पहला पन्ना: ‘सिस्टम’ की मनमानी की ख़बरें देने का मौका चूक गए अख़बार!

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
काॅलम Published On :


आज के अखबारों की पहली खबर का शीर्षक होना चाहिए था, सीधे मुकाबले में प्रधानमंत्री ममता बनर्जी से हार गए। सात साल का कार्यकाल खत्म होने के बाद आज अखबारों में यह खबर जरूर होनी चाहिए थी। यह एक नई शुरुआत है और इसका पता उन खबरों से भी चलता है जिनमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की खबर ली। सुप्रीम कोर्ट ने अगर कहा है कि टीके की कीमत देश भर में एक होनी चाहिए तो सरकार या प्रधानमंत्री ने जो किया है वह पूरी तरह गलत है। अगर यह भलमनसाहत में ही किया गया है कि मौका है, टीका बनाने वाली कंपनियां कमा लें तो यह आम गरीबों और असहाय लोगों को लूटने की छूट देना है। इसे नियंत्रित भी किया जा सकता था। निर्वाचित लोकप्रिय प्रधानमंत्री से इसकी अपेक्षा नहीं थी। और सुप्रीम कोर्ट ने इसे मान लिया या इसकी जरूरत बताई है तो यह बड़ी बात है और इससे दिन बदलते लगते हैं। अखबारों को इसपर विचार कर ऐसी सामग्री देनी चाहिए थी पर आज ऐसा कुछ नहीं है। जो है वह कम निराशाजनक नहीं है। 

अखबारों में आज ऐसी खबरें नहीं हैं जो होनी चाहिए पर जो खबरें पहले पन्ने पर हैं और बतौर एक्सक्लूसिव हैं, दूसरे अखबार में पहले पन्ने पर नहीं हैं, अखबारों के संवाददाओं की बाईलाइन से हैं उनका शीर्षक पढ़ लीजिए और उनकी गंभीरता समझ लीजिए।

1.इंडियन एक्सप्रेस 

कोविड का खामियाजा : पैरोल के हकदार कैदी जेल में ही रहना चाहते हैं। यह मुंबई के तजोला जेल की खबर है। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर सात कॉलम में एंकर छापा है।

2हिन्दुस्तान टाइम्स 

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3.द हिन्दू 

अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आईपीएस में चयन के लिए न्यूनतम उंचाई से 2.5 सेमी कम वाले प्रतिभाशाली डॉक्टर के लिए केंद्र को चिट्ठी लिखी है। 

4.द टेलीग्राफ 

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5.द टाइम्स ऑफ इंडिया

ऐसी कोई उल्लेखनीय खबर प्रमुखता से नहीं छपी है जो दूसरे अखबारों में न हो।  

आज के अखबारों में पहले पन्ने की ज्यादातर खबरें एक हैं। इसलिए लीड भी एक हो सकती थी शीर्षक तो एक रहे ही हैं। द टेलीग्राफ आज भी अलग है। उसका मुख्य शीर्षक है, “नहीं, प्रधानमंत्री जी।”  अखबार ने इस मौके पर बीबीसी के सीरियल, यस प्राइम मिनिस्टर का भी जिक्र किया है जिसका हिन्दी अनुवाद जी प्रधानमंत्री जी भी काफी चर्चित हुआ था। जी प्रधानमंत्री जी के बाद पहली बार प्रधानमंत्री के आदेश की अवहेलना की गई तो खबर बड़ी थी। इस लिहाज से खबर पहले पन्ने पर है लेकिन सूचना भर। इस खबर के जो मायने और संकेत हैं वह बाकी अखबारों की प्रस्तुति से नहीं दिखता है। द हिन्दू ने तो इसे सिंगल कॉलम में ही निपटा दिया है। शीर्षक है, बंगाल के मुख्य सचिव ने पद छोड़ा। इससे लगता है कि उन्होंने इस्तीफा दिया पर मामला दिलचस्प है। दरअसल कई आदेशों से स्पष्ट दिखता है कि प्रधानमंत्री (या कोई और जो बहुत प्रभावशाली है) जो कहते हैं वह कर दिया जाता है बिना किसी अगर-मगर के। जो नहीं होना चाहिए वह खूब होता है और यह नामुमकिन को मुमकिन करना नहीं है। 

पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव के मामले में भी जानने वाले तो जानते ही थे और आदेश जारी करने वाले विभागों अधिकारियों को भी पता था कि जिस दिन बंगाल के पूर्व मुख्य सचिव को दिल्ली रिपोर्ट करने के लिए कहा गया है वह उनके कार्यकाल का आखिरी दिन था। पश्चिम बंगाल सरकार के आग्रह पर उन्हें तीन महीने का सेवा विस्तार दिया गया था और जाहिर है वह पश्चिम बंगाल में काम करने के लिए था। ऐसे में केंद्र सरकार के इस आदेश का कोई मतलब ही नहीं था कि वे दिल्ली रिपोर्ट करें। उनकी जगह कोई भी होता तो तीन महीने के एक्सटेंशन को लात मारता और चैन की नीन्द सोने का निर्णय करता। वैसे भी, आईएएस तो छोड़िए, चपरासी भी गुलाम नहीं होता है कि आप उसे 24 घंटे में दिल्ली तलब कर लें नौकरी के अंतिम दिन। कहने को कहा जा रहा है कि यह प्रधानमंत्री की हार है पर इस तरह का आदेश ही अनुचित है। हार तय थी और बाबुओं ने प्रधानमंत्री को बताया नहीं। अगर उनकी सहमति के बिना ऐसा आदेश जारी हुआ था तो आदेश जारी करने वाले के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। 

वैसे भी, कोई दिल्ली तभी रिपोर्ट करेगा जब अपनी पुरानी तैनाती से कार्यमुक्त होगा। कार्यमुक्त राज्य सरकार को करना था और राज्य सरकार सेवा विस्तार के लिए कह रही थी तो उसके पास यह विकल्प ही नहीं था और राज्य सरकार ने वही किया जो उसे करना चाहिए था या सेवा विस्तार नहीं मिलने पर करती या कर सकती थी। ऐसे में इस आदेश से पता चलता है कि सरकार टीके के मामले में ही नहीं, बाबुओं की नौकरी और तैनाती के संबंध में कैसे आदेश जारी करती है और उसका क्या असर होता है। सात साल में हमलोगों ने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं और आज मौका था कि ऐसे कुछ उदाहरणों की चर्चा होती, पुराने मामले याद किए जाते। जैसे आदेश वाले दिन जवाहर सरकार ने द टेलीग्राफ में लिखकर याद किया था। 

यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अभी हाल में सीबीआई के निदेशक का चुनाव हुआ और उसमें भी ऐसी ही मनमानी नजर आ रही है। अखबारों में इसकी चर्चा नहीं है। आप जानते हैं कि सीबीआई के निदेशक का चुनाव यह पद महीनों खाली रहने के बाद हाल में हुआ है। लेकिन नियुक्ति के लिए अधिकारियों का जो पैनल बना उसमें दो लोग पहली ही नजर में अयोग्य थे। इसपर सवाल उठाना अखबारों का काम है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। और तो और, नियुक्ति के बाद जो आदेश जारी हुआ उसमें लिखा है कि नए निदेशक का कार्यकाल दो साल या अगले आदेश तक, जो भी पहले हो, होगा। आप जानते हैं सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के लिए पैनल बना, पैनल को जो नाम सुझाए गए उनमें दो अयोग्य थे और जिसकी नियुक्ति हुई उसके कार्यकाल में यह पुछल्ला बाबुओं ने जोड़ दिया (या उनसे जुड़वा दिया गया)। स्पष्टतः यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है और बाबुओं को सरकार के नियंत्रण में रखने की कोशिश। यह सब नियम पत्रकार विनीत नारायण के मुकदमों के बाद बना था और उन्होंने इस पुछल्ले पर एतराज भी किया है पर खबर शायद ही कहीं दिखी। जबकि यह अखबारों का काम है।    

आज के दिन जब बाबुओं के साथ सरकारी मनमानी की हार हुई है तो आज सुबह-सुबह ही यह खबर भी घूम रही है कि न्यायमूर्ति अरुण मिश्र को एनअचआरसी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है। इसके साथ यह भी खबर है कि वे रिटारमेंट के बाद पांच महीने से सरकारी घर में रह रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट ने यह बताने से मना कर दिया कि वे कैसे रहे और किराया दिया या केंद्र सरकार ने किराया माफ कर दिया। (द वायर) और आज ही द हिन्दू में छपी एक पुरानी खबर घूम रही है। इसके अनुसार न्यायमूर्ति मिश्रा ने फरवरी 2020 में प्रधानमंत्री की भयंकर तारीफ की थी और उन्हें जीनियस कहा था। इसके अनुसार वे वैश्विक स्तर पर सोचते हैं और स्थानीय स्तर पर काम करते हैं। इस पहले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को गोवा का राज्यपाल बनाने की खबर थी। आज जब अखबारों में ये खबर नहीं हैं और सोशल मीडिया पुरानी खबरें याद दिला रहा है तो समझ में आता है कि सरकार सोशल मीडिया से क्यों परेशान है और उन्हें नियंत्रित करने के लिए अजीबोगरी कानून क्यों बनाया गया है। सरकारी व्यवहार की तो बात ही क्या करूं।  

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।