प्रपंचतंत्रः फीफा के हम खलीफा

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काॅलम Published On :


अनिल यादव

अचानक पब्लिक फुटबाल खेलने लगी है. इसके पहले से मोदी-राहुल, हिंदू-मुसलमान, बैंक-नोट-सरकार, हत्या और गाय आदि खेले जा रहे हैं. किसी भी खेल की तरह इन खेलों मे भी पब्लिक की भूमिका ये या वो वाली टीम चुनकर रणनीति की बारीकियां बताने, गूगल की कृपा से रिकार्ड गिनाने और अंततः सामने वाले की जात बताने भर की है. इधर राहुल की टीम ने कई प्रतिद्वंदी क्लबों के महंगे खिलाड़ियों को अपने साथ जोड़ा है, गेंद को तालमेल से अपने पास रखा है, कर्नाटक में कुहनी-सूटकेस-लंगड़ी के फाउल के बीच जूझते हुए हेडर से गोल किया है. इसके बाद से पब्लिक राहुल को पप्पू कहकर हूट नहीं कर रही. वो अब बताने लगी है कि अगर अपोजिशन ऐसे और वैसे… यानि समझदारी से खेले तो 2019 के फाइनल में बाजी पलट सकती है. वरना तो पिछले चार साल से शस्य श्यामल इंडिया स्टेडियम की दर्शक दीर्घा में एक ही आरोह-अवरोह मौदी! मौदी!! ही सुनाई दे रहा था.

जब से रूस में वर्ल्डकप चालू हुआ या कहिए कि मीडिया में फुटबाल का कीर्तन शुरू हुआ है पब्लिक के जागरूकतम अपनी पसंद की टीमों की जर्सी पहनने लगे हैं, टीवी के आगे पॉपकार्न या पापे के साथ फुटबाल के रिकार्ड, खेल के जार्गन, खिलाड़ियों और उनकी प्रेमिकाओं के नामों के सही उच्चारण चबाने लगे हैं. यही क्रिकेट के साथ किया जाता है जिसे न जाने किस धर्माधिकारी ने भारत का धर्म घोषित कर दिया है. धर्म के खेल में तो यह उससे भी पहले से किया जा रहा है जहां पब्लिक नहीं, खुद त्रिपुंड के टैटू वाले स्टार खिलाड़ी ही साधना का कौशल और मोक्ष के अचूक शॉट लगाने की विधि बताते हुए व्यापार, बलात्कार, मंत्रीपद का जुगाड़, भेड़ों का संहार कर रहे हैं.

हम खुद नहीं खेलते सिर्फ खेल के बारे में बातें करते हैं. हम मानसिक कुंठा के खिलाड़ी हैं जिनकी जीत-हार जात-धर्म, आर्थिक हैसियत, व्यक्तिगत इतिहास और मां-बहनों की चारित्रिक स्थिति से तय होती है. चूंकि शारीरिक रूप से खेलना जरूरी नहीं है इसलिए हमारे पार्कों में भैंसे बंधती हैं, कारें खड़ी होती हैं, कब्जा कर दुकान और मॉल बनते हैं, और कुछ नहीं तो सारी कालोनी कूड़ा डालती है और कुत्ते हगाती है. खेल फेडरेशन खुद राजनेता या उनके चंपू चलाते हैं जो आजीविका के लिए घूस देने को तत्पर एवं उपकृत करने में समर्थ बड़े लोगों के बच्चों को पहले स्पोर्टस हॉस्टल फिर घूमने के लिए विदेश भेजते हैं. कभी-कभार खेल कल्चर को धक्का मारकर आगे बढ़ाने की झोंक में ललित मोदी और विजय माल्या जैसे खिलाड़ियों को खुद विदेश में बस जाना पड़ता है.

शरीर को सेक्स के अलावा कहीं और कष्ट देना या तो नीचों का काम है या भगवान का लेकिन उन कामों के बारे में जीभ से चलने वाले हैंडलूम पर महीन सूत कातना महानता है. क्या हमें पढ़ाया नहीं गया है कि विश्व के अधिकांश खेलों की शुरुआत भगवान कृष्ण की कंदुक क्रीड़ा एवं तदुपरांत कालियानाग के मर्दन से होती है! हम अपनी आस्था के प्रकोप से जानते हैं कि कंदुक मर्दन का निमित्त थी इसलिए सीधे मर्दन ही खेलते हैं.

संविधान में नीचों और स्त्रियों को बराबरी का अधिकार मिलने से, नेहरू के गामा को लंदन ले जाकर जिबेस्को से लड़ाने, खेल भावना पर सतत भाषण देने, ध्यानचंद-मेजर जयपाल सिंह-पीटी ऊषा जैसों के व्यक्तिगत करिश्मों से उम्मीद पैदा हुई थी कि हम खेलने लगेंगे लेकिन तभी खेल में बिजनेस और सट्टा घुस गया. अब खिलाड़ी वही समझा जाता है जो करोड़ों की कीमत का लड़ाकू मुर्गा, सलोना तीतर या ग्लैडिएटर है. स्टेडियमों के आसपास अपने नौनिहालों का इंतजार करने वाले सबसे भीषण खेलप्रेमी लगते अभिभावक भी अब अपने बच्चे को खेलने नहीं देना चाहते. वे चाहते हैं कि उनका फुर्तीला बच्चा क्रिक्रेट की ग्लैमरस मनरेगा से करोड़ों की दिहाड़ी खींचकर लाए. वह ऑटोग्राफ देता घूमे और सारा परिवार ऐश करे.

ऐसा इसलिए हुआ कि बिजनेस खेल से जरा पहले हमारी राजनीति में विनम्रतापूर्वक घुसा था. कारपोरेट ने सभी प्रमुख टीमों या राजनीतिक पार्टियों को धीरे-धीरे नीलामी में खरीद लिया. अब यही टीमें बारी-बारी से अकेले या गठबंधन करके सरकार बनाती हैं लेकिन उनकी आर्थिक नीतियां एक रहती हैं और वे एक ही तरह से विकास-विकास खेलती हैं. सरकारें अपने खुरों से इंडिया स्टेडियम को खोद कर धूल उड़ाती रहती हैं, कारपोरेट का माल बढ़ता जाता है. पब्लिक इस या उस टीम की ओर होकर तालियां, सीटियां बजाती रहती है.