, विवाद  का विषय  है। लेकिन इतना  तो  कहना  ही पड़ेगा कि  भाजपा  के  शीर्ष  नेतृत्व  की  उपस्थिति  में  मस्ज़िद  विध्वंस  नेतृत्व -असफलता ही दर्शाता  है। 


रामशरण जोशी रामशरण जोशी
काॅलम Published On :


देश के  गणतंत्र दिवसइतिहास में  26 जनवरी ,2021 का दिन  ऐतिहासिक  रहेगा; राजकीय  और किसान  दिवसों का आयोजन  समानान्तर  आयोजित हुआ लेकिन, आंदोलनरत  किसानों के  आयोजन में  आंशिक  अराजकता  के  विस्फोट  से  किसानप्रतिरोध  विवादों के घेरे में ज़रूर  खड़ा हो गया है।  अब  इस  पर  राजसत्ता का कहर  बरपा  होने की आशंकाएं  ज़रूर  मँडराने  लगी हैं। दूसरी तरफ  किसानों के  इरादे भी  मुस्तैद  दिखाई दे रहे हैं। 

असल  सवाल यह  है कि  क्या  आंदोलन  निरापद रहते हैं? अराजकतामुक्त  रहते हैं ? क्या सत्ताओं के फैसले  ‘फूल प्रूफहोते हैं? इसके  ज़वाब इतिहास  में हैं।  कोई  भी जनकार्रवाई ( आंदोलन ,प्रतिरोध , क्रांति आदि )   विवादमुक्त होती है, ही  अराजकता  रहित।  मैं  दूर नहीं जाऊँगा इतिहास में,  चंद  घटनाओं  का  उल्लेख करूंगा।  गाँधी जी के नेतृत्व  में चले  अहिंसक आंदोलन के दौरान  ‘चौरी चोरा हिंसक घटना’  हुई  फरवरी ,1922  में. इस  हिंसक घटना के  बाद  बापू ने अपना आंदोलन स्थगित  कर दिया  था।1974 -75  में जे.पी  की  सम्पूर्ण  क्रांति  का पटाक्षेप कितना  दुखद रहा, सभी  जानते  हैं।  1984 के  सिख विरोधी  हिंसा  के  दौरान  नवमनोनीत  प्रधानमंत्री  राजीव गाँधी  का  असफल  नेतृत्व  उजागर  ही हुआ। इंदिरा गाँधी के  लिए   खालिस्तानी नेता संत  भिंडरांवाला  का  इस्तेमाल  कितना  घातक सिद्ध हुआ, इतिहास  में दर्ज है।  प्रधानमंत्री को  अपने प्राणों की  आहुति देनी पड़ी।  राजीव गाँधी की भी नियति इससे भिन्न कहाँ रही

भारतीय  जनता  पार्टी  के  वरिष्ठ नेता  कभी नहीं चाहते थे कि  बाबरी  मस्जिद  गिराई  जाये लेकिन 6 दिसंबर,1992  के दिन  अयोध्या में  लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती  जैसे  नेताओं  के रहते  हुए   कारसेवक  बाबरी  मस्जिद पर चढ़े और देखतेहीदेखते  गुम्बदें  ढाह  दी गयी। इससे पहले  मुख्यमंत्री  कल्याण सिंह  ने  सुप्रीम  कोर्ट  हलफनामा दायर किया था कि  मस्ज़िद  की रक्षा  की  जायेगी।  दिल्ली  में कांग्रेसी  प्रधानमंत्री  पी. वी. नरसिम्हा राव टुकुर –टुकुर  देखते  रहे।  अयोध्या  में अराजक  तत्व  अपना हिंसक  कमाल  दिखते रहे।  इन तत्वों में  कितने  प्रतिशत  कारसेवक  थे  और   कितने  अराजक, विवाद  का विषय  है। लेकिन इतना  तो  कहना  ही पड़ेगा कि  भाजपा  के  शीर्ष  नेतृत्व  की  उपस्थिति  में  मस्ज़िद  विध्वंस  नेतृत्वअसफलता ही दर्शाता  है। 

वर्तमान  किसान  प्रतिरोध  बहुरंगी  है।  इसमें  विभिन्न  विचारधारपंथी  तत्व  शामिल हैं।  सेंट्रल  कमांड  का अभाव है।  देश  की राजसत्ता  प्रचंड रूप से  बलशाली है।  जिस  दीप  सिंधु  का नाम सामने रहा  है  उसकी  विगत  गतिविधियाँ  संदेहास्पद हैं।  प्रधानमंत्री  मोदी के साथ उसका चित्र है, भाजपा सांसद  सन्नी देओल  के   चुनाव प्रचार में शामिल रहा है। जब  वह और उसके साथी  लाल किले  की प्राचीरों पर थे  उस समय  पुलिस  की टुकड़ी  नीच  मैदान में  बैठी हुयी थी! यह  पिछले साल  जामिया  विश्विद्यालय के  छात्र आंदोलन  के समय की घटना की याद  दिलाता  है जब एक युवक  हथियार  लहराता हुआ  आता है और पुलिस उसे  आने देती है, फिर  बड़े  प्यार से  अपने साथ  ले जाती है।  दिल्ली  के साम्प्रदायिक  दंगों के  दौरान पुलिस अधिकारी की  उपस्थिति में   भाजपा  नेता  कपिल मिश्रा  धमकियाँ  देता है।  दिल्ली चुनाव  के समय  केंद्रीय राज्यमंत्री  अनुराग ठाकुर  खुले आम नारे लगवाते  हैं—देश के गद्दारों को…गोली मारो… ! ऐसे  नेताओं  के खिलाफ  कोई  एक्शन  नहीं लिया जाता  है।  इससे  किस प्रकार का सन्देश  क़ानूनव्यवस्था  देना चाहती  है ?  जब  राजसत्ता  समदर्शी  नहीं  रहेगी  तो हिंसा   अराजकता  को  बढ़ावा  मिलेगा।  अराजकता,  अराजकता को जन्म देती  है।  यदिअपनेपराये और  हमवे’  के  भेद से   शासक   तटस्थ  रहे  तो   अराजकता  असामाजिक तत्वों  पर   काबू  पाया जा सकता है।  यह  बात  सिर्फ  भाजपासरकार  पर ही  लागू  नहीं  होती  है , गैरभाजपा   सरकारें  भी  इस दायरे में  आती  हैं।  देश के वरिष्ठतम  नेता   शरद   पवार   ने   कल  की अराजकता  के  लिए  केंद्र  सरकार  को  ज़िम्मेदार ठहराया है।  याद रहे, पवार  10  वर्ष तक  कृषि  मंत्री रह  चुके हैं।  उन्होंने पहले भी  किसानों  की समस्या  के  वांछित  समाधान के लिए  मोदीसरकार को  पहले भी चेताया  है। 

लालकिले पर दीप  सिंधु  और उनके साथियों  द्वारा  दो झंडे  फहराने और  आई टी   की घटना की  स्वतंत्र  जांच  होनी  चाहिए।  इस जाँच समिति में  न्यायाधीश   सरकारी  पक्ष  के अलावा किसान नेता, नागरिक अधिकारकर्मीरिपोर्टिंग  करनेवाले मीडियाकर्मी  भी  शामिल होने चाहिए।   चैनल  पर  काफी साक्ष्य  मौजूद  हैं। 

सारांश  में , वर्तमान  किसान  प्रतिरोध  को   व्यापक  परिप्रेक्ष्य में   देखा जाना चाहिए।  इसे  कानूनव्यवस्था  तक ही सीमित नहीं करना  चाहिए। वास्तव में आंदोलन और अराजकता  संगसंग चलते हैं।  इनके बीच   यारीदुश्मनी  का रिश्ता रहता है।   इसलिए नेतृत्व से   भी  प्रचंड  सतर्कता   कौशल  की   उम्मीद  रखी  जाती है।