तेल के बढ़ते दाम और बहुजन किसानों का संकट 

संजय श्रमण
काॅलम Published On :


बीते बयासी दिनों मे तालाबंदी के दौरान भारत मे आर्थिक प्रक्रियाओं को भयानक नुकसान हुआ है। उससे उबरने के लिए किसी सकारात्मक पहल की बजाय केंद्र सरकार पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा रही है।  पिछले बीस दिनों मे लगातार पेट्रोल डीजल के दामों मे वृद्धि हुई है और गुरुवार (25 जून) की शाम दिल्ली मे पेट्रोल 80.13 रुपये और डीजल 80.19 रुपये प्रति लीटर हो गया है। इसी महीने मे 7 जून से भारत मे रोजाना यह वृद्धि देखी जा रही है। भारत के इतिहास मे एसा पहली बार हुआ है जबकि डीजल के दाम पेट्रोल से अधिक हुए हैं। देशभर की विपक्षी पार्टियों ने इसपर प्रतिक्रियाएं दी हैं और सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने गुरुवार को कहा कि केंद्र सरकार इस संकट के समय में भी अपनी जेबें भरने में लगी है। इस मुद्दे पर कांग्रेस सोमवार को देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन करने वाली है। राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव ने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ गुरुवार को पटना में ईंधन की बढ़ती कीमतों के विरोध में साइकिल मार्च निकाला है। एनसीपी की नेता सुप्रिया सुले ने गुरुवार को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह किया कि वे आम आदमी को राहत प्रदान करने के लिए दरों को कम करें। 

तेल के दम बढ़ने के कारणों की जो व्याख्या दी गयी है वह भी विचित्र है। इंडियन ऑइल कार्पोरेशन के चेयरपर्सन संजीव सिंह का कहना है कि अन्य शहरों में वैट कम है, जिसका मतलब है कि पेट्रोल की तुलना में डीजल सस्ता है। सिंह ने कहा, “दिल्ली सरकार ने पेट्रोल पर वैट को 27 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत कर दिया और 5 मई को डीजल पर वैट 16.75 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत कर दिया।”  

पिछले महीने आए एक अध्ययन के मुताबिक भारत मे 13.5 करोड़ से अधिक लोगों के बेरोजगार होने और 12 करोड़ से अधिक लोगों के भयानक गरीबी की चपेट मे आने का अनुमान लगाया गया था। हम जानते हैं कि जमीन पर स्थिति अनुमानों की तुलना मे कहीं अधिक खराब होती है। तालाबंदी और कोरोना से भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाती सहित मुसलमान आबादी के लोग सर्वाधिक प्रभावित हो रहे हैं। असंगठित क्षेत्रों मे मजदूरी और सामाजिक धार्मिक भेदभाव के कारण इन समुदायों की सामाजिक आर्थिक स्थिति भारत के सवर्णों की तुलना मे बहुत अधिक कमजोर है। ऐसे मे सरकार द्वारा डीजल और पेट्रोल की कीमतों को लगातार बढ़ाते जाना आश्चर्यचकित करता है। यह आश्चर्य तब और बढ़ जाता है जबकि वैश्विक स्तर पर कच्चे तेलों की कीमत आज बहुत निचले स्तर पर है। इन गिरती कीमतों को देखते हुए भारत के गरीब लोग उम्मीद करते हैं कि तेल के दाम भारत मे भी कम होने चाहिए लेकिन सरकार को इसकी कोई फिक्र नहीं है। इस संबंध मे और किसी से नहीं तो हमारी सरकार पाकिस्तान से ही कुछ सबक ले सकती है। जिस पाकिस्तान को फेल्ड स्टेट और आतंकवादी बताया जाता है उसने भी मई के महीने मे तेल की कीमतों मे 15 से 38 प्रतिशत की कटौती करके इस कोरोना की आपदा के बीच अपनी जनता की मदद की है। 

भारत मे लगभग रोजाना ही इन दामों मे बढ़ोतरी को अर्थशास्त्र के किसी भी नियम से समझा नहीं जा सकता। यह विशुद्ध रूप से सरकार के नीतिगत फैसलों से जुड़ा मुद्दा है। अगर फ्री मार्केट के हाथ मे यह निर्णय लेने का अधिकार होता तो भारत मे भी पेट्रोल डीजल के दाम काफी कम हो सकते थे। एक तरफ वैश्विक बाजार मे तेल बहुत सस्ता है, दूसरी तरफ तालाबंदी के कारण अधिकांश आर्थिक उत्पादन और ट्रांसपोर्ट बंद होने से देश मे तेल की मांग भी कम हो गयी है। ऐसे मे तेल की कीमतें बढ़ने का कोई तर्क ही समझ मे नहीं आता। न सिर्फ केंद्र बल्कि राज्य सरकारें भी जिस अनुपात मे तेल पर टेक्स लगा रही हैं उसके कारण यह वृद्धि रुकने का नाम नहीं ले रही है। तेल की कीमत मे बढ़ोतरी सहित शराब बिक्री से जो रेवेन्यू आ रहा है उसका कोई उपयोग जनकल्याण के कामों मे होता नजर नहीं आता है। कोरोना से निपटने के लिए पीएम केयर फंड को सरकारी संस्थाओं से 5349 करोड़ और निजी संस्थाओं से 4223 करोड़ रुपये पहले ही मिल चुके हैं। कोरोना से निपटने के लिए भारत ने वर्ल्ड बैंक से 75 अरब रुपये और एशियाई विकास बैंक से 1.5 खरब रुपये का कर्ज भी लिया है। 

इस तरह एक बड़ा अर्थ भंडार भारत के पास है और काफी बड़ी धनराशि निकट भविष्य मे आने वाली है। इस सब पैसे का कहाँ और क्या उपयोग हो रहा है कोई नहीं जानता। इतनी बड़ी धनराशि जो अलग अलग स्रोतों से आ रही है उसका इस्तेमाल न तो मजदूरों की घर वापसी के लिए देखा गया न ही स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के लिए देखा गया है। मजदूरों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने भी ट्रांसपोर्टेशन की उचित व्यवस्था नहीं की और न ही स्वास्थ्य कर्मियों, चिकित्सकों और मरीजों के लिए आवश्यक पीपीई किट, टेस्टिंग किट या मास्क इत्यादि का इंतजाम किया। यहाँ भी नोट करने वाली बात यह है कि कोरोना से जमीन पर जंग लड़ रहे स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिस फोर्स मे ज्यादातर ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग ही शामिल हैं। प्राइवेट और बड़े अस्पतालों मे जहां सवर्ण और धनी मानी डॉक्टर काम करते हैं आजकल उनके दरवाजे आम आदमी के लिए बंद हैं, वे कोरोना मरीजों को तो छोड़िए आम मरीजों को भी नहीं देख रहे हैं। सारे सरकारी अस्पतालो मे मेडिकल ऑफिसर्स से लेकर सफाई कर्मी तक बड़ी संख्या मे बहुजन लोग काम कर रहे हैं जिनके लिए जीवन रक्षक उपकरणों की भारी तंगी आज भी बनी हुई है।

सरकार पेट्रोल डीजल के बढ़े दामों के जरिए जिस ढंग से रेवेन्यू कलेक्ट कर रही है वह भी बहुत निर्मम प्रक्रिया है। पिछले महीने ही प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत के लिए जो 20 लाख करोड़ का तथाकथित पैकेज दिया था उसमे चार एल (लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और लॉ) की बात कही गयी थी। लेकिन मजेदार बात यह है कि इस घोषणा के भी काफी पहले पाँचवा एल अर्थात लिकर को रेवेन्यू कलेक्शन के लिए खोल दिया गया था उल्लेखनीय है कि भारत मे प्रतिवर्ष 2.48 खरब रुपये का राजस्व मिलता है। शराब बिक्री से प्रतिबंध हटाकर इस राजस्व को हासिल करना सरकार की प्राथमिकता मे बहुत ऊपर आता है। कोरोना संक्रमण के खतरों के बीच शराब के ठेके खोलना जितना मूर्खतापूर्ण था उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण निर्णय आज के तेल के दाम बढ़ाने का निर्णय है। उस समय गर्मी के मौसम मे केवल कोरोना संक्रमण और बेरोजगारी का खतरा था लेकिन आज मानसून आ जाने के बाद कोरोना के साथ साथ गरीब किसानों मजदूरों और आम आदमी की खाद्य सुरक्षा से जुड़ा कहीं अधिक गहरा संकट आ खड़ा हुआ है। 

अभी देशभर के किसान फसलों की बुवाई मे लगे हैं। इस समय किसानों और खेत मजदूरों को आर्थिक मदद की जरूरत है ताकि वे अगले वर्ष के लिए ठीक से अनाज उत्पादन कर सकें। आज भारत कोरोना बीमारी के साथ चीन से युद्ध के भय मे भी जी रहा है। ऐसे मे किसानों मजदूरों को राहत देना न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि अगले वर्षों के लिए देश के हर नागरिक की खाद्य सुरक्षा से जुड़ा हुआ मुद्दा है। एक तरफ रिवर्स माइग्रेशन ने गाँव की अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया है दूसरी तरफ डीजल की बढ़ोतरी गरीब किसानों पर काल बनकर टूट रही है। यहाँ गौर करना चाहिए कि इसका भी सबसे बुरा असर बहुजन किसानों पर पड़ेगा जो कि छोटे किसान हैं या फिर भूमिहीन किसान हैं जो दूसरों की जमीनों पर खेती करके गुजारा करते हैं। इन छोटे बहुजन किसानों के पास अपनी जमीन जोतने के लिए स्वयं के ट्रैक्टर या मशीने नहीं होती हैं। इन्हे हर मशीन किराये पर लेनी होती है ऐसे मे डीजल पेट्रोल की कीमत बढ़ने का सीधा असर इन किसानों की लागत पर पड़ेगा। इसी के साथ ट्रांसपोर्ट महंगा होने से अधिकांश डीजल ट्रकों से आने वाले सभी सामानों की कीमत भी स्वतः ही बढ़ जाएगी। कुल मिलाकर यह सब पूरे भारत के गरीबों बहुजनों के लिए समस्याएं बढ़ाने का फैसला है।  

 



 

संजय श्रमण जोठे स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीयगैर शासकीय संस्थाओंविश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसीअनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित हो रहा है। यह इस स्तम्भ की  दसवीं कड़ी है।

पिछली कड़ियां—

बहुजन दृष्टि-10–-छद्म राष्ट्रवाद के शोर में गुम होते बहुजनों के मुददे

बहुजन दृष्टि-9– वामपंथ, समाजवाद और आंबेडकरवाद से विश्वासघात है बीजेपी की शक्ति का स्रोत !

बहुजन दृष्टि-8- अमेरिका के नस्लवाद विरोधी आंदोलन के बरक्स भारत की सभ्यता और नैतिकता!

बहुजन दृष्टि-7- मी लॉर्ड’ होते बहुजन तो क्या मज़दूरों के दर्द पर बेदर्द रह पाती सरकार?

बहुजन दृष्टि-6– बहुजनों की अभूतपूर्व बर्बादी और बहुजन नेताओं की चुप्पी यह !

बहुजन दृष्टि-5- आर्थिक पैकेज और ‘शोषणकारी’ गाँवों में लौट रहे बहुजनों का भविष्य

बहुजन दृष्टि-4– मज़दूरों के प्रति इस आपराधिक उपेक्षा की जड़ ‘धर्मसम्मत’ वर्णव्यवस्था में है !

बहुजन दृष्टि-3– इरफ़ान की ‘असफलताओं’ में फ़िल्मी दुनिया के सामाजिक सरोकार देखिये

बहुजन दृष्टि-2हिंदू-मुस्लिम समस्या बहुजनों को छद्म-युद्ध में उलझाने की साज़िश!

बहुजन दृष्टि-1— ‘सामाजिक दूरी’ पर आधारित समाज में सोशल डिस्टेंसिंग !




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