धर्म, महामारी और चित्रकला !


यूरोप में 1348 से आरम्भ होकर 1381 तक चले प्लेग की महामारी ने यूरोप की आधी आबादी को लील लिया था। इस महामारी का सबसे सटीक वर्णन इटली निवासी इतिहासकार एगनोलो डी टुरा ने किया था। एगनोलो  के अभिलेखों से पता चलता हैं की इस जुकाम जैसे रोग में बाँहों के नीचे- काँख में और पेट और जांध के बीच के भाग में सूजन होती थी और रोगी की जल्द ही मृत्यु हो जाती थी।  एगनोलो डी टुरा ने इस महामारी में अपने पाँचो बच्चों और अपने पत्नी को खोया था। चौदहवीं शदाब्दी के उत्तरार्ध में लिखे महाकाव्य, ‘पीअर्स प्लॉवमेन’ में अंग्रेज पादरी विलियम लैग्लैंड ने लिखा था, “अब ईश्वर बहरा हो गया है, अब वह  हमारी नहीं सुन पा रहा। यह हमारे पापों की सजा ही है कि ईश्वर मनुष्य को पीस कर धूल में तब्दील कर रहा है।”


अशोक भौमिक अशोक भौमिक
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प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक का यह लेख 19 अप्रैल 2020 को मीडिया विजिल में पहली बार प्रकाशित हुआ था। दरअसल, कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की साप्ताहिक शृंखला  ‘समय और  चित्रकला ‘ शीर्षक से लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। इस बार लगातार दस दिन तक छापेंगे। पेश है पहली कड़ी- संपादक।

 

विश्व चित्रकला का इतिहास में हम लम्बे समय तक धार्मिक चित्रों को ही पाते है जहाँ आम जनों के उपस्थिति नगण्य सी दिखती है। देवता के साथ भक्तों के रूप में और राजा की प्रजा के रूप में एक अनाम भीड़ की शक्ल में आम आदमी यदि दिखे भी हैं तो उनके सुख-दुःख की कथा चित्रकला के दायरे सा बाहर ही रही। कई सदियों पहले, पाश्चिम के चित्रकारों ने इस  स्थिति को तोड़ा और आम आदमियों को चित्रों के केंद्र में ले आये। पाश्चात्य चित्रकला का वैभव और वैविध्य इसी आम जन के लिए ही है।

हमारे देश में, बहुत बड़ी संख्या में ऐसे चित्र मिलते हैं, जिनमें देवी-देवताओं की लीला-कथा का चित्रण है। ये कथाएँ ,जाहिर है कि शुद्धरूप से कपोल-कल्पित हैं पर इतिहास में इन कथाओं को एक सच के रूप में प्रचार करने में चित्रों की सबसे प्रभावशाली भूमिका रही है। आदिम समाज व्यवस्था से लेकर आज तक, शासित (और शोषित) वर्ग का आकार न केवल विशाल रहा है बल्कि यह अशिक्षित और निरक्षर  होने के कारण धर्म और राज-सत्ता के दुश्चक्रों का शिकार होता रहा है। भारतीय चित्रकला का इतिहास वास्तव में ‘ चित्रणों ‘ ( इलस्ट्रेशन ) का ही इतिहास है।  दो हज़ार वर्षों से ज्यादा पुराने अजंता के भित्ति चित्रों में ‘चित्रित’ बौद्ध जातक कथाओं से लेकर, उनीसवीं सदी के राजा रवि वर्मा के चित्रों में धार्मिक और पुराण कथाओं के चित्रणों से हम परिचित हैं।

हमारे देश से भिन्न, पश्चिम की चित्रकला ने अपने होने का अर्थ ‘केवल ‘ चित्रणों में ही नहीं खोजा बल्कि वहाँ बड़े  पैमाने में ‘दस्तावेज़ी ‘ (डॉक्यूमेंटशन) चित्र भी बने। इलस्ट्रेशन या चित्रण से  डॉक्यूमेन्ट्री या दस्तावेज़ी चित्रों के फर्क को हम यूँ समझ सकते हैं। इलस्ट्रेशन या चित्रण, प्रायः काल्पनिक पात्रों और उनसे जुड़ी काल्पनिक घटनाओं का चित्रण होता है, वहीं डॉक्यूमेंटशन वास्तविक घटनाओं का दस्तावेज़ होता है। दस्तावेज़ी चित्रों में चित्रकार अपनी रचनाशीलता की छूट लेते हुए भी मूल घटना से दूर नहीं जाता है। कई बार मुग़लकालीन शासकों के लिखित जीवन इतिहास की घटनाओं को दस्तावेज़ के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से बने चित्रणों  (जैसे बाबरनामा, अकबरनामा) का प्रयोग दिखता है, पर यदि इसे दस्तावेज मान भी लिया जाये तो भी यह तत्कालीन समाज के एक शासक और उसके आसपास नाम-परिचयहीन राजपुरुषों के ही दस्तावेज़ है, जिसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है।

इसी के बीच, कहीं-कहीं पर चित्रणों के माध्यम से शासक और ईश्वर की समानताओं या तादात्म्य को स्थापित करना भी उद्देश्य रहा है। ईसा पूर्व अट्ठारवीं शताब्दी में बेबिलोनिया में बनी हम्मूराबी की विधिसंहिता (कोड ऑफ़ हाम्मूराबी) एक फलक पर उत्कीर्ण है। इस फलक के ऊपर दिखाया गया है कि सूर्य देवता, राजा हम्मूराबी को यह विधिसंहिता दे रहे हैं, लिहाज़ा मनुष्य द्वारा इस देव-निर्देशों का उल्लंघन ‘पाप’ है। इस प्रकार के चित्र, जो राजा और देवता के बीच एक अटूट रिश्ते को एक दस्तावेज़ की तरह प्रामाणिक बना कर जनता के दिलोदिमाग में डाल देने के उद्देश्य से रचे गए; चित्रकला के बेईमान और जनविरोधी चेहरे को हमारे सामने उजागर करते हैं।

पर चित्रकला में दस्तावेज़ीकरण का चलन भी बहुत पुराना है। युद्ध और महामारी जैसी त्रासदियों ने चित्रकारों को बार-बार चित्र रचना के लिए उद्वेलित किया है । इन चित्रों में ऐसे अनेक चित्र हैं जो अपनी सृजनशीलता के लिए कला इतिहास में भी उल्लेखनीय हैं। कई सदियों तक , ऐसे चित्रों में मृत्यु के साथ हालाँकि पाप-पुण्य , स्वर्ग-नरक आदि का भी उल्लेख अनिवार्य रूप से हुआ है ताकि धर्म की पकड़ , महामारी जैसी त्रासदियों में क्षीण न हो जाय ।पर बावजूद इसके, ऐसे मौकों पर ही ईश्वर के होने पर कला ने प्रश्न भी उठाये हैं।

यूरोप में 1348 से आरम्भ होकर 1381 तक चले प्लेग की महामारी ने यूरोप की आधी आबादी को लील लिया था। इस महामारी का सबसे सटीक वर्णन इटली निवासी इतिहासकार एगनोलो डी टुरा ने किया था। एगनोलो  के अभिलेखों से पता चलता हैं की इस जुकाम जैसे रोग में बाँहों के नीचे- काँख में और पेट और जांध के बीच के भाग में सूजन होती थी और रोगी की जल्द ही मृत्यु हो जाती थी।  एगनोलो डी टुरा ने इस महामारी में अपने पाँचो बच्चों और अपने पत्नी को खोया था। चौदहवीं शदाब्दी के उत्तरार्ध में लिखे महाकाव्य, ‘पीअर्स प्लॉवमेन’ में अंग्रेज पादरी विलियम लैग्लैंड ने लिखा था, “अब ईश्वर बहरा हो गया है, अब वह  हमारी नहीं सुन पा रहा। यह हमारे पापों की सजा ही है कि ईश्वर मनुष्य को पीस कर धूल में तब्दील कर रहा है।” इस महामारी ने मध्य युगीन यूरोपीय समाज के सौहार्द को भी बिगाड़ दिया था। ईसाईयों द्वारा, जर्मनी और अन्य देशों में यहूदियों की हत्या की गयी और उन्हें जिन्दा जलाया गया। इतिहासकार ज्याँ द विनेट ने इसे, ‘ ईसाइयों द्वारा सुनियोजित ढंग से यहूदियों को इस महामारी के लिए दोषी ठहराकर किया गया नर-संहार’ माना था।

आज इक्कीसवीं सदी में हमारे आस-पास, इस मध्य युगीन बर्बरता को पुनर्घटित होते देखना दुर्भाग्यपूर्ण जरूर है लेकिन  इस पर हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि यह एक सुनियोजित और लम्बी तैयारी की अभिव्यक्ति है। एक ओर प्लास्टिक सर्जरी से देवताओं को पैदा करने के कौशल के माध्यम से विज्ञान को परिभाषित करना और दूसरी ओर गो-माता, गो-मूत्र, गोमांस -भक्षण आदि के इर्दगिर्द एक खास धर्म के खिलाफ नफरत की फसल, मौजूदा कोरोना काल में ही काटी जा सकती थी ।

(चित्र 2)

चित्रकारों ने इस त्रासद समय को कई रूपकों के माध्यम से प्रस्तुत किया। फ्रांस के ईसाई मठ, सेंट आंद्रे डी लावोडू  (Saint-André-de-Lavaudieu) के एक भित्ति चित्र ( देखें चित्र 2 ) में चित्रकार ने ‘प्लेग रोग’ को एक स्त्री के रूप में चित्रित किया है, जिसके हाथ में बहुत सारे तीर हैं।  चित्र के दोनों और मरे या मरते हुए लोग हैं , जिनके गर्दन और काँखों में तीर धँसे हुए हैं। यह चित्र, प्लेग महामारी का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ी चित्र हैं जिसमें लोगों के तीर चुभने के  स्थान से रोग के विशेष लक्षण को चिन्हित किया गया है पर इसके साथ ही एक स्त्री को महामारी के रूप में चित्रित करना , विश्व भर में धर्मों का स्त्री के प्रति दुर्भाग्यपूर्ण रवैये की पुनरावृत्ति ही है ।

इसी महामारी भी एक और चित्र,  हमें कवि और इतिहासकार गीलेस ली मुइसिस (1272-1352) के अभिलेखों में मिलता है। ‘बेल्जियम के टूरनाइ शहर में प्लेग से मृत लोगों को दफ़्न करने आये लोग’ शीर्षक के इस मिनिएचर या लघु चित्र (देखें सबसे ऊपर लेख के आरम्भ के साथ लगा चित्र) में  हम मृत लोगों की ताबूतों को लेकर कब्रिस्तान पहुँचे लोगों की भीड़ को देख पाते हैं।  चित्र में, एक ताबूत को जहाँ चार लोगों ने मिल कर थामा हुआ है वहीं औरों ने अपने-अपने परिजनों के ताबूतों को अकेले ही अपने कंधे पर उठा कर कब्रिस्तान पहुँचे हुए हैं। यह चित्र, उस महामारी के भयावहता का भी एक सार्थक दस्तावेज़ है , जहाँ मृतकों के ताबूत ढोने के लिए तक लोग नहीं बचे थे।

उपरोक्त दोनों चित्रों में हम ‘परिप्रेक्ष्य’ ( पर्सपेक्टिव) की अनुपस्थियि और एक सपाटता को साफ़ देख सकते हैं। यह सपाटता, नवजागरण पूर्व बने चित्रों में ही दिखाई देती है। चित्रकला के इतिहास में, नवजागरण काल के बाद चित्रों में परिप्रेक्ष्य का आना ; एक बहुत बड़े परिवर्तन को रेखांकित करता  है।

चौदहवीं शताब्दी का ब्यूबोनिक प्लेग की विनाशलीला में गरीब-अमीर,शिक्षित-अशिक्षित, स्त्री -पुरुष किसी को नहीं छोड़ा और इससे गुजर कर यूरोप की जनता की सोच में व्यापक परिवर्तन हुए। राष्ट्रों के बीच रिश्तों में  बदलाव, व्यापार और आर्थिक क्षेत्र में नए समीकरणों के बनना शुरू हुआ। कई इतिहासकारों का मानना है, कि धर्मान्धता और नियतिवाद के खिलाफ वैज्ञानिक और मानवतावादी चिंतन का सूत्रपात भी इस महामारी के बाद हुआ। इतिहास की इन घटनाओं को समझते हुए हम सहज ही उम्मीद कर सकते हैं कि ‘उत्तर-कोरोना काल’ आधुनिक दुनिया में बहुत बड़ा परिवर्तन लाएगा।


अशोक भौमिक हमारे दौर के विशिष्ट चित्रकार हैं। अपने समय की विडंबना को अपने ख़ास अंदाज़ के चित्रों के ज़रिये अभिव्यक्त करने के लिए वे देश-विदेश में पहचाने जाते हैं। जनांदोलनों से गहरे जुड़े और चित्रकला के ऐतिहासिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य पर लगातार लेखन करने वाले अशोक दा ने  इतिहास के तमाम कालखंडों में आई महामारियों के चित्रकला पर पड़े प्रभावों पर मीडिया विजिल के लिए एक शृंखला लिखना स्वीकार किया है। उनका स्तम्भ ‘समय और चित्रकला’, हर रविवार को प्रकाशित होगा।